संघवाद
भारत में संघवाद
सन्दर्भ
- हाल के वर्षों में केन्द्र सरकार और राज्यों के बीच विवादों में वृद्धि हुई है।
भारत में संघवाद
- अर्थ:
- संघवाद का तात्पर्य राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता के ऊर्ध्वाधर विभाजन से है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सत्ता केंद्रीय प्राधिकरण और अन्य घटकों के बीच विभाजित होती है। उदाहरण के लिए, भारत में राजनीतिक सत्ता केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और स्थानीय शासन की संस्थाओं के बीच विभाजित होती है।
- संघीय प्रणाली की विशेषताएं:
- सरकार के विभिन्न स्तर: संघवाद, अपनी परिभाषा के अनुसार, अपने परिभाषित क्षेत्र के अंदर विभिन्न स्तरों की सरकार की कार्यपद्धति की आवश्यकता रखता है।
- शक्ति का विभाजन: सत्ता को संस्थाओं के बीच विषयों के विभाजन द्वारा विभाजित किया जाता है ताकि संघर्ष की संभावना कम से कम हो जाए।
- लिखित संविधान: यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता के संबंधित विभाजन में स्पष्टता हो। फिर से, एक कठोर संविधान यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता का यह विभाजन आसानी से बाधित न हो।
- स्वतंत्र न्यायपालिका: यह सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच विवाद समाधान तंत्र के रूप में कार्य करती है।
- राज्य और केंद्र सरकार की परस्पर निर्भरता:
- भारत ने जानबूझकर संघवाद का एक ऐसा संस्करण अपनाया, जिसने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को एक-दूसरे पर निर्भर बना दिया (बाद में पहले की तुलना में अधिक)।
- इस प्रकार संघीय संविधान की मूल विशेषता का उल्लंघन किया गया, अर्थात संघ और राज्य सरकारों के लिए अधिकार के स्वायत्त क्षेत्र।
- संघवाद को एक साथ रखना:
- भारत का केंद्रीकृत संघीय ढांचा ‘एक साथ आने’ की प्रक्रिया से चिह्नित नहीं था, बल्कि ‘एक साथ रखने’ और ‘एक साथ रखने’ का परिणाम था।
- अविनाशी एवं लचीलापन:
- बी.आर. अंबेडकर ने भारत के संघ को संघ कहा था क्योंकि यह अविनाशी था, यही कारण है कि संविधान में संघवाद से संबंधित शब्द नहीं हैं।
- उन्होंने यह भी कहा कि भारत का संविधान आवश्यकता के आधार पर संघीय और एकात्मक होने के लिए अपेक्षित लचीलापन रखता है।
संघवाद के प्रकार
- सहकारी संघवाद:
- यह संघीय ढांचे में संस्थाओं के बीच क्षैतिज संबंध को संदर्भित करता है।
- सहकारी संघवाद देश के एकीकृत सामाजिक-आर्थिक विकास की खोज में दो संस्थाओं के बीच सहयोग को संदर्भित करता है।
- प्रतिस्पर्धी संघवाद:
- इसका तात्पर्य राज्यों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना है ताकि उन्हें आर्थिक विकास की दिशा में प्रेरित किया जा सके।
- पिछड़े राज्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे अग्रणी राज्यों से आगे निकलने के लिए अतिरिक्त प्रयास करें, जबकि अग्रणी राज्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे सूचकांक में अपनी रैंकिंग बनाए रखने के लिए कठोर मेहनत करें।
- राजकोषीय संघवाद:
- यह संघीय सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच वित्तीय शक्तियों के विभाजन के साथ-साथ कार्यों से भी संबंधित है।
- इसके दायरे में करों का अधिरोपण और केंद्र तथा घटक इकाइयों के बीच विभिन्न करों का विभाजन सम्मिलित है।
- इसी तरह, करों के संयुक्त संग्रह के मामले में, संस्थाओं के बीच धन के निष्पक्ष विभाजन के लिए एक वस्तुनिष्ठ मानदंड निर्धारित किया जाता है।
- सामान्यतः विभाजन में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एक संवैधानिक प्राधिकरण (जैसे भारत में वित्त आयोग) होता है।
बढ़ते संघीय मतभेदों के बारे में
- सार्वजनिक व्यय पर निर्भरता:
- 1991 से जारी आर्थिक सुधारों के कारण निवेश पर विभिन्न नियंत्रणों में ढील दी गई है, जिससे राज्यों को कुछ गुंजाइश मिली है।
- लेकिन सार्वजनिक व्यय नीतियों के बारे में स्वायत्तता पूर्ण नहीं है क्योंकि राज्य सरकारें अपनी राजस्व प्राप्तियों के लिए केंद्र पर निर्भर हैं। केंद्र और राज्यों के बीच यह समीकरण हाल के दिनों में उनके बीच टकराव का कारण बना है, जिससे बातचीत के लिए बहुत कम गुंजाइश बची है।
- अन्य: संसाधन साझाकरण से जुड़े मुद्दों के अलावा, ऐसे अन्य क्षेत्र भी हैं जो संघर्ष के स्थल के रूप में उभरे हैं। इनमें सम्मिलित हैं:
- सामाजिक क्षेत्र की नीतियों का समरूपीकरण,
- नियामक संस्थाओं का कार्यपद्धति और
- केंद्रीय एजेंसियों की शक्तियाँ।
- केंद्र का बढ़ता प्रभाव:
- आदर्श रूप से इन क्षेत्रों में नीतियों का बड़ा भाग राज्यों के विवेक पर होना चाहिए, जिसमें एक शीर्ष केंद्रीय निकाय संसाधन आवंटन की प्रक्रिया की देखरेख करे।
- हालांकि, शीर्ष निकायों ने प्रायः अपना प्रभाव बढ़ाने और राज्यों को उन दिशाओं में धकेलने का प्रयास किया है जो केंद्र के अनुकूल हों।
संघीय मतभेदों के आर्थिक परिणाम
- निवेश की दुविधा:
- केंद्र की गतिविधियों के विस्तार से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि केंद्र निवेश के मामले में राज्यों को पीछे छोड़ना शुरू कर देता है।
- हाल के वर्षों में बुनियादी ढांचे के विकास के एक मामले पर विचार करें।
- केंद्र ने बुनियादी ढांचा कनेक्टिविटी परियोजनाओं की एकीकृत योजना और समन्वित कार्यान्वयन को प्राप्त करने के लिए विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों की योजनाओं को शामिल करने के लिए एक डिजिटल प्लेटफॉर्म पीएम गति शक्ति का शुभारंभ किया।
- सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्बाध कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रीय मास्टर प्लान के अनुरूप राज्य मास्टर प्लान तैयार और संचालित करना था।
- तथापि, राष्ट्रीय मास्टर प्लान की योजना और कार्यान्वयन के केंद्रीकरण के कारण राज्यों को अपना मास्टर प्लान तैयार करने में लचीलापन सीमित हो जाता है।
- इससे राज्यों द्वारा कम निवेश किया जाता है।
- संकेन्द्रित व्यय:
- केंद्र का व्यय तीन सबसे बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के अंदर अधिक केंद्रित हो गया है, जो 2021-22 तथा 2023-24 के बीच 16 राज्यों के व्यय का लगभग आधा भाग है।
- 25 राज्यों के आंकड़ों से पता चलता है कि इन राज्यों द्वारा कुल ₹7.49 लाख करोड़ का बजट निर्धारित किया गया था, लेकिन उन्होंने केवल ₹5.71 लाख करोड़ खर्च किए, जो कुल का 76.2% है।
- इन राज्यों द्वारा किया गया निवेश क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे स्थानीय स्तर पर अधिक संपर्क स्थापित होते हैं, जबकि राष्ट्रीय अवसंरचना परियोजनाएं वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ अधिक संपर्क स्थापित करती हैं।
- अल्प प्रतिस्पर्धा:
- केंद्र के साथ मतभेद की स्थिति में, राज्य सरकारें अन्य राज्यों और केंद्र के साथ प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित होंगी। कल्याण प्रावधान एक ऐसा ही क्षेत्र है।
- बढ़ी हुई राजकोषीय गुंजाइश के साथ केंद्र के पास अधिक खर्च करने की शक्ति है, जबकि राज्यों के राजस्व, विशेष रूप से गैर-कर राजस्व, स्थिर रहते हैं क्योंकि केंद्र द्वारा विभिन्न उपयोगिताओं और सेवाओं के प्रत्यक्ष प्रावधान के कारण गैर-कर बढ़ाने की संभावनाएँ एक छोटे क्षेत्र तक ही सीमित रहती हैं।
- ‘समानांतर नीतियों’ से जुड़ी अक्षमताएँ:
- संघीय विवादों के कारण या तो केंद्र या राज्य एक-दूसरे की नीतियों की नकल करते हैं।
- समानांतर योजनाओं का उद्भव मुख्य रूप से संघीय प्रणाली में व्याप्त विश्वास की कमी के कारण होता है, जिसके राजकोषीय लागत का अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है।
आगे की राह
- अपने विभिन्न कानूनों और नीतियों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए, केंद्र राज्यों पर निर्भर करता है, विशेषकर समवर्ती क्षेत्रों में।
- राज्य भी केंद्र की सहमति से अपने कार्यकारी कार्यों को केंद्र सरकार या केंद्र की एजेंसियों को सौंपते हैं (अनुच्छेद 258A)।
- इस तरह की परस्पर निर्भरता अपरिहार्य है, विशेषकर एक बड़े, विविध, विकासशील समाज में और इसे बनाए रखने की आवश्यकता है।
संविधान में असममित संघवाद
परिचय:
हाल ही में संविधान के अनुच्छेद 370 (2023) से संबंधित एक मामले में असममित संघवाद पर चर्चा की गई थी। इस मामले में उच्चतम न्यायालय की 7 न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि अनुच्छेद 370 असममित संघवाद का उदाहरण है।
- असममित संघवाद का उल्लेख संप्रभुता से भिन्न शब्द के रूप में किया गया था।
असममित संघवाद के संबंध में न्यायालय के क्या विचार थे?
