राज्य की निति-निदेशक तत्व
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत
परिचय
- पृष्ठभूमि: राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) की अवधारणा का स्रोत स्पेनिश संविधान है जहाँ से यह आयरिश संविधान में आया था।
- DPSP की अवधारणा आयरिश संविधान के अनुच्छेद 45 से आई है।
- संवैधानिक प्रावधान: भारत के संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36-51) में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP) शामिल हैं।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 37 निदेशक सिद्धांतों के कार्यों के बारे में अवगत करता है।
- इन सिद्धांतों का उद्देश्य लोगों के लिये सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना और भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करना है।
- मौलिक अधिकार बनाम DPSP:
- मौलिक अधिकारों (FRs) के विपरीत DPSP का दायरा असीम है और यह एक नागरिक के अधिकारों की रक्षा करता है और वृहद स्तर पर कार्य करता है।
- DPSP में वे सभी आदर्श शामिल हैं जिनका पालन राज्य को देश के लिये नीतियाँ और कानून बनाते समय ध्यान में रखना चाहिये।
- मौलिक अधिकार प्रकृति में नकारात्मक या निषेधात्मक हैं क्योंकि वे राज्य पर सीमाएँ आरोपित करते हैं।
- दूसरी ओर निदेशक सिद्धांत सकारात्मक निर्देश हैं, DPSP कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं।
- यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि DPSP और मौलिक अधिकार साथ-साथ चलते हैं।
- DPSP मौलिक अधिकार के अधीनस्थ नहीं है।
- सिद्धांतों का वर्गीकरण: निदेशक सिद्धांतों को उनके वैचारिक स्रोत और उद्देश्यों के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। ये निर्देश निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत हैं:
- समाजवादी सिद्धांत
- गांधीवादी सिद्धांत
- उदार और बौद्धिक सिद्धांत
- समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित निर्देश:
- अनुच्छेद 38: राज्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित कर आय, स्थिति, सुविधाओं तथा अवसरों में असमानताओं को कम करके सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित एवं संरक्षित कर लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद 39: राज्य विशेष रूप से निम्नलिखित नीतियों को सुरक्षित करने की दिशा में कार्य करेगा:
- सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार।
- भौतिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण को सामान्य जन की भलाई के लिये व्यवस्थित करना।
- कुछ ही व्यक्तियों के पास धन को संकेंद्रित होने से बचाना।
- पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान कार्य के लिये समान वेतन।
- श्रमिकों की शक्ति और स्वास्थ्य की सुरक्षा।
- बच्चों के बचपन एवं युवाओं का शोषण न होने देना ।
- अनुच्छेद 41: बेरोज़गारी, बुढ़ापा, बीमारी और विकलांगता के मामलों में कार्य करने, शिक्षा पाने और सार्वजनिक सहायता पाने का अधिकार सुरक्षित करना।
- अनुच्छेद 42: राज्य काम की न्यायसंगत और मानवीय परिस्थितियों को सुनिश्चित करने एवं मातृत्व राहत के लिये प्रावधान करेगा।
- अनुच्छेद 43: राज्य सभी कामगारों के लिये निर्वाह योग्य मज़दूरी और एक उचित जीवन स्तर सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद 43A: उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये राज्य कदम उठाएगा।
- अनुच्छेद 47: लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाना और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करना।
- गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित निर्देश:
- अनुच्छेद 40: राज्य ग्राम पंचायतों को स्वशासन की इकाइयों के रूप में संगठित करने के लिये कदम उठाएगा।
- अनुच्छेद 43: राज्य ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद 43B: सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कामकाज, लोकतांत्रिक नियंत्रण और पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देना।
- अनुच्छेद 46: राज्य समाज के कमज़ोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य कमज़ोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा।
- अनुच्छेद 47: राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिये कदम उठाएगा और नशीले पेय तथा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक नशीले पदार्थों के सेवन पर रोक लगाएगा।
- अनुच्छेद 48: गायों, बछड़ों और अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने तथा मवेशियों को पालने एवं उनकी नस्लों में सुधार करने के लिये।
- उदार-बौद्धिक सिद्धांतों पर आधारित निर्देश:
- अनुच्छेद 44: भारत के राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करना।
- अनुच्छेद 45: सभी बच्चों को छह वर्ष की आयु पूरी करने तक प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा प्रदान करना।
- अनुच्छेद 48: कृषि और पशुपालन को आधुनिक एवं वैज्ञानिक आधार पर संगठित करना।
- अनुच्छेद 48A: पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना तथा देश के वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करना।
- अनुच्छेद 49: राज्य की कलात्मक या ऐतिहासिक महत्त्व के प्रत्येक स्मारक या स्थान की रक्षा करना।
- अनुच्छेद 50: राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिये कदम उठाना।
- अनुच्छेद 51: यह घोषणा करता है कि राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने का प्रयास करेगा:
- राष्ट्रों के साथ न्यायपूर्ण और सम्मानजनक संबंध बनाए रखना।
- अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के लिये सम्मान को बढ़ावा देना।
- मध्यस्थता द्वारा अंतर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे को प्रोत्साहित करना।
DPSP में संशोधन:
- 42वाँ संविधान संशोधन, 1976: इसमें नए निर्देश जोड़कर संविधान के भाग-IV में कुछ बदलाव किये गए:
- अनुच्छेद 39A: गरीबों को निशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना।
- अनुच्छेद 43A: उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी।
- अनुच्छेद 48A: पर्यावरण की रक्षा और उसमें सुधार करना।
- 44वाँ संविधान संशोधन, 1977: इसने धारा 2 को अनुच्छेद 38 में सम्मिलित किया जो घोषित करता है कि “राज्य विशेष रूप से आय में आर्थिक असमानताओं को कम करने और व्यक्तियों के बीच नहीं बल्कि समूहों के बीच स्थिति, सुविधाओं एवं अवसरों संबंधी असमानताओं को खत्म करने का प्रयास करेगा।”
- इसने मौलिक अधिकारों की सूची से संपत्ति के अधिकार को भी समाप्त कर दिया।
- वर्ष 2002 का 86वाँ संशोधन अधिनियम: इसने अनुच्छेद 45 की विषय-वस्तु को बदल दिया और प्रारंभिक शिक्षा को अनुच्छेद 21A के तहत मौलिक अधिकार बना दिया।
मौलिक अधिकारों और DPSP के मध्य संघर्ष: संबद्ध मामले
- चंपकम दोरायराजन बनाम मद्रास राज्य (वर्ष 1951): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच किसी भी संघर्ष के मामले में मौलिक अधिकार मान्य होगा।
- इसने घोषणा की कि निदेशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिये और उन्हें सहायक के रूप में कार्य करना चाहिये।
- इसने यह भी माना कि संवैधानिक संशोधन अधिनियमों को लागू करके संसद द्वारा मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1967): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि निदेशक सिद्धांतों के कार्यान्वयन के लिये भी संसद द्वारा मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है।
- यह ‘शंकरी प्रसाद मामले’ में अपने स्वयं के निर्णय के विपरीत था।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (वर्ष 1973): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ (1967) के अपने फैसले को खारिज़ कर दिया और घोषणा की कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह अपनी “मूल संरचना” को बदल नहीं सकती है।
- इस प्रकार, संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है लेकिन वह संविधान के “मूल ढाँचे” को नहीं बदल सकती है।
डीपीएसपी का कार्यान्वयन: संबद्ध अधिनियम और संशोधन:
- भूमि सुधार: समाज में परिवर्तन लाने और ग्रामीण जनता की स्थिति में सुधार लाने के लिये लगभग सभी राज्यों ने भूमि सुधार कानून पारित किये हैं। इन उपायों में शामिल हैं:
- ज़मींदारों, जागीरदारों, इनामदारों जैसे बिचौलियों का उन्मूलन।
- किरायेदारी व्यवस्था में सुधार जैसे- कार्यकाल की सुरक्षा, उचित किराया आदि।
- भूमि जोत पर सीलिंग का अधिरोपण।
- भूमिहीन मज़दूरों के बीच अधिशेष भूमि का वितरण।
- सहकारी खेती।
- श्रम सुधार: समाज के श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा के लिये निम्नलिखित अधिनियम बनाए गए थे।
- न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम (वर्ष 1948), श्रम संहिता, 2020
- अनुबंध श्रम विनियमन और उन्मूलन अधिनियम (वर्ष 1970)
- बाल श्रम निषेध और विनियमन अधिनियम (वर्ष 1986), वर्ष 2016 में बाल एवं किशोर श्रम निषेध व विनियमन अधिनियम, 1986 के रूप में पुनर्निर्मित।
- बंधुआ मज़दूरी प्रणाली उन्मूलन अधिनियम (वर्ष 1976)
- खनन और खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957
- महिला श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिये मातृत्व लाभ अधिनियम (वर्ष 1961) और समान पारिश्रमिक अधिनियम (वर्ष 1976) बनाया गया है।
- पंचायती राज व्यवस्था: 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के माध्यम से सरकार ने अनुच्छेद 40 में वर्णित संवैधानिक दायित्व को पूरा किया।
- देश के लगभग सभी हिस्सों में ग्राम, ब्लॉक और ज़िला स्तर पर त्रिस्तरीय ‘पंचायती राज प्रणाली’ शुरू की गई थी।
- कुटीर उद्योग: अनुच्छेद 43 के अनुसार, कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये सरकार ने कई बोर्ड स्थापित किये हैं जैसे- ग्रामोद्योग बोर्ड, खादी और ग्रामोद्योग आयोग, अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड, रेशम बोर्ड, कॉयर बोर्ड आदि, जो कुटीर उद्योगों को वित्त एवं विपणन में आवश्यक सहायता प्रदान करते हैं।
- शिक्षा: सरकार ने अनुच्छेद 45 में दिये गए प्रावधान के अनुसार, निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा से संबंधित प्रावधानों को लागू किया है।
- इसे 83वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पेश किया गया एवं इसके पश्चात् शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 पारित किया गया। प्रारंभिक शिक्षा को 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है।
- ग्रामीण क्षेत्र का विकास: सामुदायिक विकास कार्यक्रम (वर्ष 1952), एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (वर्ष 1978-79) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा- वर्ष 2006) जैसे कार्यक्रम विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन स्तर को बढ़ाने के लिये शुरू किये गए थे। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 47 में कहा गया है।