- असममित संघवाद का अर्थ:
- असममित संघवाद में एक विशेष राज्य को स्वायत्तता की एक डिग्री प्राप्त हो सकती है जो दूसरे राज्य को नहीं है।
- हालाँकि अंतर केवल डिग्री का है, प्रकार का नहीं। संघीय व्यवस्था के तहत अलग-अलग राज्यों को अलग-अलग लाभ प्राप्त हो सकते हैं, लेकिन सामान्य क्रम संघवाद है।
- याचिकाकर्त्ताओं की दलीलें:
- याचिकाकर्त्ताओं ने कहा कि अनुच्छेद 370 की व्याख्या तीन स्तंभों अर्थात् असममित संघवाद, स्वायत्तता और सहमति के संदर्भ में की जानी चाहिये।
- असममित संघवाद, यानी कुछ संघीय उप-इकाइयों के लिये भेददर्शक अधिकार, भारतीय संघीय योजना का एक हिस्सा हैं। यह संघवाद की तरह ही बुनियादी ढाँचे का एक हिस्सा है।
- संघीय और एकात्मक:
- लोकतंत्र और संघवाद संविधान की बुनियादी विशेषताएँ हैं। ‘संघीय‘ शब्द का प्रयोग संघ या केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों के विभाजन को इंगित करने के लिये किया जाता है।
- जबकि संवैधानिक संरचना में कुछ ‘एकात्मक‘ विशेषताएँ मौजूद हैं, जिनके संदर्भ में केंद्र सरकार के पास कुछ स्थितियों में अधिभावी शक्तियाँ हैं, संविधान द्वारा परिकल्पित सरकारों के रूप में संघीय तत्त्वों का अस्तित्त्व राजनीति की आधारशिला है।
- इस व्यवस्था को अर्द्ध-संघीय, असममित संघवाद या सहकारी संघवाद के रूप में वर्णित किया गया है।
असममित संघवाद के एक भाग के रूप में संविधान के तहत विशेष प्रावधान क्या हैं?
- जम्मू और कश्मीर से संबंधित विशेष प्रावधान:
- भारत में असममित संघवाद का सबसे प्रमुख उदाहरण पूर्व राज्य जम्मू और कश्मीर को दिया गया विशेष दर्जा था।
- अनुच्छेद 370, जो एक अस्थायी प्रावधान था, जम्मू और कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर एक अद्वितीय स्वायत्तता प्रदान करता था।
- इस विशेष प्रावधान ने राज्य को अपना संविधान और ध्वज रखने की अनुमति दी, जिससे भारतीय संविधान का अनुप्रयोग केवल विशिष्ट मामलों तक सीमित हो गया।
- हालाँकि अगस्त 2019 में भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करके तथा राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों – जम्मू और कश्मीर व लद्दाख में विभाजित करके एक ऐतिहासिक कदम उठाया।
- इस कदम द्वारा जम्मू-कश्मीर को पहले से प्राप्त विशेष दर्जे से वंचित कर दिया गया, जिससे यह शेष भारतीय राज्यों के साथ अधिक निकटता से जुड़ गया।
- जबकि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से संघीय संबंधों में विषमता कम हो गई है, असममित संघवाद का सिद्धांत देश के अन्य हिस्सों में प्रासंगिक बना हुआ है।
संविधान में विशेष प्रावधान से संबंधित अन्य अनुच्छेद:
- अनुच्छेद 371:
- यह महाराष्ट्र और गुजरात के लिये अलग-अलग विकास बोर्डों के निर्माण का उल्लेख करते हुए विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जो महाराष्ट्र में विदर्भ तथा मराठवाड़ा क्षेत्रों के लिये ऐसे बोर्ड स्थापित करने के राज्यपाल के अधिकार पर प्रकाश डालता है।
- अनुच्छेद 371A:
- यह नगालैंड राज्य के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जिसमें एक पृथक विधायिका और नागा लोगों के लिये उनके पारंपरिक कानूनों व प्रथाओं की सुरक्षा के लिये एक विशेष दर्जा शामिल है।
- अनुच्छेद 371B:
- यह असम राज्य से संबंधित है तथा राज्य की विधान सभा में सीटों के आवंटन की जाँच और सिफारिश करने के लिये एक क्षेत्रीय समिति की स्थापना का प्रावधान करता है।
- अनुच्छेद 371C:
- यह मणिपुर राज्य के लिये विशेष प्रावधानों से संबंधित है, जिसमें विधायी तंत्र के उचित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिये एक विधानसभा और एक समिति का प्रावधान है।
- अनुच्छेद 371D & 371E:
- अनुच्छेद 370D आंध्र प्रदेश राज्य से संबंधित है तथा लोक नियोजन और शिक्षा में समान अवसर प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 371E कहता है कि संसद विधि द्वारा आंध्र प्रदेश राज्य में एक विश्वविद्यालय की स्थापना के लिये प्रावधान कर सकती है।
- अनुच्छेद 371F:
- यह सिक्किम राज्य के संबंध में विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जिसमें मौजूदा कानूनों को जारी रखना और उनका अनुकूलन शामिल है।
- अनुच्छेद 371G:
- यह मिज़ोरम राज्य के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है। इसमें कहा गया है कि संसद का कोई भी अधिनियम निम्नलिखित के संबंध में नहीं है-
(i) मिज़ो लोगों की धार्मिक या सामाजिक प्रथाएँ,
(ii) मिज़ो रूढ़िजन्य विधि और प्रक्रिया,
(iii) सिविल और दांडिक न्याय प्रशासन, जहाँ विनिश्चय मिज़ो रूढ़िजन्य विधि के अनुसार होने हैं,
(iv) भूमि का स्वामित्व और अंतरण, मिज़ोरम राज्य पर लागू होगा जब तक कि मिज़ोरम राज्य की विधानसभा किसी संकल्प द्वारा ऐसा निर्णय न ले ले।
- यह मिज़ोरम राज्य के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है। इसमें कहा गया है कि संसद का कोई भी अधिनियम निम्नलिखित के संबंध में नहीं है-
- अनुच्छेद 371H:
- यह अरुणाचल प्रदेश राज्य के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है।
- इसमें कहा गया है कि अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल की अरुणाचल प्रदेश राज्य में विधि और व्यवस्था के संबंध में विशेष उत्तरदायित्व रहेगा तथा राज्यपाल, उस संबंध में अपने कृत्यों के निर्वहन में की जाने वाली कार्यवाही के संबंध में अपने व्यक्तिगत निर्णय का प्रयोग मंत्रिपरिषद से परामर्श करने के पश्चात् करेगा।
- अनुच्छेद 371I:
- यह गोवा राज्य के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 371J:
- यह राष्ट्रपति को कर्नाटक राज्य के लिये विशेष प्रावधान करने की शक्ति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 371:
निष्कर्ष:
- भारत के संविधान में असममित संघवाद इसके निर्माताओं की दूरदर्शिता का प्रमाण है, जिन्होंने देश की विविध प्रकृति को पहचाना। क्षेत्रीय, भाषाई एवं सांस्कृतिक मतभेदों को समायोजित करके, संवैधानिक ढाँचे का उद्देश्य विविधता में एकता को बढ़ावा देना है। संघीय संबंधों का विकास, जैसे कि अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, भारत के संघवाद की गतिशील प्रकृति को दर्शाता है।
भारत में संघवाद के 75 साल: एक मज़बूत लोकतंत्र की बुनियाद
भारत जैसे विविधता भरे देश में विकास और असरदार प्रशासन के लिए एक मज़बूत संघीय ढांचा होना ही चाहिए.
- भारत जैसे विविधता भरे देश की मशहूर संघीय व्यवस्था, लगातार बदलते हुए राजनीतिक और सामाजिक- आर्थिक आयामों के चलते निरंतर बदलावों की गवाह बनी है. आज जब भारत गणराज्य ने अपने अस्तित्व के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं, तो ये ज़रूरी हो जाता है कि हम भारत की संघीय व्यवस्था के मिज़ाज और उसके कामकाज की गहराई से पड़ताल करें और भारत की लोकतांत्रिक राजनीति और प्रशासन पर इसके प्रभाव का मुआयना करें.
एक अनूठा संघीय ढांचा
- अपने मूल रूप में भारत ने एक ऐसी संघीय राजनीतिक व्यवस्था को अपनाया था, जिसमें शासन के दो स्तर थे: राष्ट्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर. 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के बाद इस संघीय प्रशासनिक ढांचे में पंचायतों और नगर निकायों के रूप में एक तीसरी और अहम पायदान भी जोड़ी गई थी.
- भारत के संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र भारत में शासन चलाने के लिए एक अनूठे संघीय ढांचे को अपनाया था, जिसे ‘केंद्रीकृत संघवाद’ का नाम दिया गया था.
- ऐसा इसलिए था क्योंकि अमेरिका या कनाडा जैसे आदर्श संघवाद के उलट, भारत के संविधान में कई मामलों में एक बेहद मज़बूत केंद्र सरकार की परिकल्पना को अनिवार्य बना दिया गया है.
- भारत गणराज्य के संस्थापकों के इस फ़ैसले के पीछे उस भय को वजह बताया जाता है कि आज़ादी के दौरान, देश के बंटवारे की भयावाह त्रासदी झेलने की विरासत के चलते, भारत के कई हिस्सों में अलगाववादी प्रवृत्तियां पनप रही थीं.
- केंद्र सरकार को, राज्यों पर कई मामलों में अधिक अधिकार हासिल हैं. जैसे कि राज्यों की सीमाएं तय करना या उनमें बदलाव करना. संविधान की केंद्रीय सूची में राज्यों की सूची से कहीं अधिक विषय हैं और यहां तक कि समवर्ती सूची में दर्ज कई विषयों में भी राज्यों के क़ानून पर केंद्र के क़ानून को तरज़ीह दी गई है.
- इसके अलावा, असाधारण परिस्थितियों में देश की संसद राज्यों के विषय में भी क़ानून बना सकती है. सबसे अहम बात ये है कि देश के आर्थिक संसाधनों पर केंद्र का ज़बरदस्त नियंत्रण है और उससे भी विवादित बात ये है कि केंद्र के पास राज्यों में राज्यपाल नियुक्त करने का अधिकार है और केंद्र, उचित समझने पर राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाकर उनकी विधानसभाएं भंग करने का भी अधिकार रखता है.
- हालांकि ये मान लेना ग़लत होगा कि भारत के संघवाद का पलड़ा पूरी तरह से केंद्र सरकार की तरफ़ झुका हुआ है. भारत की राजनीतिक व्यवस्था में कई अहम और मज़बूत संघीय ख़ूबियां हैं. जैसे कि दोहरी शासन प्रणाली और एक लिखित संविधान में केंद्र और राज्यों के तयशुदा अधिकारों का स्पष्ट रूप से बंटवारा किया गया है.
- इसके साथ साथ, संविधान के संघीय प्रावधानों में संशोधन की प्रक्रिया बेहद सख़्त है और कोई बदलाव कर पाना तभी मुमकिन है, जब राज्यों का बहुमत किसी बदलाव को मंज़ूरी दे.
- केंद्र और राज्यों के बीच किसी भी तरह के विवाद की सूरत में फ़ैसले करने के लिए, एक स्वतंत्र न्यायपालिका जैसी संस्थागत सुरक्षा व्यवस्था भी भारत के संविधान में है.
बदलते संघीय संबंध
- बदलते हुए समय के साथ साथ, केंद्र और राज्यों के रिश्तों में भी बदलाव देखने को मिला है. ये परिवर्तन अक्सर अलग अलग समय में बदली राजनीतिक व्यवस्था से संचालित होता रहा है.
- भारत का संघवाद अपनी शुरुआत के समय से ही केंद्र और राज्यों के राजनीतिक किरदारों के बीच पेचीदा संवाद से संचालित होता रहा है.
- अलग अलग राजनीतिक दल और पहचान व संसाधनों की राजनीति इस संवाद में ख़लल डालती रही है.
- देश की आज़ादी से लेकर अब तक, भारत में संघवाद के आयाम को अस्थायी तौर पर चार चरणों में बांटा जा सकता है.
- एक दलीय संघवाद (1952-1967); अभिव्यक्तिवादी संघवाद (1967-1989); बहुदलीय संघवाद (1989-2014) और एकदलीय प्रभुत्व वाले संघवाद की वापसी (2014 से अब तक).
पहला चरण
- पहले चरण में आज़ादी दिलाने वाले राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस को मुकम्मल राजनीतिक प्रभुत्व हासिल था.
- फिर चाहे केंद्र सरकार हो या राज्यों की सत्ता. रजनी कोठारी जैसे राजनीति वैज्ञानिकों ने इसे ‘कांग्रेस व्यवस्था’ का नाम दिया था.
- इस दौर में, वैसे तो राष्ट्रीय राजनीति पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ज़बरदस्त असर था. मगर, उनके साथ साथ कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं और मुख्यमंत्रियों का भी काफ़ी राजनीतिक दबदबा और उन्हें जनता का भी भारी समर्थन हासिल था.
- केंद्र और राज्यों के बीच बड़े संघीय मतभेद, कांग्रेस पार्टी के भीतर ही सुलझा लिए जाते थे.
- इससे संघवाद के आम सहमति वाले ‘अंतर्दलीय मॉडल’ का ढांचा तैयार हुआ. इसके कुछ बड़े अपवाद, नेहरू सरकार द्वारा 1959 में केरल की कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई वाली राज्य सरकार को बर्ख़ास्त करना रहा था, जो केंद्र द्वारा राज्यों पर अपने अधिकार को लागू करने के शुरुआती संकेत थे.
- हालांकि इसी दौरान जनता की इलाक़ाई मांग के दबाव में आकर केंद्र द्वारा भाषाई आधार पर राज्यों का गठन करना और ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों द्वारा, केंद्र के हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के प्रस्ताव के कड़े विरोध को हम सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने की शुरुआती क्षेत्रीय अभिव्यक्ति के रूप में भी देख सकते हैं.
- राज्यों की इस शक्तिशाली अभिव्यक्ति ने राष्ट्र निर्माण के केंद्रीकृत और एकरूपी मॉडल विकसित करने को चुनौती दी.
दूसरा चरण
- 1967 के बाद संघवाद के दूसरे दौर में कांग्रेस तो केंद्र में अभी भी सत्ता में थी लेकिन कई राज्यों में सत्ता उसके हाथ से निकल गई थी.
- इन राज्यों में बहुत से क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस विरोधी पार्टियों की अगुवाई वाली गठबंधन सरकारें बनाई गई थीं.
- इसके अलावा, 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में ख़ुद कांग्रेस एक हाईकमान आधारित तानाशाही पार्टी बन गई थी.
- कांग्रेस के कई क्षेत्रीय नेताओं और संगठनात्मक ढांचे ने अपनी स्वायत्तता गंवा दी थी.
- वैसे तो कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की लोकप्रियता की मदद से राष्ट्रीय चुनाव (1977 के आम चुनावों को छोड़ दें तो) जीते.
- लेकिन, निचले स्तर पर संगठन के कमज़ोर होने के चलते, कांग्रेस का सामाजिक जनाधार बिखरने लगा था.
- इसका नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने अपने विवेकाधीन अधिकार का इस्तेमाल करते हुए राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को बर्ख़ास्त करना शुरू कर दिया.
- यहां तक कि जब कांग्रेस को हराकर, 1977 में केंद्र में जनता पार्टी ने सरकार बनाई, तो उसने भी केंद्र के ऐसे तानाशाही रवैये को बरक़रार रखते हुए राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को अस्थिर करना जारी रखा. जम्मू और कश्मीर, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में मज़बूत क्षेत्रीय नेता उभरे जिन्होंने केंद्र के तानाशाही तरीक़े से अधिकार जताने का विरोध करना शुरू किया.
- इसके चलते, इस दौरान टकराव वाला संघवाद देखा गया. 1970 के आख़िरी दशक और 1980 के शुरुआती दशक में असम, पंजाब, कश्मीर और मिज़ोरम में बड़े पैमाने पर राजनीतिक संकट देखने को मिला.
- इसकी एक बड़ी वजह केंद्र सरकार की अपना शिकंजा कसने वाली नीतियां रही थीं.
- हालांकि, केंद्र में राजीव गांधी की सरकार बनने के बाद, वैसे तो केंद्र ने संघवाद की वही नीति जारी रखी.
- मगर, राजीव सरकार ने असम, पंजाब और मिज़ोरम में पहचान पर आधारित मांगों और राजनीतिक संकटों से निपटने के लिए सुलह समझौते का रास्ता अपनाया और विरोधियों के लिए अपने कुछ राजनीतिक अधिकार छोड़े.
तीसरा चरण
- भारत में संघवाद के तीसरे चरण को दौरान बहु-दलीय संघवाद का दौर कहा जाता है.
- इस दौरान भारत की राजनीति के समीकरण नए सिरे से बने-बिगड़े और फिर इससे राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण हुआ.
- पहले तो राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का दबदबा बहुत हद तक कम हो गया था.
- लेकिन भारतीय जनता पार्टी अभी उसके इकलौते विकल्प के तौर पर नहीं उभरी थी.
- लेकिन, कांग्रेस के कमज़ोर होने के चलते बहुत सी ताक़तवर क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं के लिए जगह बनी.
- इन क्षेत्रीय दलों ने केंद्र में गठबंधन सरकारें बनाने में राष्ट्रीय भूमिका अदा करके राष्ट्रीय राजनीति पर भी असर डाला.