- स्वास्थ्य: केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित योजनाएँ जैसे- प्रधानमंत्री ग्राम स्वास्थ्य योजना (PMGSY) और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NHRM) को भारतीय राज्य के सामाजिक क्षेत्र की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिये लागू किया जा रहा है।
- पर्यावरण: वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972; वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 को क्रमशः वन्यजीवों एवं वनों की सुरक्षा के लिये अधिनियमित किया गया है।
- जल और वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियमों ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना के लिये प्रावधान किया है।
- विरासत संरक्षण: प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक एवं पुरातत्त्व स्थल व अवशेष अधिनियम (वर्ष 1958) राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं की रक्षा के लिये अधिनियमित किया गया है।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP)
- भारतीय संविधान की एक विशेषता के रूप में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP) का उद्देश्य देश में एक न्यायपूर्ण और समानता पर आधारित समाज की स्थापना के लिए मार्गदर्शन करना है। सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के आदर्शों को अपनाते हुए, ये देश के शासन के लिए एक दिशा सूचक के रूप में कार्य करते हैं।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP) का अर्थ
- भारतीय संदर्भ में, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP) भारतीय संविधान में निहित दिशानिर्देशों या सिद्धांतों के समूह को संदर्भित करता है।
- नीति निर्देशक सिद्धांत, उन आदर्शों को दर्शाते हैं जिन्हें भारत में केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों को नीतियाँ और कानून बनाते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।
- राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के द्वारा एक बहुत ही व्यापक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम का निर्माण किया जाता हैं जो सामाजिक-आर्थिक न्याय प्राप्त करने और एक आधुनिक एवं कल्याणकारी राज्य की नींव रखने में सहायता करते हैं।
DPSPs से संबंधित संवैधानिक प्रावधान
- भारतीय संविधान के भाग चार में अनुच्छेद 36 से 51 में राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (DPSPs) से संबंधित विस्तृत प्रावधान हैं।
नोट : भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्वों (DPSPs) का विचार ‘आयरिश संविधान’ से लिया गया है। |
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) की प्रमुख विशेषताएँ
भारतीय संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- संवैधानिक निर्देश: ये तत्त्व विधायी, कार्यपालिका और प्रशासनिक से संबंधित मामलों में राज्यों के लिए संवैधानिक निर्देश हैं। इस प्रकार, ये तत्त्व नीतियाँ और कानून बनाने के दौरान राज्य द्वारा ध्यान रखने जाने वाले आदर्शों के रूप में कार्य करते हैं।
- गैर- न्यायिक: मौलिक अधिकारों के विपरीत, जो कानूनी रूप से लागू करने योग्य होते हैं, DPSP अन्यायिक (non-justiciable) होते हैं। अर्थात् इनके उल्लंघन के लिए न्यायलयों द्वारा उन्हें कानूनी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है और सरकारों को उन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
- कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य: ये तत्त्व भारतीय संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को साकार करने का लक्ष्य रखते हैं। इस प्रकार, ये तत्त्व ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को मूर्त रूप प्रदान करते हैं।
- सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र का लक्ष्य: ये तत्त्व एक व्यापक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों का निर्माण करते हैं जिनके आधार पर देश में सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र स्थापित किया जा सकता हैं। इस प्रकार, ये एक आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य स्थापित करने का लक्ष्य रखते हैं।
- सुशासन को बढ़ावा देना: ये तत्त्व सामाजिक-आर्थिक विकास के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए शासन में अनुकूलन और नवाचार की अनुमति देते हैं। इस प्रकार, ये तत्त्व सुशासन की पद्धतियों को बढ़ावा देते हैं।
- ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ इंस्ट्रक्शन’ से समानता: जैसा कि डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने कहा था कि ये तत्त्व 1935 के भारत सरकार अधिनियम में उल्लिखित ‘निर्देशों के उपकरण’ (Instrument of Instructions) से मिलते जुलते हैं।
- न्यायपालिका की सहायता: हालाँकि ये तत्त्व गैर-न्यायिक हैं, फिर भी ये किसी कानून की संवैधानिक वैधता की जाँच और निर्धारण में न्यायलयों की सहायता करते हैं।
- जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया है, किसी भी कानून की संवैधानिकता का निर्धारण करते समय, यदि अदालत को यह पता चलता है कि विचाराधीन कानून किसी निर्देशक सिद्धांत को प्रभावी बनाने का प्रयास करता है, तो वह ऐसे कानून को अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समानता और विधि का समान संरक्षण) या अनुच्छेद 19 (छह स्वतंत्रताओं का संरक्षण) के संबंध में ‘उचित’ मान सकता है।
नोट – डॉ. बी.आर.अम्बेडकर ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों को भारतीय संविधान की “नवीन विशेषताएँ” बताया। – ग्रानविल ऑस्टिन ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों और मौलिक अधिकारों को “संविधान की आत्मा” के रूप में वर्णित किया है। |
भारतीय संविधान के अंतर्गत राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (DPSPs) – एक विस्तृत अवलोकन
भारतीय संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 36 से 51 में वर्णित DPSPs से संबंधित प्रावधानों का विस्तार से वर्णन इस प्रकार है।
राज्य की परिभाषा (अनुच्छेद 36)
अनुच्छेद 36 के अनुसार, भाग IV (DPSPs) में ‘राज्य’ शब्द का वही अर्थ है जो भाग III (मौलिक अधिकार) में है। इस प्रकार, भाग IV (DPSPs) के प्रयोजन के लिए ‘राज्य’ शब्द में निम्नलिखित शामिल हैं:
- भारत सरकार और संसद अर्थात् केंद्र सरकार के कार्यपालिका और विधायी अंग।
- राज्य सरकार और विधायिका अर्थात् राज्य सरकार के कार्यपालिका और विधायी अंग।
- सभी स्थानीय प्राधिकरण अर्थात् नगरपालिकाएँ, पंचायत, जिला बोर्ड, सुधार ट्रस्ट आदि।
- देश के अन्य सभी सार्वजनिक प्राधिकरण।
भाग IV (अनुच्छेद 37) में वर्णित सिद्धांतों का अनुप्रयोग
- अनुच्छेद 37 के अनुसार, भाग IV (DPSP) में वर्णित प्रावधान किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे, फिर भी, ये सिद्धांत देश के शासन में मौलिक हैं और राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह इन सिद्धांतों को कानून बनाते समय लागू करे।
- DPSPs से संबंधित शेष प्रावधानों का उल्लेख आगामी अनुभागों में विस्तार से किया गया है।
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का वर्गीकरण
यद्यपि संविधान ने नीति निदेशक सिद्धांतों को वर्गीकृत नहीं किया है, उनकी सामग्री और उद्देश्यों के आधार पर उन्हें तीन व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- समाजवादी सिद्धांत
- गाँधीवादी सिद्धांत
- उदारवादी सिद्धांत
समाजवादी सिद्धांत (Socialistic Principles)
ये सिद्धांत समाजवाद की विचारधारा को अपनाते हुए लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य की रूपरेखा तैयार करते हैं। कुल मिलाकर, ये तत्त्व सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करके एक कल्याणकारी राज्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
अनुच्छेद | विवरण | संबंधित पहल |
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अनुच्छेद 38 | – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक – न्याय आधारित सामाजिक व्यवस्था को सुनिश्चित करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देना तथा आय, स्थिति, सुविधाओं एवं अवसरों में असमानताओं को कम करना। | – प्रधान मंत्री आवास योजना – सार्वजनिक वितरण प्रणाली – मनरेगा – राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) की स्थापना – राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) की स्थापना |
अनुच्छेद 39 | सुनिश्चित करना है:- – सभी नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधनों का अधिकार सुनिश्चित करना, – सामुदायिक संसाधनों का समान वितरण, – वित्त और उत्पादन के साधनों के संकेन्द्रण की रोकथाम, – पुरुषों और महिलाओं के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन, – श्रमिकों और बच्चों के स्वास्थ्य एवं क्षमता के बलात दुरुपयोग के विरुद्ध संरक्षण, – बच्चों के स्वस्थ विकास के अवसर। | – मातृत्व लाभ कानून – समाकलित बाल विकास योजना – न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 – समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 – ग्रामीण आजीविका मिशन और शहरी आजीविका मिशन – स्वयं सहायता समूहों (SHG) को बढ़ावा देना – मिशन इंद्रधनुष |
अनुच्छेद 39A | – न्याय में समानता को बढ़ावा देना और गरीबों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना। | – राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण – न्याय मित्र योजना |
अनुच्छेद 41 | कार्य एवं शिक्षा के अधिकार तथा बेरोजगारी, बुढ़ापे, बीमारी और विकलांगता के मामलों में सार्वजनिक सहायता के अधिकार को सुरक्षित करना। | – राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम – अन्नपूर्णा – मनरेगा अधिनियम 2005 – विकलांग व्यक्तियों का अधिनियम 1995 – माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम 2007 |
अनुच्छेद 42 | – न्यायपूर्ण एवं मानवीय कार्य परिस्थितियों तथा मातृत्व राहत का प्रावधान करना। | – पीएम मातृत्व वंदना योजना – मातृत्व लाभ अधिनियम 2017 |
अनुच्छेद 43 | – सभी श्रमिकों के लिए जीविकायापन के लिए वेतन, जीवन स्तर और सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसरों को सुरक्षित करना। | – 4 श्रम संहिताएँ – मनरेगा अधिनियम – सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 – आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना |
अनुच्छेद 43A | – उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना। | – श्रम कानून जैसे कि कारखाना अधिनियम 1948, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, अनुबंध श्रम अधिनियम 1970, आदि – ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 – श्रम न्यायालयों का एकीकरण। |