- इस दौर में बहुत से क्षेत्रीय नेताओं को राष्ट्रीय सत्ता में हिस्सेदारी का मौक़ा मिला क्योंकि कोई भी राष्ट्रीय दल संसद में पूर्ण बहुमत हासिल कर पाने में नाकाम रहा था.
- चूंकि क्षेत्रीय दल अब कांग्रेस की अगुवाई वाले (UPA) या BJP की अगुवाई वाले (NDA) के राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा बनकर, राष्ट्रीय राजनीति में भी भूमिका अदा कर रहे थे, तो इस दौरान केंद्र और राज्यों के बीच टकराव कम हो गया.
- यही नहीं, बदलते राजनीतिक समीरणों और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले (SR बोम्मई बनाम भारत सरकार का फ़ैसला, 1994) के चलते, केंद्र सरकार द्वारा संविधान की धारा 356 का बेलगाम इस्तेमाल भी दुर्लभ बात हो गई.
- इसके अलावा, इस दौर में भारत की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण भी किया गया.
- इससे राज्यों की सरकारों को काफ़ी स्वायत्तता हासिल हो गई.
- अब राज्यों के मुख्यमंत्री अपने यहां कारोबार बढ़ाने और विदेशी निवेश लाने के लिए काफ़ी हद तक आज़ाद हो गए.
- इसका नतीजा ये हुआ कि अब राज्यों के मुख्यमंत्री विकास और तरक़्क़ी के नाम पर अपनी अलग राजनीतिक पहचान बना सकते थे.
- 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के पास होने के बाद ज़मीनी स्तर पर स्थानीय स्वशासन को भी मज़बूती मिली. सही मायनों में, भारत में संघवाद के इस तीसरे चरण में केंद्र और राज्यों के बीच विवाद और मोल-भाव से वास्तविक संघवाद के दरवाज़े खुले.
चौथा चरण
- 2014 से शुरू हुए इस मौजूदा दौर में बीजेपी के उभार के साथ ही ‘ताक़तवर दल’ के दबदबे वाले संघवाद की वापसी हुई है.
- गठबंधन सरकारों के तीन दशकों का दौर ख़त्म करते हुए 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने संसद में बहुमत हासिल कर लिया.
- इसके साथ साथ बीजेपी ने कई राज्यों में भी सत्ता हासिल की है. इसके चलते बीजेपी ने आज लगभग ‘कांग्रेस व्यवस्था’ की तर्ज पर अपना दबदबा क़ायम कर लिया है.
- वैसे तो, कांग्रेस के कमज़ोर होने के कारण, केंद्र में बीजेपी बेहद शक्तिशाली राजनीतिक दल है.
- लेकिन राज्यों के चुनाव में अगर बीजेपी को कुछ हद तक चुनौती मिली है, तो ये क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने ही दी है.
- इस चरण के दौरान केंद्र और विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों के बीच कई बड़े संघीय टकराव देखने को मिले हैं, और विपक्ष शासित राज्यों ने केंद्र की सत्ताधारी पार्टी पर दूसरे दलों को तोड़ने और राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करने, विपक्षी दलों को डराने और राज्य सरकारों को अस्थिर करने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करने जैसे कई आरोप लगाए हैं.
- जहां तक प्रशासन की बात है, तो शुरुआत में GST क़ानून पारित करने, नीति आयोग और GST परिषद के गठन करने, फंड में राज्यों की भागीदारी बढ़ाने की वित्त आयोग की सिफ़ारिश को स्वीकार करे जैसे मुद्दों पर केंद्र और राज्यों के बीच आम सहमति देखने को मिली थी.
- लेकिन, ग़ैर बीजेपी शासित राज्य, CAA, कृषि क़ानूनों, BSF के अधिकार क्षेत्र, GST के मुआवज़े और कोविड-19 महामारी के भयंकर दौर में, केंद्र से मदद जैसे मुद्दों पर केंद्र सरकार के साथ टकराते रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 ख़त्म करने और CAA जैसे राष्ट्रवादी मुद्दों पर केंद्र सरकार भी विपक्ष शासित कई राज्यों को अपने साथ ला पाने में कामयाब रही है, जिसे ‘राष्ट्रवादी संघवाद’ का नाम दिया गया है.
- हालांकि कोविड-19 के अभूतपूर्व संकट के बाद के दौर में केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य की आपात स्थिति जैसे मुद्दों पर विकेंद्रीकृत और स्थानीय प्रशासन की अहमियत को स्वीकार किया और राज्यों को इस संकट से निपटने के लिए स्वायत्तता दी, जबकि ख़ुद केंद्र ने समन्वय की भूमिका अपनाई.
- संक्षेप में कहें तो बीजेपी के प्रभुत्ववादी उभार के साथ एक दल के दबदबे वाला दूसरा दौर भले आ गया हो, कई क्षेत्रीय नेताओं की अगुवाई में राज्यों की तरफ़ से केंद्रीकृत संघवाद का लगातार विरोध हो रहा है.
निष्कर्ष
- वैसे तो भारत की संघीय व्यवस्था में केंद्र के प्रति बुनियादी तौर पर पक्षपात है. लेकिन, पहचान, स्वायत्तता और विकास को लेकर विभिन्न क्षेत्रों की विविधता भरी स्थानीय आकांक्षाओं की मांग ने देश की राजनीति को कई मामलों में ताल-मेल बिठाने पर मजबूर किया है.
- सभी चार चरणों के दौरान केंद्र के ज़्यादा अधिकार हासिल करने और एकरूपता लाने की कोशिशों का क्षेत्रीय ताक़तों द्वारा विरोध किया गया है, जिससे मूल संघीय ढांचे की सुरक्षा हो सकी है.
- तीसरे स्तर के स्थानीय स्वशासन के जुड़ जाने से भारत में संघवाद का एक और मज़बूत स्तंभ खड़ा हुआ है. इसके चलते प्रशासन के निचले स्तर तक सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है.
- हालांकि, संघीय सहयोग बढ़ाने की राह में दो बड़े रोड़े हैं.
- पहला, भारत में संघीय रिश्ते राजनीतिक दल के मतभेद की चिंताओं से प्रभावित होते हैं.
- क्योंकि चुनावी मुक़ाबले के साथ साथ केंद्र और राज्यों में विरोधी दल होने से आपस में अविश्वास की भावना रहती है.
- इससे आम सहमति बनाने और राजनीतिक संवाद की राह दुश्वार होती है. दूसरा राजनीतिक मतभेद के रिसते ज़ख़्म और शक-ओ-शुबहा के कारण केंद्र और राज्यों के बीच सरकारी संस्थानों जैसे अंतरराज्यीय परिषद, GST परिषद, नीति आयोग और क्षेत्रीय परिषद जैसे मंच अभी भी प्रशासन के अहम मसलों में केंद्र और राज्यों, और राज्यों के आपसी मतभेद कम करने के लिए पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं किए जा रहे हैं.
- इसके अलावा, जैसा कि हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद माना था कि कोविड-19 महामारी ने एक बार फिर से देश में एक मज़बूत संघीय ढांचे की ज़रूरत को दोहराया है, जिससे भारत जैसे विविधता भरे देश का विकास हो सके और अच्छा प्रशासन दिया जा सके.
संघवाद की राजनीति
भारत में संघवाद की हमेशा से ही राजनीतिक प्रासंगिकता रही है। लेकिन राज्य पुनर्गठन अधिनियम को छोड़कर, संघवाद शायद ही कभी राजनीतिक समझौतों की धूरी रहा हो। विडंबना यह है कि संघवाद को मजबूत करने के बजाय, चुनावी राजनीति ने वास्तविक संघवाद के लिए राजनीतिक सहमति बनाने की दिशा में कभी प्रयत्न नहीं किया। वर्तमान शासन के सशक्त केंद्रीकरण से यह चुनौती और भी बड़ी हो गई है।
- वर्तमान सरकार ने प्रगति में तेजी लाने के नाम पर भारत को ‘एक राष्ट्र, एक बाजार’ , ‘एक राष्ट्र , एक राशन कार्ड’ , जैसे कार्यक्रमों से जोड़कर देश की विविधता के स्वरूप और उसकी जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया है। इस ढांचे में संघवाद के लिए जरूरी विविध राजनीतिक संदर्भों और पहचान के दावों को किनारे कर दिया गया है। यह विकास-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी है।
- संघवाद के प्रति प्रतिबद्धता के दिखावे के बावजूद संघवाद की राजनीति आकस्मिक बनी हुई है। समय के साथ इसे लचीला बना लिया गया है।
- संघवाद के दावेदार भी अब राज्यों को प्रभावित करने वाले एकतरफा निर्णयों का विरोध करते दिखाई नहीं देते।
जम्मू-कश्मीर की केंद्र शासित प्रदेश में डाउनग्रेडिंग और दिल्ली के एन सी टी (संशोधन) अधिनियम, 2021 की अधिसूचना पर उन राजनीतिक दलों ने कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं किया, जिन पर इसका सीधा प्रभाव नहीं पढ़ना था।
- संघवाद को कायम रखने के लिए राजनीतिक परिपक्वता और संघीय सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। हमारी राजनीति में इसकी कमी है।
- राज्यों के बीच आर्थिक और प्रशासनिक विचलन (डायवरजेन्स) बढ़ा हुआ है।
सभी प्रमुख संकेतकों में, दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों ने उत्तरी और पूर्वी भारतीय राज्यों की तुलना में बहुत बेहतर प्रदर्शन किया है। इसके परिणामस्वरूप विकास के साथ अपेक्षित अभिसरण (कनवरजेन्स) के बजाय विचलन अधिक हुआ है। 15वें वित्त आयोग में इस संदर्भ पर बहुत वाद-विवाद भी हुआ है। भारत में गरीब क्षेत्र, अर्थव्यवस्था में कम योगदान देते हुए भी अपनी आर्थिक कमजोरियों के कारण अधिक वित्तीय संसाधनों की मांग रखते हैं।
- राजकोषीय प्रबंधन जिस कमजोर स्थिति में पहुंच गया है, उसे मूक राजकोषीय संकट कहा जा रहा है। इसकी पूर्ति के लिए केंद्र सरकार उपकर लगा रही है, जिससे राज्यों से राजस्व कम कर सके। राज्यों को ऋण के रूप में लंबी देरी के बाद जी एस टी का मुआवजा देने और केंद्रीय योजनाओं में राज्य की हिस्सेदारी बढ़ाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
क्या किया जा सकता है ?
- राष्ट्रवादी भावनाओं और राजकोषीय संघवाद का अगर अच्छी तरह से उपयोग किया जाता है, तो संघवाद के लिए एक उपयुक्त वातावरण बन सकता है।
- समृद्ध राज्यों को गरीब राज्यों के साथ बोझ साझा करने का तरीका खोजना चाहिए।
- अगर मौजूदा तनावों पर बातचीत करनी है, और संघ के साथ सामूहिक लड़ाई जीतनी है, तो राज्यों को राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए समझौते करने होंगे।
- राज्यों को राजकोषीय संघवाद के मामलों पर नियमित वार्ता के लिए एक अंतर-राज्जीय मंच तैयार करना चाहिए।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहना गलत नहीं होगा कि संघवाद की एक नई राजनीति भी चुनावी आवश्यकता है। कोई भी गठबंधन बिना किसी आकर्षण के, लंबे समय तक सफल नहीं हुआ है। संघवाद पर राजनीतिक सहमति बनाना वह आकर्षण हो सकता है, लेकिन इसके लिए क्षेत्रीय दलों को अत्यधिक धैर्य और परिपक्वता दिखानी होगी।
अर्ध -संघवाद या अल्प -संघवाद का अर्थ है
ऐसी व्यवस्था जिसमें संघीय सरकार एवं एकात्मक सरकार दोनों के गुण हों । अर्थात शक्ति का विभाजन तो विभिन्न स्तरों पलर किया गया हो , लेकिन केंद्र सरकार के पास अधिक शक्तियाँ हों । समय समय पर राजनीती विज्ञान के विशेषज्ञों द्वारा भारत की सरकार को ऐसी ही एक सरकार के रूप में वर्णित किया जाता रहा है । इसमें दोनों, संघीय सरकार एवं एकात्मक सरकार के गुण देखे जा सकते हैं ।
भारत में संघीय सरकार के गुण | भारत में एकात्मक सरकार के गुण |
1. द्वैध राजपद्धति | एक सशक्त केंद्र |
2. लिखित संविधान | संविधान का लचीलापन (कुछ मामलों में) |
3. शक्तियों का विभाजन | एकल संविधान |
4. संविधान की सर्वोच्चता | राज्य प्रतिनिधित्व में असमानता |
5. कठोर संविधान | आपातकाल |
6. स्वतंत्र न्यायपालिका | एकल नागरिकता |
7. द्विसदनीय संसदीय व्यवस्था | एकीकृत न्यायपालिका |
8. राज्य का अनश्वर न होना | अखिल भारतीय सेवाएँ और राज्यपाल की नियुक्ति |
संघवाद: भारतीय संघवाद की परिभाषा, विशेषताएं और प्रकार
- संघवाद एक प्रकार की सरकार है जिसमें राजनीतिक शक्ति का संप्रभु अधिकार आमतौर पर दो इकाइयों के बीच विभाजित होता है। इस प्रकार की सरकार को आम बोलचाल में “संघ” या “संघीय राज्य” के रूप में भी जाना जाता है (उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका)। इसका मतलब है कि संप्रभु इकाई (केंद्र) और स्थानीय इकाइयां (राज्य या प्रांत) आपसी और स्वैच्छिक समझौते के आधार पर एक संघ बनाते हैं।
- हालाँकि, भारतीय संघ राज्यों के बीच एक समझौते का परिणाम नहीं है।
- किसी भी राज्य को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है।
- भारत का संविधान देश को एक संघ के रूप में संदर्भित नहीं करता है। दूसरी ओर, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 (1) भारत को “राज्यों का संघ” कहता है। इसका मतलब यह है कि भारत विभिन्न राज्यों से बना एक संघ है जो सभी इसका हिस्सा हैं।
- भारत एकात्मक पूर्वाग्रह वाला एक संघ है और अपने मजबूत केंद्रीय तंत्र के कारण अर्ध-संघीय राज्य के रूप में जाना जाता है। सरकार की एक अर्ध-संघीय प्रणाली में, केंद्र के पास राज्यों की तुलना में अधिक शक्ति होती है।
संघों के प्रकार
- संघीय प्रणाली (federal system in hindi) आम तौर पर सांस्कृतिक रूप से विविध या भौगोलिक रूप से बड़े देशों से जुड़ी होती है।
- ऐसे राष्ट्रों में जहां पहचान, जातीयता, धर्म या भाषा में मतभेद क्षेत्रीय रूप से केंद्रित हैं, संघवाद शांति, स्थिरता और आपसी समायोजन सुनिश्चित करने का एक साधन है।
- संघीय देशों के उल्लेखनीय उदाहरण (या संघीय जैसी विशेषताओं वाले देश, जिन्हें कभी-कभी “अर्ध-संघ या अर्ध-संघ” कहा जाता है) में संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील, कनाडा, जर्मनी, भारत, अर्जेंटीना, बेल्जियम, स्पेन, मलेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। संघों को दो तरह से वर्गीकृत किया जाता है:
- संघवाद को साथ लेकर चलना
- साथ आकर संघ बनाना
संघवाद को साथ लेकर चलना
होल्डिंग-टूगेदर फेडरेशन में, एक संप्रभु इकाई यह तय करती है कि घटक राज्यों/प्रांतों और राष्ट्रीय सरकार के बीच शक्ति कैसे वितरित की जाती है।
- इस प्रकार के संघ में केन्द्र सरकार राज्यों से अधिक शक्तिशाली होती है।
- उदाहरण: भारत, स्पेन, बेल्जियम।
साथ आकर संघ बनाना
एक साथ आने वाले संघ में, सभी स्वतंत्र राज्य एक साथ आते हैं और संघ की एक बड़ी इकाई बनाते हैं।
- इस संघ में, सभी राजनीतिक शक्तियों को समान रूप से वितरित किया जाता है और केंद्र से कोई हस्तक्षेप नहीं होता है।
- उदाहरण: यूएसए, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड।
भारतीय संघीय प्रणाली की विशेषताएं
भारत एक पूर्ण संघ नहीं है। यह एक संघीय सरकार की एकात्मक सरकार की विशेषताओं को जोड़ती है और इसे अर्ध-संघीय या संघ-प्रकार की संघीय राजनीति के रूप में भी जाना जाता है। संघ-प्रकार की संघीय राजनीति को दो अंतर्निहित प्रवृत्तियों, अर्थात् संघीकरण और क्षेत्रीयकरण के आवश्यक संतुलन की आवश्यकता होती है।
- संघीकरण के सिद्धांतों के साथ, भारतीय संविधान क्षेत्रीयता और क्षेत्रीयकरण को राष्ट्र निर्माण और राज्य गठन के मान्य सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है।
- संघीकरण प्रक्रिया संघवाद को भारत की राष्ट्रीय एकता, अखंडता और क्षेत्रीय संप्रभुता के रखरखाव के लिए एक कथित खतरा (आंतरिक या बाहरी) होने पर यूनिटेरियन विशेषताओं (आमतौर पर केंद्रीकृत संघवाद के रूप में संदर्भित) को अपनाने में सक्षम बनाती है। हालाँकि, यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा के अधीन है।
- भारतीय संविधानराजनीतिक शक्ति वितरण के कई तरीकों के साथ एक बहुस्तरीय या बहुस्तरीय संघ की स्थापना को मान्यता देता है और बढ़ावा देता है।
- एक बहुस्तरीय संघ में एक संघ, राज्य, क्षेत्रीय विकास/स्वायत्त परिषद, और स्थानीय स्वशासन की निम्न-स्तरीय इकाइयाँ (पंचायत और नगर पालिकाओं के रूप में जानी जाती हैं) जैसी संस्थागत व्यवस्थाएँ शामिल हो सकती हैं।
- प्रत्येक इकाई अपने संवैधानिक रूप से अनिवार्य संघीय कर्तव्यों को दूसरों से लगभग स्वतंत्र रूप से पूरा करती है।
- उदाहरण के लिए, केंद्र और राज्यों के शक्ति क्षेत्राधिकार को सातवीं अनुसूची में निर्दिष्ट किया गया है, जबकि आदिवासी क्षेत्रों, स्वायत्त जिला परिषदों, पंचायतों और नगर पालिकाओं को क्रमशः भारतीय संविधान की पाँचवीं, छठी, ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूची में निर्दिष्ट किया गया है। .