अनुच्छेद 47 | – लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा उठाना एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करना। | – राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 – पोषण अभियान – वन नेशन वन राशन कार्ड |
गाँधीवादी सिद्धांत (Gandhian Principles)
ये सिद्धांत गाँधीवादी विचारधारा पर आधारित हैं और राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित पुनर्निर्माण कार्यक्रम का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अनुच्छेद | विषय-वस्तु | संबंधित पहल |
---|---|---|
अनुच्छेद 40 | – ग्राम पंचायतों को संगठित करना और उन्हें स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक शक्तियाँ और अधिकार प्रदान करना। | – 73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1992 – पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम 1996 |
अनुच्छेद 43 | – ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना। | – खादी और हथकरघा बोर्ड – खादी और ग्राम उद्योग आयोग (KVIC) |
अनुच्छेद 43B | – सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कार्यप्रणाली और लोकतांत्रिक नियंत्रण के पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देना। | – सहकारिता मंत्रालय की स्थापना – युवा सहकार – सहकारी उद्यम सहायता और नवाचार योजना 2019 – 97वाँ संविधान संशोधन, 2011 – राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम अधिनियम, 1962 |
अनुच्छेद 46 | – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों को बढ़ावा देना तथा उन्हें सामाजिक अन्याय और शोषण से सुरक्षा प्रदान करना है। | – अनुच्छेद 15(3), 15(4), 15(5) के तहत मूल अधिकार – अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 – एससी/एसटी छात्रों के लिए पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति – एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय |
अनुच्छेद 47 | – स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक पेय पदार्थों और नशीली दवाओं के सेवन को रोकना। | – नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट 1985 – सिगरेट के पैकेटों पर अनिवार्य स्वास्थ्य चेतावनी – गुटका और ई-सिगरेट पर प्रतिबंध |
अनुच्छेद 48 | गायों, बछड़ों और अन्य दुधारू एवं माल ढोने वाले मवेशियों के वध को प्रतिबंधित करना तथा उनकी नस्लों में सुधार करना। | – राष्ट्रीय गोकुल मिशन – कामधेनु योजना – पशुधन संजीवनी योजना |
उदारवादी तत्त्व
ये सिद्धांत उदारवादी विचारधारा को दर्शाते हैं:
अनुच्छेद | विषय – वस्तु | संबंधित पहल |
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अनुच्छेद 44 | – पूरे देश में सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करना। | – विशेष विवाह अधिनियम 1954 – 1956 का हिंदू कोड बिल |
अनुच्छेद 45 | – छह वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा और देखभाल प्रदान करना। | – एकीकृत बाल संरक्षण योजना – बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना |
अनुच्छेद 48 | – कृषि एवं पशुपालन को आधुनिक एवं वैज्ञानिक आधार पर व्यवस्थित करना। | – ई-NAM – मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना – राष्ट्रीय गोकुल मिशन |
अनुच्छेद 48A | – पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना तथा वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा करना। | – भारतीय वन अधिनियम 1927 – वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972। – पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 – 2002 का जैविक विविधता अधिनियम। – हरित भारत मिशन |
अनुच्छेद 49 | – ऐसे कलात्मक या ऐतिहासिक रुचि के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं की रक्षा करना, जिन्हें राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किया गया है। | – 1966 का राष्ट्रीय ऐतिहासिक संरक्षण अधिनियम। – प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम 1958। – पुरावशेष और कला खजाना अधिनियम 1972। |
अनुच्छेद 50 | – राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करना। | – शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है। – न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का भाग है। |
अनुच्छेद 51 | – अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना तथा राष्ट्रों के बीच उचित एवं सम्मानजनक संबंध बनाए रखना। – अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना तथा – अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहित करना। | – गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) – पंचशील सिद्धांत – संयुक्त राष्ट्र शांतिरक्षा अभियान |
भारतीय संविधान में नए राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSPs)
- संविधान में मूल रूप से शामिल राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों की सूची में समय के साथ कुछ परिवर्तन हुए हैं। विभिन्न संविधान संशोधनों ने मूल सूची में कुछ नए राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों को जोड़ा है। साथ ही, कुछ मौजूदा राज्य नीति निदेशक तत्त्वों को भी संविधान संशोधनों के माध्यम से संशोधित किया गया था।
- इन परिवर्तनों और विकासों को निम्न प्रकार से देखा जा सकता है:
42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976
1976 के 42वें संशोधन अधिनियम ने मूल सूची में चार नए राज्य नीति निदेशक सिद्धांत जोड़े। इस संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए नए राज्य नीति निदेशक सिद्धांत नीचे सूचीबद्ध हैं:
अनुच्छेद | विषय-वस्तु |
---|---|
अनुच्छेद 39 | – बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए अवसर सुरक्षित करना। |
अनुच्छेद 39A | – समान न्याय को बढ़ावा देना और गरीबों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करना। |
अनुच्छेद 43A | – उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना। |
अनुच्छेद 48A | – पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना तथा वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करना। |
44वाँ संशोधन अधिनियम,1978
1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने जैसा कि नीचे दिखाया गया है, एक नया राज्य नीति निदेशक सिद्धांत जोड़ा:
अनुच्छेद | विषय-वस्तु |
अनुच्छेद 38 | – आय, स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को कम करना। |
86वाँ संशोधन अधिनियम, 2002
2002 के 86वें संविधान संशोधन अधिनियम ने DPSP के संबंध में दो परिवर्तन किये:
- अनुच्छेद 45 के विषयवस्तु को परिवर्तित किया। संशोधित निर्देश के अनुसार राज्य को सभी बच्चों के लिए छह वर्ष की आयु पूरी होने तक पूर्व-प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता रखता है।
- प्राथमिक शिक्षा को अनुच्छेद 21ए के तहत एक मौलिक अधिकार बना दिया।
97वाँ संशोधन अधिनियम, 2011
2011 के 97वें संशोधन अधिनियम ने एक नया राज्य नीति निदेशक सिद्धांत जोड़ा जैसा कि नीचे सूचीबद्ध है:
अनुच्छेद | विषय-वस्तु |
अनुच्छेद 43B | सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कार्यप्रणाली, लोकतांत्रिक नियंत्रण और व्यावसायिक प्रबंधन को बढ़ावा देना। |
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को न्यायालय द्वारा गैर
संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को प्रवर्तनीय (Non-Justiciable) नहीं बनाया। इसके पीछे कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- अधिकारों की दो श्रेणियाँ: संविधान सभा में हुई चर्चाओं और बहसों के बाद यह निर्णय लिया गया कि व्यक्ति के अधिकारों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाना चाहिए – प्रवर्तनीय (मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल) और अप्रवर्तनीय (राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के रूप में शामिल)।
- अपर्याप्त वित्तीय संसाधन: स्वतंत्रता के समय, देश के पास इन्हें पूरी तरह से लागू करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं थे।
- अनुमानित बाधाएँ: देश भर में विशाल विविधता और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को देखते हुए इनके प्रभावी कार्यान्वयन को महत्त्वपूर्ण चुनौतियों के रूप में देखा गया।
- लचीलेपन की आवश्यकता: स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात् एक राष्ट्र के रुप में भारत की कई महत्त्वपूर्ण प्राथमिकताएँ थीं। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को कानूनी रूप से लागू करने से संभावित रूप से राज्य की क्षमता पर बोझ पड़ सकता था।
- इसलिए, संविधान निर्माताओं ने यह निर्णय लिया कि कब, कहाँ और कैसे इन सिद्धांतों को लागू करना है, इस संबंध में लचीलापन होना चाहिए।
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की आलोचना
- अप्रवर्तनीयता – राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अप्रवर्तनीय होने का अर्थ है कि उनमें से अधिकांश केवल ” कागजी घोषणाओं (Pious Declarations)” के रूप में ही रह गए हैं।
- अतार्किक रूप से व्यवस्थित – राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को न तो ठीक से वर्गीकृत किया गया है और न ही किसी सुसंगत दर्शन के आधार पर तार्किक रूप से व्यवस्थित किया गया है। जिस तरह से उन्हें व्यवस्थित किया गया है, वह अपेक्षाकृत महत्वहीन मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक मुद्दों और आधुनिक मुद्दों को पुराने मुद्दों के साथ मिला देता है।
- रूढ़िवादी प्रकृति – आलोचकों का तर्क है कि ये निर्देश ज्यादातर 19वीं सदी के इंग्लैंड के राजनीतिक दर्शन पर आधारित हैं और 21वीं सदी के भारत के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
- सामाजिक वास्तविकताओं की अनदेखी – कुछ लोगों का तर्क है कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत भारत की विविध सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं की जटिलताओं को संबोधित करने में विफल रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी नीतियाँ बनती हैं जो सभी नागरिकों की जरूरतों को प्रभावी ढंग से पूरा नहीं कर सकती हैं।
- संवैधानिक संघर्ष – वे कई तरह के संवैधानिक संघर्षों को जन्म देते हैं जैसा कि नीचे देखा जा सकता है:
- केंद्र और राज्यों के बीच – केंद्र इन सिद्धांतों के कार्यान्वयन के संबंध में राज्य सरकारों को निर्देश दे सकता है, और अनुपालन न करने की स्थिति में संबंधित राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है।
- राष्ट्रपति और संसद के बीच – राष्ट्रपति किसी ऐसे विधेयक को अस्वीकार कर सकता है जो किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत का उल्लंघन करता हो।