- केंद्र का राज्यों पर राजकोषीय और राजनीतिक नियंत्रण होता है।
- वास्तव में, भारत का संविधान क्षमता के सममित और विषम वितरण दोनों को प्रोत्साहित करता है।
- भारत में संघवाद विविध व्यवस्था सर्वप्रथम शक्ति वितरण के सामान्य सिद्धांत को स्थापित करती है, जो संघ के सभी राज्यों पर सममित रूप से लागू होता है।
- विषम राज्यों के एक विशिष्ट वर्ग के लिए स्थापित विशेष नियमों को संदर्भित करता है। हमारे संविधान में कई प्रावधान हैं जैसे कि अनुच्छेद 370, 371, 371ए-एच, और 5वीं और 6वीं अनुसूचियां एक अनोखे प्रकार के संघ-राज्य संबंध की अनुमति देती हैं।
- इसके अलावा, 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम भारत की शक्तियों और प्राधिकार को ग्रामीण और नगरपालिका स्तरों पर संघबद्ध करते हैं। पंचायती राज संस्थान (पीआरआई) मुख्य रूप से विकास से संबंधित हैं। पंचायतों और नगर निकायों, जो सीधे चुने जाते हैं, से उम्मीद की जाती है
- ग्रामीण उद्योग के विकास को बढ़ावा देना।
- सड़क और परिवहन जैसी विकास परियोजनाओं के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करना।
- सामुदायिक संपत्तियों का निर्माण और रखरखाव करना।
- स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य और शिक्षा का प्रबंधन और नियंत्रण करना।
- सामाजिक वानिकी और पशुपालन, डेयरी, मुर्गी पालन आदि को बढ़ावा देना।
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएं
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएं (Federal Features of Indian Constitution Hindi me) इस प्रकार हैं:
- दोहरी सरकार राजनीति
- विभिन्न स्तरों के बीच शक्तियों का विभाजन
- एक लिखित संविधान
- संविधान की सर्वोच्चता
- संविधान की कठोरता
- स्वतंत्र और एकीकृत न्यायपालिका
- द्विसदन
दोहरी सरकार की राजनीति
भारतीय संविधान केंद्र में संघ और परिधि पर राज्यों के साथ एक दोहरी राजनीति स्थापित करता है।
- सरकार की प्रत्येक इकाई संविधान द्वारा क्रमशः उन्हें सौंपे गए क्षेत्र में प्रयोग की जाने वाली संप्रभु शक्तियों से संपन्न है।
विभिन्न स्तरों के बीच शक्तियों का विभाजन
सरकार के दो स्तरों के बीच शक्तियों का विभाजन संघवाद की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। भारत में, राजनीतिक शक्ति वितरण का आधार यह है कि राष्ट्रीय महत्व के मामलों में अधिकार केंद्र को सौंपे जाते हैं, जहाँ सभी इकाइयों के हितों में एक समान नीति वांछनीय है, और स्थानीय सरोकार के मामले राज्यों के पास रहते हैं।
- हालांकि, एक संघ में, शक्तियों का एक स्पष्ट विभाजन होना चाहिए ताकि इकाइयों और केंद्र को अपनी गतिविधि के क्षेत्र में कानून बनाने और कानून बनाने की आवश्यकता हो और कोई भी इसकी सीमाओं का उल्लंघन न करे और दूसरों के कार्यों पर अतिक्रमण करने की कोशिश न करे।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 से 254 केंद्र और राज्य सरकारों की संबंधित विधायी शक्ति को निर्दिष्ट करते हैं।
- संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ हैं जो केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण करती हैं (अनुच्छेद 246)।
- संघ सूची: इसमें 98 विषय हैं, और संसद के पास उन पर एकमात्र विधायी अधिकार है।
- राज्य सूची: इसमें 59 विषय हैं, और अकेले राज्य कानून बना सकते हैं।
- समवर्ती सूची: इसमें 52 विषय हैं, और केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं।
- हालाँकि, समवर्ती सूची पर विवाद की स्थिति में, संसद द्वारा बनाया गया कानून प्रभावी होगा (अनुच्छेद 254)।
एक लिखित संविधान
एक संघीय राज्य में, संविधान को लगभग लिखा जाना चाहिए। यदि संविधान की शर्तों को स्पष्ट रूप से लिखित रूप में परिभाषित नहीं किया गया है, तो संविधान की सर्वोच्चता और केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन को बनाए रखना लगभग असंभव होगा।
- भारतीय संविधान, जो 448 लेखों और 12 अनुसूचियों वाला एक लिखित दस्तावेज है, इस प्रकार एक संघीय सरकार के लिए इस मूलभूत आवश्यकता को पूरा करता है।
- वास्तव में, भारतीय संविधान दुनिया में सबसे विस्तृत और विस्तृत दस्तावेज है।
संविधान की सर्वोच्चता
एक संघीय राज्य में, केंद्र के लिए संविधान शक्ति का सर्वोच्च स्रोत होना चाहिए
- साथ ही संघीय इकाइयां। इसलिए, भारतीय संविधान भी सर्वोच्च है न कि सर्वोच्च
- केंद्र या राज्यों की दासी। यदि राज्य का कोई अंग किसी भी कारण से संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है, तो संविधान की गरिमा को हर कीमत पर बनाए रखने के लिए भारत में कानून की एक अदालत है।
संविधान की कठोरता
कठोरता एक लिखित संविधान का एक स्वाभाविक परिणाम है। कठोर संविधान में संशोधन की प्रक्रिया जटिल होती है।
- हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि संविधान कानूनी रूप से अपरिवर्तनीय होना चाहिए।
- जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एक कठोर संविधान वह है जिसे आसानी से बदला नहीं जा सकता है। यद्यपि भारतीय संविधान संविधान का एक लचीला और कठोर दोनों रूप है, भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों को साधारण बहुमत से संशोधित किया जा सकता है जबकि अन्य को संशोधन के लिए एक विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है (अनुच्छेद 368)।
- उदाहरण के लिए:
- संघवाद को प्रभावित न करने वाले संवैधानिक संशोधन विधेयकों को पारित करना।
- सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के लिए।
- राष्ट्रीय आपातकाल आदि का अनुमोदन करना।
स्वतंत्र और एकीकृत न्यायपालिका
एक संघीय राज्य के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष हो।स्वतंत्र न्यायपालिका का अर्थ है कि न्यायपालिका राज्य के विधायी और कार्यकारी निकायों के हस्तक्षेप से मुक्त है।
- जबकि एकीकृत न्यायपालिका का अर्थ है उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय निचली अदालतों पर बाध्यकारी होते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय– देश में एकीकृत न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर। इसके नीचे,
- उच्च न्यायालय – राज्य स्तर पर, उनके पास सभी अधीनस्थ न्यायालयों (जिला न्यायालयों और अन्य निचली अदालतों) पर अधिकार क्षेत्र है।
इसके अलावा, अदालतों की यह एकल प्रणाली केंद्रीय कानूनों के साथ-साथ राज्य के कानूनों को भी लागू करती है, संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत, जहां संघीय कानूनों को संघीय अदालत द्वारा लागू किया जाता है और राज्य के कानूनों को राज्य न्यायपालिका द्वारा लागू किया जाता है।
द्विसदन
- एक संघ में एक द्विसदनीय प्रणाली को आवश्यक माना जाता है, और भारतीय संविधान केंद्र में एक द्विसदनीय विधायिका प्रदान करता है जिसमें लोकसभा और राज्यसभा शामिल हैं।
- जबकि लोकसभा (निचला सदन) में लोगों के सीधे निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं, राज्य सभा (उच्च सदन) में मुख्य रूप से राज्य विधानसभाओं द्वारा चुने गए प्रतिनिधि होते हैं।
भारतीय संघ की एकात्मक विशेषताएं
भारतीय संविधान की एकात्मक विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- मजबूत केंद्र
- एकल नागरिकता
- राज्य अविनाशी नहीं हैं
- आपातकालीन प्रावधान
- अखिल भारतीय नागरिक सेवाएं
- केंद्र द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति
- राज्य के विधेयकों पर वीटो
मजबूत केंद्र
भारत में, केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन निम्नलिखित तरीकों से केंद्र के पक्ष में है:
- संघ सूची में राज्य सूची से अधिक विषय शामिल हैं।
- संघ सूची में अधिक महत्वपूर्ण विषय शामिल हैं, जैसे रक्षा, बैंकिंग, रेलवे, संचार, मुद्रा, बाहरी मामले, राजमार्ग आदि।
- इसके अलावा, समवर्ती सूची पर केंद्र का एकमात्र अधिकार क्षेत्र है।
- अंत में, अवशिष्ट शक्तियाँ, जिनका किसी भी सूची में उल्लेख नहीं किया गया है, संघ की हैं।
एकल नागरिकता