- राज्यपाल और राज्य विधायिका के बीच – राज्यपाल किसी ऐसे विधेयक को अस्वीकार कर सकता है जो किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत का उल्लंघन करता हो।
- मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष – कुछ राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत प्राय: मौलिक अधिकारों के साथ टकराते हैं, जिससे परस्पर विरोधी हितों को संतुलित करने की चुनौतियां उत्पन्न होती हैं।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की उपयोगिता
कुछ आलोचनाओं के बावजूद, निम्नलिखित कारणों से निर्देशक सिद्धांत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं:
- निर्देशों का साधन: ये तत्त्व भारतीय संघ के भीतर सभी प्राधिकरणों के लिए “निर्देशों के उपकरण” या सामान्य सिफारिशों के रूप में कार्य करते हैं।
- राज्य कार्यों के लिए रूपरेखा: ये तत्त्व राज्य द्वारा किये गए सभी कार्यों (विधायी और कार्यकारी) को निर्देशित करने वाले व्यापक ढांचे का गठन करते हैं।
- न्यायपालिका की सहायता: ये तत्त्व न्यायपालिका को किसी कानून की संवैधानिक वैधता का निर्धारण करने में मदद करते हैं। इस प्रकार, ये न्यायालयों के लिए मार्गदर्शक प्रकाश के रूप में कार्य करते हैं।
- संवैधानिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता: ये तत्त्व भारत के सभी नागरिकों के लिए – न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व – प्रस्तावना में परिकल्पित आदर्शों को विस्तृत करते हैं और उन्हें प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हैं।
- नीतियों में स्थिरता और निरंतरता: ये तत्त्व राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में घरेलू और विदेश नीतियों दोनों में स्थिरता और निरंतरता की सुविधा प्रदान करते हैं।
- मौलिक अधिकारों का पूरक: ये तत्त्व सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का प्रावधान करके भाग तीन के रिक्त स्थान को भरकर मौलिक अधिकारों के पूरक के रुप में कार्य करते हैं।
- सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र को प्राप्त करने में सहायता: सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास करके, ये सिद्धांत नागरिकों के लिए अपने मौलिक अधिकारों का पूर्ण और उचित बनाने के लिए एक अनुकूल वातावरण बनाते हैं।
- सरकारी प्रदर्शन को मापने में सहायता: ये तत्त्व सरकार के प्रदर्शन को मापने के लिए मापदंड के रूप में कार्य करते हैं। इस प्रकार, ये नागरिकों के साथ-साथ विपक्ष को सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की जांच करने में सहायता करते हैं।
राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के कार्यान्वयन में चुनौतियाँ
- जवाबदेही का अभाव: इनकी गैर-बाध्यकारी प्रकृति के कारण, आलोचकों का तर्क है कि DPSPs के अनुपालन को सुनिश्चित करने में जवाबदेही की कमी है, जिससे सरकारें अपने दायित्वों की उपेक्षा कर सकती हैं।
- राजनीतिक लाभ: ऐसी आलोचना है कि सरकारें प्राय: DPSPs में उल्लिखित दीर्घकालिक उद्देश्यों पर अल्पकालिक राजनीतिक लाभ को प्राथमिकता देती हैं, जिससे उनका महत्त्व कम हो जाता है।
- अपर्याप्त वित्तीय संसाधन: पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की कमी सरकार को DPSPs के पूर्ण कार्यान्वयन से रोकने वाले प्रमुख कारणों में से एक है।
- जनसंख्या विस्फोट: देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या विभिन्न नए सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को जन्म दे रही है, जिन पर प्राथमिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इस प्रकार, DPSPs का कार्यान्वयन पिछड़ता रहता है।
- केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव: सहकारी संघवाद की अपर्याप्त भावना के परिणामस्वरूप केंद्र और राज्यों के बीच DPSPs के कार्यान्वयन के लिए समन्वय और सहयोग का अभाव होता है।
मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच गतिरोध की स्थिति में
- राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) को लागू करने के लिए कुछ स्थितियों में राज्य को मौलिक अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता हो सकती है। इसका अर्थ है कि राज्य को गैर-न्यायिक (DPSP) अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायिक (मौलिक अधिकार) अधिकारों पर प्रतिबंध लगाना पड़ सकता है। संविधान लागू होने के बाद से ही इस विरोधाभास ने दोनों के मध्य गतिरोध की स्थिति को उत्पन्न किया है।
- विगत वर्षों में मौलिक अधिकारों और DPSP के बीच संघर्ष के विकास को निम्न रूप से देखा जा सकता है:
- चंपकम दोराईराजन बनाम मद्रास राज्य (1951): इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच किसी भी विरोध की स्थिति में मौलिक अधिकार मान्य होंगे।
- इसने घोषित किया कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत मौलिक अधिकारों के सहायक के रूप में कार्य करते हैं।
- हालाँकि, यह माना गया कि संसद केवल संविधान संशोधन अधिनियमों को लागू करके मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मौलिक अधिकारों की पवित्र प्रकृति के होने के कारण संसद द्वारा संशोधित नहीं किये जा सकते।
- इसका तात्पर्य था कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता।
- 24 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1971): गोलकनाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात् संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 पारित किया।
- इसमें घोषित किया गया कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से किसी भी मौलिक अधिकार को वापस ले सकती है या कम कर सकती है।
- 25वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1971): इस संशोधन ने एक नया अनुच्छेद 31-C जोड़ा जिसमें निम्नलिखित प्रावधान शामिल थे:
- कोई भी कानून जो अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करने का प्रयास करता है, वह अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 31 के तहत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर अमान्य नहीं होगा।
- ऐसी नीति को प्रभावी करने की घोषणा वाले किसी भी कानून पर किसी भी न्यायालय में इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जाएगा कि यह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं बनाता है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 31C के दूसरे प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया। हालाँकि, इसने अनुच्छेद 31C के पहले प्रावधान को बनाए रखा।
- 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1976): इसने अनुच्छेद 31C के पहले प्रावधान की परिधि को बढ़ाकर इसमें केवल अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) को ही नहीं, बल्कि किसी भी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करने वाले किसी भी कानून को शामिल कर लिया।
- इस प्रकार, इस संशोधन ने अनुच्छेद 14, 19 और 31 के तहत मौलिक अधिकारों पर सभी DPSPs को सर्वोच्चता प्रदान करने का प्रयास किया गया।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में, 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 31C के पहले प्रावधान की परिधि को बढ़ाने को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था।
- इस प्रकार, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को एक बार फिर मौलिक अधिकारों के अधीन कर दिया गया।
- हालाँकि, अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को अनुच्छेद 14 और 19 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर सर्वोच्चता के रूप में स्वीकार किया गया था।
- वर्तमान स्थिति: राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) और मौलिक अधिकारों (FR) के संबंध में वर्तमान स्थिति निम्नलिखित है:
- मौलिक अधिकारों को राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों पर सर्वोच्चता प्राप्त है।
- हालाँकि, अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को अनुच्छेद 14 और 19 के तहत मौलिक अधिकारों पर सर्वोच्चता प्राप्त है।
- संसद किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है, लेकिन यह संशोधन संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित ना करें।
मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में अंतर
मौलिक अधिकार | राज्य के नीति निदेशक तत्त्व |
---|---|
ये प्रकृति में नकारात्मक होते हैं क्योंकि ये राज्य को कुछ विशेष कार्य करने से रोकते हैं। | ये प्रकृति में सकारात्मक होते हैं क्योंकि ये राज्य से कुछ विशेष कार्य करने की उम्मीद रखते हैं। |
ये न्यायसंगत प्रकृति के होते हैं। | ये न्यायप्रवर्तनीय नहीं होते। |
इनका उद्देश्य देश में राजनीतिक लोकतंत्र को स्थापित करना है। | इनका लक्ष्य देश में सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को स्थापित करना है। |
इन पर कानूनी प्रतिबंध होता हैं। | इन पर नैतिक और राजनीतिक प्रतिबंध होता हैं। |
वे स्वभाव से व्यक्तिवादी हैं क्योंकि वे व्यक्ति के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। | वे स्वभाव से समाजवादी हैं क्योंकि वे समुदाय के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। |
ये स्वत: रूप से लागू होते हैं और इसलिए इन्हें लागू करने के लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं होती है। | ये स्वत: रूप से लागू नहीं होते हैं, और इन्हें लागू करने के लिए कानून की आवश्यकता होती है। |
यदि कोई मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है तो न्यायालय कानून को असंवैधानिक और अमान्य घोषित कर सकती हैं। | यदि कोई राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का उल्लंघन करता है तो अदालतें कानून को असंवैधानिक और अमान्य घोषित नहीं कर सकती हैं। हालाँकि, वे किसी कानून की वैधता को इस आधार पर बनाए रख सकते हैं कि इसे एक निर्देश को प्रभावी करने के लिए अधिनियमित किया गया था। |
राज्य के नीति निर्देशक तत्व
- राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक में शामिल किया गया है| राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का उद्देश्य नीति निर्माताओं के सामने कुछ सामाजिक व आर्थिक लक्ष्यों को प्रस्तुत करना था ताकि वृहत्तर सामाजिक आर्थिक समानता की दिशा में देश में सामाजिक बदलाव लाये जा सकें| सर्वोच्च न्यायालय ने भी राज्य के नीति निर्देशक तत्वों से सम्बंधित कुछ निर्णय दिए है|
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक में शामिल किया गया है| नीति निर्देशक तत्व बाध्यकारी नहीं हैं अर्थात यदि राज्य इन्हें लागू करने में असफल रहता है तो कोई भी इसके विरुद्ध न्यायालय नहीं जा सकता है| नीति निर्देशक तत्वों की स्वीकृति राजनीतिक जो ठोस संवैधानिक और नैतिक दायित्वों पर आधारित है|
संविधान के अनुच्छेद-37 में कहा गया है कि विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा| संविधान के अनुच्छेद 355 और 365 का प्रयोग इन नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए किया जा सकता है|
नीति निर्देशक तत्वों का वर्गीकरण
- नीति निर्देशक तत्वों को तीन भागों में बांटा गया है जो कि इस प्रकार हैं |
1) सामाजिक और आर्थिक चार्टर
- a) न्याय पर आधारित सामाजिक संरचना-अनुच्छेद 38(1) में कहा गया है कि ‘राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की ,जिसमें सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे ,भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा|’
b) आर्थिक न्याय-अनुच्छेद 39 कहता है कि राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि पुरुष और स्त्री नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो,पुरुषों और स्त्रियों को दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हो,पुरुष और स्त्री कामगारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और बालकों को स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दिए जाएँ तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाये| अनुच्छेद 38 और 39 वितरणमूलक न्याय के सिद्धांत को साकार करता है,जिसमे सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थापना का निर्देश दिया गया है ताकि सभी तरह की सामाजिक असमानताओं को समाप्त किया जा सके|
2) सामाजिक सुरक्षा चार्टर
- a) उद्योगों के प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी (अनुच्छेद- 43 क);कुछ दशाओं,जैसे बेकारी,बुढ़ापा,बीमारी और निशक्तता,में काम,शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार (अनुच्छेद-41);कम करने की न्यायसंगत और मानवोचित दशाएं(अनुच्छेद-42);कामगारों के लिए निर्वाह मजदूरी (अनुच्छेद-43);बच्चों को,जब तक वे 14 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेते तब तक,निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना(अनुच्छेद-45);हालाँकि,86वें संविधान संशोधन,2002 के बाद अनुच्छेद-45 में यह वर्णित है कि “राज्य सभी बालकों को छः वर्ष की आयु पूरी होने तक प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा”;पोषाहार स्तर और जीवन स्तर में सुधार करना (अनुच्छेद-47), जिसमे विशेष रूप से मद्यपान निषेध शामिल है;दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि करना (अनुच्छेद-46);आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को सामान न्याय और निशुल्क विधिक सहायता (अनुच्छेद-39क)|
3) सामुदायिक कल्याण चार्टर:
- a) समान नागरिक संहिता:अनुच्छेद 44,वैसे तो राज्य ने हिन्दू पर्सनल लॉ(जोकि सिखों,जैनों और बौद्धों पर भी लागू होता है) में सुधार करने और संहिताबद्ध करने का प्रयास किया है लेकिन अभी तक मुस्लिमों,ईसाईयों और पारसियों को सामान नागरिक संहिता के तहत लेन के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया है|
b) कृषि और पशुपालन का संगठन: अनुच्छेद-48
c) वन तथा वन्यजीवों का संरक्षण व संबर्धन: अनुच्छेद-48क
d) स्मारकों का संरक्षण: अनुच्छेद-49
e) कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण: अनुच्छेद-50
f) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि: अनुच्छेद-51| अनुच्छेद-51 में दिए गए निर्देशों का पालन करते हुए संसद ने मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,1993 पारित किया जिसमे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन और मानवाधिकार न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है ताकि देश के अन्दर और बाहर मानवाधिकार हनन की समस्याओं से निपटा जा सके|
g)ग्राम पंचायतों का गठन: अनुच्छेद-40| इस प्रावधान का उद्देश्य निचले स्तर तक लोकतंत्र की स्थापना करना है|
नीति निर्देशक तत्वों से सम्बंधित सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय निम्नलिखित हैं:
- • मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराइराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं|
- • केरल शिक्षा विधेयक में न्यायालय ने कहा कि हालाँकि,राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं ,फिर भी अधिकारों की संभावनाओं और दायरे का निर्धारण करते समय न्यायालयों को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को पूरी तरह उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि दोनों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण संबंधों को स्वीकार करना चाहिये और जहाँ तक संभव हो सके दोनों को लागू करने का प्रयास किया जाये|
• 25वें संविधान संशोधन,1971 द्वारा नीति निर्देशक तत्वों के महत्त्व में वृद्धि हुई।इसके द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31 (ग) जोड़ा गया, जिसमे कहा गया अनुच्छेद 39(ब) और (स) को लागू करने के लिए लाये गए किसी भी कानून को इस आधार पर अमान्य नहीं ठहराया जा सकेगा कि वह अनुच्छेद 14 या 19 में दिए गए मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है।
• 42वें संविधान संशोधन ने अनुच्छेद 31(स) के दायरे को और अधिक विस्तृत कर दिया ताकि सभी नीति निर्देशक तत्वों को समाहित किया जा सके।इसने सभी नीति निर्देशकों को अनुच्छेद 14 और 19 के तहत दिए गए मूल अधिकारों पर अधिमान्यता प्रदान कर दी।
• केशवानंद भारती बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नीति निर्देशक तत्व और मूल अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं।यह कहा जा सकता है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में उन लक्ष्यों का वर्णन है जिन्हें प्राप्त किया जाना है और मूल अधिकार वे साधन है जिनके माध्यम से उन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। - • मिनर्वामिल्स बनाम भारत संघ मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि 42 वें संविधान संशोधन द्वारा 31(ग) में किया गया संशोधन असंवैधानिक है क्योकि यह संविधान की मूल संरचना को नष्ट करता है।बहुमत से निर्णय लिया गया कि संविधान की नींव भाग 3 और भाग 4 के मध्य संतुलन पर आधारित है।अतः एक पर दूसरे को स्पष्ट महत्व प्रदान करना संवैधानिक सौहार्द्र को नष्ट करना है जोकि संविधान की मूल संरचना है।
• अबूकावूर बाई बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने कहा कि हालाँकि,राज्य के नीति निर्देशक तत्व बाध्यकारी नहीं हैं फिर भी न्यायालयों को नीति निदेशक तत्वों और मूल अधिकारों के बीच समन्वय स्थापित करने का वास्तविक प्रयास करना चाहिए और दोनों के मध्य किसी भी प्रकार के संघर्ष से जहाँ तक संभव हो बचा जाये।
• उन्नाकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में न्यायालय ने पुनः दोहराया कि मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्व एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं और भाग 3 में दिए गए प्रावधानों की व्याख्या प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों के सन्दर्भ में की जानी चाहिए।
संतुलित आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने और लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के सन्दर्भ में कुछ नीति निर्देशक तत्वों जैसे-भूमि सुधारों को बढ़ावा देना,ग्राम पंचायतों का गठन करना,कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करना, अनुसूचितजाति/जनजाति के कल्याण, अनिवार्य शिक्षा, कामगारों को निर्वाह मजदूरी, श्रमिक कानून और हिन्दू विवाह अधिनियम के कार्यान्वयन का महत्वपूर्ण स्थान है।
अतः,राज्य के नीति निर्देशक तत्व सरकार के लिए निर्देश-पत्र के सामान हैं,जिसमे भारत में सामाजिक व कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए राज्य को कुछ सकारात्मक निर्देश दिए गए हैं।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का क्या महत्व
- भारत में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) भारत के संविधान के भाग IV में निर्धारित दिशानिर्देशों और सिद्धांतों का एक समूह हैं। हालाँकि ये सिद्धांत अदालतों द्वारा कानूनी रूप से लागू नहीं किए जा सकते, फिर भी ये सिद्धांत सरकार की नीतियों और कार्यों के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का महत्व सामाजिक-आर्थिक न्याय और लोगों के समग्र कल्याण को प्राप्त करने के लिए राज्य के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में उनकी भूमिका में निहित है। यहां उनके महत्व पर प्रकाश डालने वाले कुछ प्रमुख बिंदु दिए गए हैं:
लोगों का कल्याण:
- डीपीएसपी लोगों के कल्याण पर जोर देता है और राज्य को समाज की भलाई के लिए सकारात्मक कार्रवाई करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह राज्य को एक ऐसी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था प्राप्त करने की दिशा में काम करने का निर्देश देता है जो न्याय और समानता को बढ़ावा देती है।
सामाजिक न्याय:
- कई निदेशक सिद्धांत सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिसमें जाति, लिंग और आर्थिक असमानताओं पर आधारित असमानताओं को खत्म करना भी शामिल है। राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि विकास का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचे।
आर्थिक न्याय:
- डीपीएसपी राज्य को धन और संसाधनों के वितरण को सुरक्षित करने का निर्देश देकर आर्थिक न्याय के महत्व पर जोर देता है जो न केवल पर्याप्त है बल्कि सभी नागरिकों के लिए उचित जीवन स्तर भी सुनिश्चित करता है।
शिक्षा का प्रचार:
- संविधान डीपीएसपी में शिक्षा के महत्व को रेखांकित करता है, राज्य से एक निश्चित आयु तक के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का आग्रह करता है। यह व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के लिए आवश्यक साक्षरता और ज्ञान को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
पर्यावरण संरक्षण:
- समय के साथ, पर्यावरण से संबंधित चिंताओं को महत्व मिला है। डीपीएसपी में ऐसे सिद्धांत शामिल हैं जो राज्य को पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने, विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय शांति:
- कुछ निदेशक सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय शांति हासिल करने और राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मानजनक संबंध बनाए रखने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। यह वैश्विक सद्भाव और सहयोग के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
विधान हेतु मार्गदर्शन:
- हालांकि कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है, डीपीएसपी कानून और नीतियां बनाते समय राज्य के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है। कानून बनाते समय कानून निर्माता अक्सर इन सिद्धांतों का उल्लेख करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह संविधान के व्यापक उद्देश्यों के अनुरूप है।