हालांकि भारतीय संविधान में कुछ संघीय विशेषताएं हैं और दोहरी राजनीति की परिकल्पना की गई है, हालांकि, यह केवल एक ही नागरिकता प्रदान करता है, जो कि भारतीय नागरिकता है।
- भारत में, सभी नागरिक, निवास की स्थिति की परवाह किए बिना, पूरे देश में नागरिकता के समान राजनीतिक और नागरिक अधिकारों का आनंद लेते हैं, और उनके बीच कोई भेदभाव नहीं होता है।
राज्य अविनाशी नहीं |
- भारत के राज्यों को क्षेत्रीय अखंडता का कोई अधिकार नहीं है। इसका मतलब है कि राज्य अपने क्षेत्रों पर संप्रभुता का आनंद नहीं लेते हैं और संघ से अलग नहीं होते हैं।
- हालाँकि, संसद एकतरफा रूप से किसी भी राज्य के क्षेत्र, सीमाओं या नाम को बदल सकती है।
आपातकालीन प्रावधान
- आपातकाल की स्थिति के दौरान, केंद्र सरकार सर्व-शक्तिशाली हो जाती है, और राज्य पूरी तरह से केंद्र के नियंत्रण में होते हैं।
- यह संविधान में औपचारिक संशोधन की आवश्यकता के बिना संघीय ढांचे को एकात्मक संरचना में बदल देता है।
अखिल भारतीय सिविल सेवा
पूरे भारत में प्रशासनिक सेवाओं की एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए संविधान में विशिष्ट प्रावधान शामिल हैं। ये सेवाएं IAS, IPS और IFos हैं।
केंद्र द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति
राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है, जिससे केंद्र सरकार को राज्य प्रशासन पर नियंत्रण रखने की अनुमति मिलती है।
राज्य विधेयकों पर वीटो
- राज्यपाल के पास राष्ट्रपति के विचार के लिए राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कुछ प्रकार के विधेयकों को आरक्षित करने का अधिकार है (अनुच्छेद 200)।
- उसके बाद, विधेयक के अधिनियमन में राज्यपाल की कोई और भागीदारी नहीं होगी।
- राष्ट्रपति न केवल पहली बार बल्कि दूसरी बार में भी ऐसे विधेयकों पर अपनी सहमति रोक सकता है।
संघवाद से संबंधित मुद्दे
भारतीय संघीय प्रणाली को “सहकारी संघवाद” के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन यह वास्तव में एक मजबूत केंद्र सरकार और महत्वपूर्ण एकात्मक सुविधाओं वाला एक संघ था। भारतीय संघीय प्रणाली इस तरह से संरचित है कि कुछ क्षेत्रों में राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करते हुए केंद्र सरकार सर्वोच्चता बनाए रखती है। भारत के संघवाद के संबंध में कुछ उल्लेखनीय मुद्दे इस प्रकार हैं:
- राजकोषीय संघवाद का अभाव।
- राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व
- केंद्रीकृत संशोधन शक्तियां।
- विनाशकारी इकाइयों के साथ अविनाशी संघ।
- राज्य प्रशासन पर केंद्रीय नियंत्रण।
- राज्य के राज्यपाल के कार्यालय पर केंद्रीय नियंत्रण।
- एकल संविधान और नागरिकता।
- आईएएस, आईपीएस, आईएफओएस और आईईएस जैसी एकीकृत सेवाएं।
- आपातकालीन प्रावधान।
- राष्ट्रपति के विचारार्थ राज्य विधेयकों का आरक्षण।
- राष्ट्रपति शासन पर संघर्ष: केंद्र द्वारा अनुच्छेद 356 के तहत शक्ति का प्रयोग।
- नीति आयोग जैसे केंद्रीकृत नियोजन निकाय।
- राज्यों की आर्थिक असंगति।
- वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसी केंद्रीकृत कर व्यवस्था।
- भाषा संघर्ष, आदि।
आगे की राह
भारत को अपने संघीय और एकात्मक पहलुओं के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। समान संसाधन वितरण और सभी राज्यों के उत्थान को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार को उचित नीतियां और योजनाएं बनानी चाहिए।
- दीर्घकालिक समाधान वास्तविक राजकोषीय संघवाद को बढ़ावा देना है, जिसमें राज्य मुख्य रूप से अपना राजस्व स्वयं उत्पन्न करते हैं।
- केंद्र सरकार को राज्यों को अधिक राजस्व आवंटित करना चाहिए।
- विभाजनकारी नीतिगत मुद्दों पर केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक सद्भावना को प्रोत्साहित करने के लिए अंतरराज्यीय परिषद के संस्थागत तंत्र का उचित उपयोग सुनिश्चित करना आवश्यक है।
- इसके अलावा, सरकार को अंतर-राज्य परिषद को एक स्थायी निकाय बनाने के बारे में सोचना चाहिए।
- भारत को एक सहकारी संघीय राज्य बनने की ओर ले जाने के लिए, केंद्र सरकार को राज्यों के साथ अपने भरोसे और भरोसे के रिश्ते को प्राथमिकता देनी चाहिए।
निष्कर्ष
भारत में संघवाद को लोगों के सशक्तिकरण के साधन के रूप में देखा जाता है और राष्ट्र निर्माण के साधन के रूप में यह एक संघीय संघ की स्थापना करने में सफल रहा है। समय के साथ, भारतीय संघवाद ने संघीय राज्य गठन के विभिन्न दबावों को संरचनात्मक और राजनीतिक रूप से अनुकूल बनाने और सुविधा प्रदान करने के लिए पर्याप्त लचीलेपन का प्रदर्शन किया है। इसके अलावा, सरकारिया आयोग की रिपोर्ट को भारत में संघीय प्रणाली के सफल संचालन के लिए लचीलापन प्रदान करने के प्रयास के रूप में माना जाता है।
भारत में संघवाद का भविष्य
- केंद्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति के पुनरुत्थान ने क्षेत्रीय दलों को प्रमुख ‘पावर ब्रोकर’ के रूप में स्थापित किया है जहाँ अब केंद्रीकृत नीति निर्णयन की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी।
- हाल के वर्षों में सरकार ने नीति (National Institution for Transforming India- NITI) आयोग जैसी संस्थाओं के माध्यम से सहकारी एवं प्रतिस्पर्द्धी संघवाद पर अधिक बल दिया है। हालाँकि कई राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार द्वारा कथित तौर पर वस्तु एवं सेवा कर (GST) क्षतिपूर्ति निधि को रोके रखने के बारे में चिंता जताई है, जिससे टकरावपूर्ण संघवाद के उदाहरण सामने आए हैं।
- इसके अलावा, शासन की सुव्यवस्था एवं राष्ट्रीय एकता के संवर्द्धन के लिये ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के सत्तारूढ़ दृष्टिकोण और ‘एक राष्ट्र, एक ध्वज और एक संविधान’ के विचार पर विभिन्न राज्यों की ओर से अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ आई हैं, जो भारत में संघवाद की जटिलताओं को दर्शाती हैं।
- इस प्रकार, गठबंधन ढाँचे के अंतर्गत शासन से केंद्र-राज्य संबंधों में विश्वास को पुनःस्थापित करने तथा संतुलन बहाल करने का अवसर प्राप्त हो सकता है।
संघवाद (Federalism):
- परिचय:
- संघवाद में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों और उत्तरदायित्वों का वितरण शामिल है। इसका उद्देश्य क्षेत्रीय स्वशासन की अनुमति देते हुए एकता बनाए रखना है।
- संघवाद एक बड़ी राजनीतिक इकाई के भीतर विविधता और क्षेत्रीय स्वायत्तता को समायोजित करने का अवसर देता है।
- संघवाद की विशेषताएँ:
- शक्तियों का विभाजन: शक्तियों का विभाजन केंद्र सरकार (संघ) और राज्य सरकारों के बीच किया जाता है।
- लिखित संविधान: लिखित संविधान सरकार के विभिन्न स्तरों की शक्तियों का निर्धारण करता है।
- संविधान की सर्वोच्चता: संविधान सर्वोच्च है और यह संघ एवं राज्यों के बीच संबंधों को नियंत्रित करता है।
- स्वतंत्र न्यायपालिका: एक स्वतंत्र न्यायपालिका सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच विवादों को सुलझाने के लिये संविधान की व्याख्या करती है और उसे प्रवर्तित करती है।
- दोहरी सरकार: केंद्र और राज्य सरकार दोनों के अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र एवं अधिकार क्षेत्र होते हैं।
- कठोर संविधान: संविधान में संशोधन करना आसान नहीं होता है और इसमें परिवर्तन के लिये स्पष्ट प्रक्रियाएँ प्रदान की गई हैं।
- संघवाद के प्रकार:
- ‘होल्डिंग टूगेदर फ़ेडरेशन’ (Holding Together Federation): इस प्रकार के संघ में संपूर्ण इकाई में विविधता को समायोजित करने के लिये विभिन्न घटक भागों के बीच शक्तियों को साझा किया जाता है। यहाँ शक्तियाँ आम तौर पर केंद्रीय सत्ता की ओर झुकी होती हैं।
- उदाहरण: भारत, स्पेन, बेल्जियम।
- ‘कमिंग टूगेदर फ़ेडरेशन’ (Coming Together Federation): इस प्रकार के संघ में स्वतंत्र राज्य एक बड़ी इकाई बनाने के लिये एक साथ आते हैं। यहाँ राज्यों को ‘होल्डिंग टूगेदर फ़ेडरेशन’ के रूप में गठित संघ की तुलना में अधिक स्वायत्तता प्राप्त होती है।