मौलिक अधिकारों को संतुलित करना:
- डीपीएसपी संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों का पूरक है। जबकि मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं, डीपीएसपी उन सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को रेखांकित करके एक संतुलन प्रदान करता है जिनके लिए राज्य को प्रयास करना चाहिए, व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक कल्याण के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व सुनिश्चित करना। जबकि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत न्यायसंगत नहीं हैं, उनका महत्व उनकी महत्वाकांक्षी प्रकृति में निहित है, जो संविधान में उल्लिखित सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों के अनुरूप नीतियों और कानूनों को तैयार करने में सरकार का मार्गदर्शन करते हैं। वे संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित न्यायसंगत और न्यायसंगत समाज की परिकल्पना को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
राज्य के नीति निदेशक तत्व
राज्य के नीति निदेशक तत्व
- संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36- 51 तक राज्य के नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख है|
- नीति निदेशक तत्व 1937 में निर्मित आयरलैंड के संविधान से लिए गए हैं, तथा आयरलैंड के सविधान मे इन्हें स्पेन के संविधान से ग्रहण किया है|
- ये राज्य के लिए कर्तव्य या सकारात्मक आदेश है| राज्य नीतियां एवं कानून बनाते समय इनका ध्यान रखेगा|
- भीमराव अंबेडकर “नीति निर्देशक तत्व भारत शासन अधिनियम 1935 में उल्लेखित अनुदेशो के समान है| ये अनुदेश गवर्नर जर्नल या गवर्नरो के लिए जारी किए गए थे|”
- संविधान सभा में नीति निर्देशक तत्वों के लिए अलग समिति नहीं थी, बल्कि मूल अधिकारों की उप समिति (अध्यक्ष जे बी कृपलानी) द्वारा इनका निर्माण हुआ|
- राष्ट्रीय संविधान कार्यकारण एवं समीक्षा आयोग (संविधान समीक्षा आयोग या वेंकटचलिया आयोग) की रिपोर्ट 2002 में राज्य के नीति निदेशक तत्व शीर्षक की जगह राज्य की नीति के निदेशक तत्व एवं अनुयोजन करने की अनुशंसा की थी|
- नीति निदेशक तत्वों को प्रशासक के लिए आचार संहिता कहा जाता है|
- नीति निर्देशक तत्वों का उद्देश्य-
- सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र के अंतर्गत लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना, न कि पुलिस राज्य की| तथा समाजवादी, आर्थिक, गांधीवादी एवं बौद्धिक उदारवादी लोकतंत्र की स्थापना करना|
- ये वाद योग्य नहीं है, अर्थात इनकी प्रकृति गैर न्यायोचित है, फिर भी कानून की संवैधानिक मान्यता के विवरण में न्यायालय इन्हें देखता है|
- भाग 4 सामाजिक, आर्थिक न्याय का प्रतीक है|
- इस भाग से संविधान निर्माताओं की इच्छा या मंशा का पता चलता है|
- इस भाग में गांधी के विचारों का उल्लेख मिलता है|
- डॉक्टर B.R अंबेडकर ने इन तत्वों को विशेषता वाला बताया है|
- ग्रेनविल ऑस्टिन ने निदेशक तत्व और मौलिक अधिकारों को संविधान की मूल आत्मा कहा है|
अनुच्छेद- 36– परिभाषा
- इस भाग में राज्य का अर्थ वही है, जो भाग 3 में अनुच्छेद 12 के तहत है|
अनुच्छेद- 37- इस भाग में अंतर्विष्ट तत्वों का लागू होना-
- नीति निदेशक तत्व न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराए जा सकते हैं|
- किंतु ये शासन के लिए आधारभूत/ मूलभूत है, और राज्य का कर्तव्य होगा की विधि बनाते समय इनको लागू करें|
अनुच्छेद- 38- राज्य लोक कल्याण की अभिवृत्ति के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा-
- 38(1) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करेगा, जिससे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय द्वारा लोक कल्याण की अभिवृद्धि हो सके|
- 38(2) (44 वें संशोधन 1978 द्वारा जोड़ा गया)
- राज्य विशेष रूप से आय की असमानता को कम करने का प्रयास करेगा और विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले तथा विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समूह के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा|
- Note- एकमात्र अनुच्छेद जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय शब्द का उल्लेख है| इसके अलावा प्रस्तावना में इन शब्दों का उल्लेख है|
अनुच्छेद- 39– राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व-
- राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि निम्न बातें सुनिश्चित हो सके-
- 39(क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो|
- 39(ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व व नियंत्रण का बटवारा इस प्रकार किया जाए, जिससे कि सामूहिक हित की प्राप्ति हो सके|
- 39(ग) आर्थिक व्यवस्था का संचालन इस प्रकार करें कि जिससे धन तथा उत्पादन के साधनों का सकेंद्रण सर्वसाधारण के लिए अहितकारी न हो|
- 39(घ) पुरुषों और स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो|
- राजेश कुमार गोंड वाद 2014– समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत मौलिक अधिकार नहीं है|
- 39(ड) पुरुषों और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो, और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसा कार्य न करना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हो|
- 39(च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण, स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाए व बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए (42 वें संशोधन 1976 के द्वारा जोड़ा गया)
- Note- अनुच्छेद 39(ख) व 39(ग) के आधार पर इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण व राजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त किया था|
अनुच्छेद- 39 क– समान न्याय व निशुल्क विधिक सहायता (42 वे संशोधन 1976 के द्वारा जोड़ा गया)-
- राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधि तंत्र इस प्रकार कार्य करें कि सभी को समान न्याय मिल सके तथा आर्थिक या अन्य किसी निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्ति के अवसर से वंचित ना रहे इसलिए राज्य निशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराएगा|
- Note- निशुल्क विधिक सहायता के लिए राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority) (NALSA) का गठन NALSA Act 1987 के तहत किया गया|
- NALSA की स्थापना 1995 में की गई, यह नई दिल्ली में है|
- इसका मुख्य कार्य समाज के कमजोर वर्गों को निशुल्क विधिक सहायता देना है|
- NALSA के अलावा राज्य स्तर पर SALSA व जिला स्तर पर DALSA की स्थापना की गई|
अनुच्छेद – 40 ग्राम पंचायतों का संगठन–
- राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करेगा तथा उन्हें आवश्यक शक्तियों और अधिकार देगा जिससे कि वे स्वायत्त संस्था के रूप में कार्य कर सकें|
- Note- 73वें संशोधन 1992 द्वारा ग्राम पंचायतों को संवैधानिक मान्यता दी गई|
अनुच्छेद- 41 कुछ दशाओं में काम, शिक्षा, और लोक सहायता पाने का अधिकार-
- राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य तथा विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने का, शिक्षा पाने का, और बेकारी, बुढापा, बीमारी, निःशक्तता तथा अन्य कोई अभाव की दशा मे लोक सहायता पाने का अधिकार देगा|
- Note- निःशक्त के लिए लोक सहायता का उल्लेख केवल अनुच्छेद 41 में है तथा निःशक्त शब्द के लिए दिव्यांग शब्द का भी उपयोग किया जाता है
अनुच्छेद- 42 काम की न्याय संगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध–
- राज्य काम की न्याय संगत तथा मानवोचित दशा तथा प्रसूति सहायता उपलब्ध कराएगा |
अनुच्छेद- 43 कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि-
- राज्य सभी कर्मकरो को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर, अवकाश, सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर देने का प्रयास करेगा और विशेष रूप से गावों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेंगा|
अनुच्छेद- 43(क) उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना (42वे संशोधन 1976 के द्वारा जोड़ा गया)
- राज्य द्वारा विधि या अन्य रीति के द्वारा उद्योगों के प्रबंधन में कर्मकारों के भाग लेने को सुनिश्चित किया जाएगा|
अनुच्छेद- 43(ख) सहकारी समितियों का उन्नयन (97वे संशोधन 2012 के द्वारा जोड़ा गया)
- राज्य सहकारी समितियो की स्थापना को बढ़ावा देगा|
अनुच्छेद- 44 नागरिकों के एक सामान सिविल सहिंता-
- राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता लागू करने का प्रयास करेगा|
- समान सिविल संहिता का अर्थ– देश के सभी नागरिकों के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए कानून सभी धर्मों के लिए समान होने चाहिए|
- अधिकतर मामले में समान सिविल संहिता है, कुछ मामले जैसे- विवाह, उत्तराधिकार, संपत्ति संबंधी नियमों में एक समान सिविल संहिता नहीं है|
- शाहबानो केस (1985), सरला मुदगल केस (1995), गोवा पादरी केस (2003), सायरा बानो केस (2017) में सर्वोच्च न्यायालय ने एक समान सिविल संहिता की स्थापना की बात की है|
- मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो वाद 1985– इस मामले में यह निर्णय दिया गया कि मुस्लिम महिलाओं को भी तलाक लेने का अधिकार है तथा तलाक के बाद उन्हें भरण-पोषण भत्ता प्राप्त करने का अधिकार है|
- शाहबानो वाद में दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक से संरक्षण) अधिनियम 1986 बनाया गया|
- डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ 2017 के मामले में 1986 के अधिनियम को चुनौती दी गई तथा न्यायालय ने निर्णय दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को पुनर्विवाह तक भरण-पोषण भत्ता दिया जाएगा|
- सायरा बानो बनाम भारत संघ 2017 के मामले में तीन तलाक पर रोक लगाई गई है|
अनुच्छेद- 45 प्रारंभिक शैशवावस्था की देखरेख 6 वर्ष से कम आयु के बालकों की शिक्षा का प्रावधान-
- राज्य प्रारंभिक शैशवावस्था की देखरेख और सभी बालकों को उस समय तक जब तक कि वे 6 वर्ष की आयु पूर्ण न कर ले शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयास करेगा|
- अर्थात राज्य 6 वर्ष आयु तक बच्चों की शिक्षा व प्रारंभिक शैशवावस्था की देखभाल की व्यवस्था करेगा
- Note- 86 वें संशोधन 2002 से पहले अनुच्छेद 45– राज्य 6- 14 के बच्चों की शिक्षा व्यवस्था करेगा|
अनुच्छेद- 46 अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों की शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि-
- राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के, विशेष रुप से SC व ST के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभीवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय व शोषण से रक्षा करेगा|
अनुच्छेद- 47 पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य-
- इस अनुच्छेद में राज्य के तीन प्राथमिक कर्तव्यों का उल्लेख है-
- पोषाहार स्तर को ऊंचा करना|
- जीवन स्तर को ऊंचा करना|
- लोक स्वास्थ्य का सुधार करना
- और विशेष रूप से मादक पेयों तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के, औषधि से भिन्न प्रयोग को रोकने का प्रयास करेगा|
- Note- 1 जनवरी 1995 को Mid day Meal कार्यक्रम इसी आधार पर चलाया गया तथा गुटखा पर प्रतिबंध इसी आधार पर लगाया गया|
अनुच्छेद- 48 कृषि व पशुपालन का संगठन-
- राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा तथा विशेष रूप से गायों, बछड़ों व अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों का संरक्षण व सुधार करने का तथा उनका वध रोकने का प्रयास करेगा|
अनुच्छेद- 48 (क) पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा (42 वें संशोधन 1976 के द्वारा जोड़ा गया)
- राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा|
- Note- कर्तव्य व निदेशक तत्वों में समान
अनुच्छेद- 49 राष्ट्रीय महत्व के संस्मारको, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण-
- संसद द्वारा बनाई गई विधि के अधीन राष्ट्रीय महत्व वाले घोषित किए गए कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले प्रत्येक स्मारक, स्थान या वस्तु का यथास्थिति, लुंठन, विरूपण, विनाश, अपसारण, व्ययन या निर्यात से संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी|
अनुच्छेद- 50 कार्यपालिका से न्यायपालिका पृथक्करण-
- राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का राज्य द्वारा प्रयास किया जाएगा|
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेटस ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ 1993-
- अनुच्छेद 50 में राज्य व्यापक शब्द है, इसके अंतर्गत भारत सरकार, संसद, राज्य सरकार, विधानमंडल, सभी स्थानीय प्राधिकरण सम्मिलित है| कार्यपालिका से न्यायपालिका के प्रथक्करण की संकल्पना में अधीनस्थ न्यायालय, उच्चतर न्यायपालिका, न्यायपालिका की स्वतंत्रता सम्मिलित है|
- अर्थात अनुच्छेद 50 का अर्थ है कि न्यायपालिका कार्यपालिका से बिल्कुल स्वतंत्रत हो, कार्यपालिका किसी भी प्रकार से न्यायपालिका के मामलों मे हस्तक्षेप ना करें|
अनुच्छेद- 51 अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा की अभिवृद्धि-
- राज्य निम्न का प्रयास करेगा–
- (क) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभीवृद्धि का|
- (ख) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का|
- (ग) अंतरराष्ट्रीय संधि व विधियों के प्रति आदर बढ़ाने का|
- (घ) अंतर्राष्ट्रीय विवादो को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देने का|
- Note– अनुच्छेद 51 को भारतीय विदेश नीति का आधार कहते हैं|
- सविधान निर्माताओं ने निर्देशक तत्वों को वाद योग्य नहीं बनाया इसका कारण-
- देश के पास इनको लागू करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है|
- देश में व्यापक विविधता व पिछड़ापन इनके क्रियान्वयन में बाधक था|
- स्वतंत्र भारत को नए निर्माण के कारण कई तरह से भारो से मुक्त रखना था|
मौलिक संविधान के बाद जोड़े गए नीति निर्देशक तत्व
42 वें संशोधन 1976 द्वारा-
| 44 वें संशोधन 1978 द्वारा-
| 86 वें संशोधन 2002 द्वारा-
इसमें केवल परिवर्तन किया गया नया अनुच्छेद नहीं जोड़ा गया| | 97 वें संशोधन 2012 द्वारा-
|
मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक तत्वों में सर्वोच्चता संबंधी विवाद-
- 1950- 1966 – (DPSP, FR पर प्रभावी)
- इस काल में चंपाकम दोराईजी (1951), C.B बोर्डिंग (1960), सज्जन सिंहV/S राजस्थान वाद 1965 न्यायालय में आए|
- इन मामलों में न्यायालय का निर्णय था कि नीति निदेशक तत्व लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है|
- 1965 के सज्जन सिंह केस में सद्भावपूर्ण संरचना सिद्धांत (Harmonious Structure Theory) आया, जिसके अनुसार DPSP को लागू करने के लिए FR में संशोधन हो सकता है|
- 1967-72- (मौलिक अधिकार सर्वोच्च)
- इस काल में गोलकनाथ V/S पंजाब राज्य 1967 केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि F.R सर्वोच्च है, इसलिए इनमें संशोधन नहीं हो सकता है|
- 1973- 79- (मूल ढांचा, DPSP सर्वोच्च)
- केशवानंद भारती V/S केरल राज्य (1973) वाद में S.C ने कहा कि F.R में संशोधन किए जा सकते हैं, लेकिन मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है| अर्थात पुन DPSP को सर्वोच्च माना|
- 1980- 90- (FR व DPSP एक दूसरे के पूरक)
- मिनर्वा मिल्स V/S भारत संघ (1980) मामले में S.C ने कहा कि FR और DPSP एक दूसरे के पूरक है|
- इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा- भाग 3 व भाग 4 के मध्य संतुलन व सामंजस्य संविधान का मूलभूत ढांचा है|
वर्तमान स्थिति-
- केवल 39B वह 39C में वर्णित निदेशक तत्व ही मूल अधिकारों पर प्रभावी हैं, इन्हें लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है
- इसलिए कहा जाता है 39B व 39C के आने पर अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 19 चले जाते हैं, बाकि स्थितियों में मूल अधिकार ही प्रभावी रहते हैं|
नीति निर्देशक तत्वों के बारे में विद्वानों के कथन-
- अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर “लोगों के लिए उत्तरदाई कोई भी मंत्रालय भाग 4 के उपबंधो की अवहेलना नहीं कर सकता है|”
- B.R अंबेडकर “लोकप्रिय मत पर कार्य करने वाली सरकार निदेशक तत्वों की अवहेलना नहीं कर सकती है, नहीं तो मतदाताओं के समक्ष जवाब देना पड़ेगा|”
- K.T शाह ने अतिरेक कर्मकांडी कहा है| “DPSP की तुलना ‘एक चेक. जो बैंक में है, उसका भुगतान बैंक संसाधनों की अनुमति पर ही संभव है|”
- T .T. कृष्णामाचारी “ये भावनाओं का एक स्थायी कूड़ाघर है|”
- K.C व्हीयर “ये लक्षण और आशंकाओं का घोषणा पत्र है और धार्मिक उपदेश है| संसद और न्यायपालिका में संघर्ष को जन्म देते हैं|”
- जेनिग्स ने इन्हें कर्मकांडी आकांक्षा/ पुण्यात्मा/ फेबियन समाजवाद की स्थापना करने वाला कहा है|
- ऑस्टिन “इनका लक्ष्य सामाजिक क्रांति को स्थापित करने के समान है|”
- नेहरू “यह समाज के समाजवादी ढांचे की स्थापना करते हैं|”
- नसीरुद्दीन “ये सिद्धांत नव वर्ष प्रस्तावो की तरह है जो जनवरी में टूट जाते हैं|”
- M C चांगला (पूर्व मुख्य न्यायाधीश) “यदि इन तत्वों का पूरी तरह पालन किया जाए तो पृथ्वी पर स्वर्ग लगने लगेगा|”
- B.R अंबेडकर “ये आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करते हैं|”
- ग्रेनविल ऑस्टिन “मूल अधिकार साधन, नीति निदेशक तत्व- साध्य”
- डॉ राजेंद्र प्रसाद “राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने पाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है|”
- पंडित ठाकुर दास भार्गव के अनुसार “निदेशक तत्व संविधान के प्राण या सार तत्व है|”
- K M पाणिकर ने निदेशक तत्वों को आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद की संज्ञा दी है|
राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (DPSP)
डीपीएसपी और मौलिक अधिकारों के बीच संबंध
- हालांकि मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत संविधान के अलग-अलग हिस्सों में शामिल हैं, लेकिन दोनों का उद्देश्य नागरिकों की भलाई है। मौलिक अधिकारों को न्यायालयों द्वारा लागू किया जा सकता है, जबकि राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है।
- हालांकि, कई मौकों पर न्यायालयों ने राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए कुछ मामलों में निर्णय दिए हैं। यह एक तरह से दिखाता है कि नीति निर्माण और शासन में इन सिद्धांतों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है।
- 42वें संविधान संशोधन द्वारा इन सिद्धांतों में कुछ नए प्रावधान जोड़े गए, जिनमें अनुच्छेद 39ए शामिल है जो गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता की बात करता है और अनुच्छेद 48ए जो पर्यावरण के संरक्षण और सुधार की बात करता है।
राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों की विशेषताएं
राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों की कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
- गैर-न्यायसंगत: ये सिद्धांत कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं हैं। इन्हें न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है।
- कल्याणकारी राज्य की स्थापना: इन सिद्धांतों का मुख्य उद्देश्य भारत को कल्याणकारी राज्य बनाना है।
- सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र: ये सिद्धांत सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना में मदद करते हैं।
- न्यायपालिका को सहायता: ये सिद्धांत संवैधानिक व्याख्याओं में न्यायालयों की मदद करते हैं, खासकर तब जब कोई कानून सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास करता है।
नीति के निर्देशक सिद्धांतों की उपयोगिता
- हालाँकि इन्हें न्यायालयों के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता है, लेकिन इनकी उपयोगिता बहुत अधिक है। ये नीति निर्माण में स्थिरता प्रदान करने और सरकारी कार्यों को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सिद्धांत एक ऐसे मानदंड के रूप में कार्य करते हैं जिसके आधार पर सरकारों के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जा सकता है।
- इन सिद्धांतों के तहत राज्य को सामाजिक और आर्थिक विकास की दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए, ताकि एक समतावादी समाज की स्थापना की जा सके। ये सिद्धांत सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को पूरा करने के लिए आवश्यक हैं और इन्हें किसी भी राज्य की नीति का हिस्सा बनाया जाना आवश्यक है।
राज्य के नीति-निदेशक तत्व
- भारतीय संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्वों(डीपीएसपी) की संकल्पना को 1937 में निर्मित आयरलैंड के संविधान से लिया गया है।
- डॉ. बी.आर. अम्बेडकर: राज्य के नीति-निदेशक तत्व = भारतीय संविधान की अनोखी विशेषताएँ
- ग्रेनविल ऑस्टिन: डीपीएसपी + एफआर = संविधान की मूल आत्मा
· डीपीएसपी + एफआर = संविधान की दर्शन और आत्मा· भाग IV; अनुच्छेद 36 से 51
- नीति-निदेशक तत्व राज्य पर नैतिक बाध्यता आरोपित करते हैं।
- नीति-निदेशक तत्व सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनकी प्रकृति सकारात्मक है, जबकि मूल अधिकारों की प्रकृति नकारात्मक है।
- राज्य के नीति-निदेशक तत्व, मूल अधिकारों के पूरक हैं। उनका उद्देश्य भाग-3 (मूल अधिकार) में अनुपस्थित सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की प्रतिपूर्ति करना है।
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामला (1967) | नीति-निदेशक तत्वों को लागू करने हेतु मूल अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है। |
मिनेर्वा मिल्स केस (1980) | मूल अधिकार और डीपीएसपी के बीच सामंजस्य और संतुलन भारतीय संविधान की आधारशिला(Bedrock) है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। |
- सर बी.एन. राव (संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार) ने सिफारिश की थी कि वैयक्तिक अधिकारों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाना चाहिए- न्यायोचित और गैर- न्यायोचित, जिसे प्रारूप समिति द्वारा स्वीकार कर लिया गया था।
डीपीएसपी की विशेषताएँ |
- विधायी, कार्यकारी और प्रशासनिक मामलों में राज्य को संवैधानिक निर्देश या सिफारिशें।
- निदेशक तत्व भारत शासन अधिनियम,1935 में उल्लिखित अनुदेशों के समान हैं।
- डीपीएसपी एक आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विषयों हेतु महत्वपूर्ण हैं।
- डीपीएसपी ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ का निर्माण कराते हैं, ना कि पुलिस राज्य का।·
- डीपीएसपी का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को साकार करना है।
- डीपीएसपी गैर- न्यायोचित या वाद योग्य नहीं हैं, अर्थात इन्हें लागू करवाने हेतु या इनके उल्लंघन पर अदालत में वाद दायर नहीं किया जा सकता है।
- डीपीएसपी किसी कानून की संवैधानिक वैधता की जांच और निर्धारण करने में अदालतों की मदद करते हैं।
- उच्चतम न्यायालय : यदि कोई कानून नीति-निदेशक तत्वों को लागू करता है तो उसे मूल अधिकारों के अनुच्छेद 14 और 19 के साथ तर्कसंगत होना चाहिए।
डीपीएसपी का वर्गीकरण |
- भारतीय संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्वों(डीपीएसपी) का वर्गीकरण नहीं किया गया है। लेकिन विद्वानों ने सामान्य तौर पर इन्हें तीन व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया है- समाजवादी, गांधीवादी और उदार-बौद्धिक ।
1. समाजवादी |
- इस वर्ग के डीपीएसपी, समाजवाद की विचारधारा से प्रेरित हैं तथा लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य का खाका खींचते हैं। इनका लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना है।
अनुच्छेद | विवरण |
अनुच्छेद 38 |
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अनुच्छेद 39 |
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अनुच्छेद 39A | समान न्याय को बढ़ावा देना और गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करना(42 वां संशोधन)। |
अनुच्छेद 41 | बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी की स्थिति में कार्य, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता का अधिकार। |
अनुच्छेद 42 | काम(work) की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का प्रावधान। |
अनुच्छेद 43 | कर्मकारों के लिए निर्वाह योग्य मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर, अवकाश का उपयोग सुनिश्चित करने वाली कार्य दशाएँ, सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर को सुनिश्चित करना। |
अनुच्छेद 43A | उद्योगों के प्रबंधन में कामगारों का भाग लेना (42 वें संविधान संशोधन) |
अनुच्छेद 47 | पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य |
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- डीपीएसपी का यह वर्ग गांधीवादी विचारधारा पर आधारित है। ये महात्मा गांधी द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान पुनर्निर्माण के कार्यक्रम का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अनुच्छेद | विवरण |
अनुच्छेद 40 | ग्राम पंचायतों का संगठन (जमीनी स्तर पर लोकतंत्र स्थापित करना)। |
अनुच्छेद 43 | ग्रामीण क्षेत्रों में वैयक्तिक एवं सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना। |
अनुच्छेद 43B | सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त संचालन, लोकतांत्रिक नियंत्रण और पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देना (97 वें संशोधन, 2011) । |
अनुच्छेद 46 | एससी, एसटी और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने के लिए + उन्हें सामाजिक अन्याय और शोषण से बचाने के लिए। |
अनुच्छेद 47 | मादक पेय और नशीले पदार्थों का सेवन प्रतिबंधित करें। |
अनुच्छेद 48 | गायों व बछड़ों तथा अन्य दुधारू एव वाहक पशुओं के वध पर रोक लगाएं और उनकी नस्लों में सुधार करें । |
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अनुच्छेद | विवरण |
अनुच्छेद 44 | नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता । |
अनुच्छेद 45 | राज्य प्रारम्भिक शैशवावस्था की देखरेख और सभी बालकों को उस समय तक जब तक कि वे छः वर्ष की आयु न पूर्ण कर लें, शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयास करेगा(86वें संशोधन, 2002)| |
अनुच्छेद 48 | आधुनिक और वैज्ञानिक तर्ज पर कृषि और पशुपालन को व्यवस्थित करना। |
अनुच्छेद 48A | पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वाणी जीवों की रक्षा(42वें संशोधन 1976)। |
अनुच्छेद 49 | राष्ट्रीय महत्व के संस्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण। |
अनुच्छेद 50 | कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण। |
अनुच्छेद 51 | राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा की अभिवृद्ध ,राष्ट्रों के बीच सम्मानजनक संबंध बनाए रखने, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और संधि दायित्वों का सम्मान बढ़ाने और अंतर्राष्ट्रीय विवादों के माध्यस्थम(Arbitration) द्वारा समाधान करने का प्रयास करेगा। |
भाग IV से अतिरिक्त निदेश |
अनुच्छेद 335 भाग XVI | सेवाओं और पदों के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावे। |
अनुच्छेद 350A भाग XVII | प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं। |
अनुच्छेद 351 भाग XVII | हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश। |
मूल अधिकारों एवं नीति-निदेशक तत्वों में टकराव |
सुप्रीम कोर्ट मामले | उच्चतम न्यायालय की राय |
चंपकम दोराईराजन मामला, 1951 |
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गोलकनाथ मामला, 1967 |
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24वाँ संविधान संशोधन, 1971 |
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केसवानंद भारती मामला, 1973 |
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42वाँ संशोधन, 1976 |
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मिनर्वा मिल्स मामला, 1980 |
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डीपीएसपी का महत्व |
- घरेलू और विदेशी नीतियों में स्थिरता और निरंतरता की सुविधा + मौलिक अधिकारों का पूरक + मौलिक अधिकारों के पूर्ण और उचित क्रियान्वयन हेतु अनुकूल वातावरण बनाना + विपक्ष को सरकार के संचालन पर प्रभाव और नियंत्रण करने में सक्षम बनाता है + सरकार के प्रदर्शन की कड़ी परीक्षा करना + आम राजनीतिक घोषणा-पत्र के रूप में हैं + सरकार के पथ प्रदर्शक, दार्शनिक व मित्र |
नीति निर्देशक तत्व(अनुच्छेद 36 से 51)
- अनुच्छेद – 36 राज्य की परिभाषा का वर्णन किया गया है।
- अनुच्छेद – 37 नीति निर्देशका तत्व के हनन होने पर न्यायलय की शरण संभव नहीं है।
- अनुच्छेद – 38 लोक कल्याणकारी राज्य तथा उसकी नीतियों का वर्णन किया गया है।
- अनुच्छेद – 39 राज्य भौतिक और अभौतिक साधनों के सकेन्द्रण को रोकेगा। राज्य महिलाओं व बालकों और पुरूषों की सभी अवस्था ध्यान रखेगा। समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था रखी गई है।
- अनुच्छेद – 39(क) निःशुल्क विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार ।
- अनुच्छेद – 40 राज्य ग्राम पंचायतों को बढावा देकर उन्हे शक्तियां प्रदान करेगा।
- अनुच्छेद – 41 राज्य आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछडे वर्गो का विशेष ध्यान रखेगा।
- अनुच्छेद – 42 कार्य की न्यायोजित(उचित) दशाऐं बनाऐगा तथा महिलाओं को निःशुल्क प्रसुति सहायता उपलब्ध करायेगा।
- अनुच्छेद – 43 उद्योगों के प्रबन्धन में मजदुरों या श्रमिकों के भाग लेने का अधिकार ।
- अनुच्छेद – 43(क) सहकारी समितियों की स्थापना 97 वां संविधान संशोधन, 2011
- अनुच्छेद – 44 राज्य समान नागरिक संहिता को लागु करने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद – 45 राज्य 6 से 14 वर्ष के बालको को निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा देने की व्यवस्था करेगा। 86 वां संविधान संशोधन, 2002
- अनुच्छेद – 46 राज्य एस. टी. और एस. सी. तथा दुर्बल वर्गो के हितों का ध्यान रखेगा।
- अनुच्छेद – 48 राज्य कृषि और पशुपाल को वैज्ञानिक तरीके से बढावा देगा।
- अनुच्छेद – 48(क) राज्य पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद – 50 राज्य कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण करेगा।
- अनुच्छेद – 51 भारत की विदेश नीति का वर्णन जो शान्ति पुर्ण सहअस्तित्व तथा अन्तराष्ट्रीय पंच निर्णयों पर आधारित है।
भाग 4(क) मौलिक कत्र्तव्य – रूस(मुल सविधान में मौलिक कर्तव्य नहीं थे।)
- अनुच्छेद 51(क) 42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर जोड़े गये। इनके संख्या 10 रखी गई। वर्तमान में 11 है।
- 11 वां मौलिक कर्तव्य- 86 वें संविधान संशोधन 2002 से जोड़ा गया। प्रत्येक माता – पिता/ संरक्षक/अभिभावक को अपने 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को शिक्षा दिलाने का कर्तव्य निर्धारित किया गया है।
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
- संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे
- स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को ह्रदय में संजोए रखे और उनका पालन करे
- भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे
- देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे
- भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म . भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुंद्ध है
- हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे
- प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे
- सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे
- व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले
- यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे
भारतीय सविधान
संघ सरकार
उपराष्ट्रपति
महान्यायवादी
प्रधानमंत्री एवं मंत्री-परिषद
संसद
उच्चतम न्यायलय
राज्य सरकार
पंचायती राज
जिला परिषद
शहरी स्थानीय स्वशासन
चुनाव आयोग
संघ लोक सेवा आयोग
कन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण
नियन्त्रण एंव महालेखा परिक्षिक
C.B.I. ( सी.बी.आई. )
केन्द्रीय सतर्कता आयोग
लोकायुक्त
लोकपाल
Haryana CET for C & D { All Haryana Exam }
सामान्य अध्ययन
Haryana
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