- उदाहरण: संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैंड।
- असममित संघ (Asymmetrical Federation): इस प्रकार के संघ में कुछ घटक इकाइयों के पास ऐतिहासिक या सांस्कृतिक कारणों से अन्य की तुलना में अधिक शक्तियाँ या विशेष स्थिति होती है।
- उदाहरण: कनाडा, रूस, इथियोपिया।
- ‘होल्डिंग टूगेदर फ़ेडरेशन’ (Holding Together Federation): इस प्रकार के संघ में संपूर्ण इकाई में विविधता को समायोजित करने के लिये विभिन्न घटक भागों के बीच शक्तियों को साझा किया जाता है। यहाँ शक्तियाँ आम तौर पर केंद्रीय सत्ता की ओर झुकी होती हैं।
- भारतीय संघवाद की प्रकृति:
- भारतीय संविधान एक प्रबल संघ (strong Union) के साथ संघीय प्रणाली की स्थापना करता है।
- इस कारण, भारतीय संघवाद को कभी-कभी अलग-अलग शब्दों से संदर्भित किया जाता है:
- के.सी. व्हीयर (KC Wheare) ने इसे ‘अर्द्ध-संघीय’ (Quasi-federal) कहा।
- ग्रैनविल ऑस्टिन (Granville Austin) ने इसे ‘सहकारी संघवाद’ (Cooperative federalism) कहा, जहाँ राष्ट्रीय अखंडता एवं एकता की आवश्यकता रहती है।
- मॉरिस जोन्स (Morris Jones) ने इसे सौदेबाज़ी शक्ति युक्त संघवाद’ (Bargaining Federalism) के रूप में परिभाषित किया।
- आइवर जेनिंग (Ivor Jenning) ने इसे ‘केंद्रीकरण की प्रवृत्ति युक्त संघवाद’ (Federalism with Centralizing tendency) कहा।
- इस कारण, भारतीय संघवाद को कभी-कभी अलग-अलग शब्दों से संदर्भित किया जाता है:
- संविधान में केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच विधायी, प्रशासनिक एवं कार्यकारी शक्तियों का वितरण निर्दिष्ट किया गया है।
- भारतीय संविधान एक प्रबल संघ (strong Union) के साथ संघीय प्रणाली की स्थापना करता है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- सातवीं अनुसूची: यह संघ और राज्यों के बीच शक्तियों को तीन सूचियों—संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के माध्यम से विभाजित करती है।
- अनुच्छेद 1: भारत को राज्यों के संघ (Union of States) के रूप में परिभाषित करता है।
- अनुच्छेद 245: संसद और राज्य विधानमंडल को अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में विधि-निर्माण की शक्ति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 246: उन विषयों को सूचीबद्ध करता है जिन पर संसद और राज्य विधानमंडल कानून बना सकते हैं।
- अनुच्छेद 263: सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने के लिये एक अंतर-राज्य परिषद (Inter-State Council) की स्थापना का प्रावधान करता है।
- अनुच्छेद 279-A: राष्ट्रपति को जीएसटी परिषद (GST Council) गठित करने का अधिकार देता है।
भारत में संघवाद की अवधारणा किस प्रकार विकसित हुई?
- आंतरिक-दल संघवाद (Inner-Party Federalism) (1950-67):
- संघवाद के प्रथम चरण के दौरान संघीय सरकार और राज्यों के बीच प्रमुख विवादों का समाधान कांग्रेस पार्टी के मंचों पर किया जाता था, जिसे राजनीतिक-वैज्ञानिक रजनी कोठारी ने ‘कांग्रेस प्रणाली’ (Congress System) कहा है।
- इससे प्रमुख संघीय संघर्षों को रोकने या नियंत्रित करने और सर्वसम्मति-आधारित ‘आंतरिक-दल संघवाद’ का निर्माण करने में मदद मिली।
- अभिव्यंजक संघवाद (Expressive Federalism) (1967-89):
- वर्ष 1967 के बाद से दूसरे चरण में, कांग्रेस पार्टी अभी भी केंद्र में सत्ता में थी, लेकिन कई राज्यों में उसे सत्ता खोनी पड़ी, जहाँ विभिन्न क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व वाली और कांग्रेस विरोधी गठबंधन सरकारें बनीं।
- इस चरण ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और विपक्षी दलों के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के बीच ‘अभिव्यंजक’ (expressive) और अधिक प्रत्यक्ष संघर्षपूर्ण संघीय गतिशीलता के युग को चिह्नित किया।
- बहुदलीय संघवाद (Multi-Party Federalism) (1990-2014):
- 1990 के दशक में गठबंधन का दौर देखा गया, जिसे ‘बहुदलीय संघवाद’ के रूप में भी देखा जाता है, जब राष्ट्रीय दल संसद में बहुमत प्राप्त करने में सक्षम नहीं थे। राष्ट्रीय गठबंधनों ने क्षेत्रीय शक्तियों की मदद से संघ में अपना प्रभाव बनाए रखा।
- इस अवधि में केंद्र-राज्य टकराव की तीव्रता में कमी देखी गई, साथ ही राज्य शासन के विघटन के लिये केंद्र द्वारा अनुच्छेद 356 के मनमाने उपयोग में भी कमी आई।
- इसमें वर्ष 1994 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में दिये गए निर्णय की भी आंशिक भूमिका रही जहाँ केंद्र द्वारा इस प्रावधान के मनमाने उपयोग पर सवाल उठाया गया था।
- टकरावपूर्ण संघवाद (Confrontational Federalism) (2014- 2024):
- वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में एकल दल बहुमत के साथ एक बार फिर ‘प्रभुत्वशाली दल’ के प्रभाव वाले संघवाद का उभार हुआ। इस अवधि में सत्तारूढ़ दल ने कई राज्यों में भी सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली।
- इस अवधि में टकरावपूर्ण संघवाद का उदय हुआ, जहाँ विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों और केंद्र के बीच महत्त्वपूर्ण विवाद हुए।
भारत में संघवाद को सुदृढ़ करने की आवश्यकता:
- विविध जनसांख्यिकी और संस्कृतियाँ:
- भाषाई विविधता: भारत में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। संघवाद को सुदृढ़ करने से यह सुनिश्चित होगा कि विभिन्न क्षेत्रों की भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित एवं सम्मानित किया जाएगा।
- सांस्कृतिक बहुलता: क्षेत्रीय स्वायत्तता अनूठे सांस्कृतिक अभ्यासों, त्योहारों और परंपराओं के पालन एवं संरक्षण की अनुमति देती है, जिससे विविधता के भीतर गर्व एवं एकता की भावना को बढ़ावा मिलता है।
- केंद्रीय अतिक्रमण से बचना:
- राज्य के अधिकारों की सुरक्षा: केंद्र या अन्य बाह्य शक्तियों की ओर से बढ़ते केंद्रीकरण एवं हस्तक्षेप के मद्देनजर राज्यों और अन्य उप-राष्ट्रीय इकाइयों की स्वायत्तता और अधिकारों की सुरक्षा एवं संवृद्धि के लिये संघवाद आवश्यक है।
- क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समायोजित करना: एक सुदृढ़ संघीय प्रणाली विभिन्न क्षेत्रों की राजनीतिक आकांक्षाओं को संबोधित और समायोजित कर सकती है, जिससे अलगाववादी आंदोलनों की संभावना कम हो सकती है तथा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिल सकता है।
- स्थानीय निकायों को सशक्त बनाना:
- पंचायती राज संस्थाएँ: संघवाद को सुदृढ़ करने में पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाना शामिल है, जो ज़मीनी स्तर के लोकतंत्र और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- महिलाओं की भागीदारी: संवर्द्धित संघवाद स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिये सीटों के आरक्षण, लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त बनाने जैसी पहलों का समर्थन करता है।
- राजकोषीय संघवाद (Fiscal Federalism):
- उचित राजस्व वितरण: राजकोषीय संघवाद को सुदृढ़ करने से केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों का अधिक समतामूलक वितरण सुनिश्चित होता है, जिससे राज्य-विशिष्ट परियोजनाओं और पहलों के लिये बेहतर वित्तपोषण संभव हो पाता है।
- व्यय के मामले में राज्य की स्वायत्तता: राज्यों को अपने वित्त पर अधिक नियंत्रण देने से धन का अधिक प्रभावी एवं प्रासंगिक रूप से उचित उपयोग हो सकता है।
भारत में संघवाद के लिये प्रमुख चुनौतियाँ:
- केंद्रीकरण और क्षेत्रवाद में संतुलन रखना:
- भारत राष्ट्रीय एकता के लिये केंद्रीय प्राधिकार और क्षेत्रीय आवश्यकताओं के लिये राज्य स्वायत्तता के बीच की जटिल स्थिति का सामना करता है। मज़बूत केंद्रीय सरकारों को अतिक्रमण के रूप में देखा जा सकता है, जबकि मज़बूत क्षेत्रीय आंदोलन राष्ट्रीय एकता को खतरे में डाल सकते हैं।
- दक्षिण भारतीय राज्यों में विशिष्ट द्रविड़ भाषाएँ और संस्कृतियाँ हैं जो उनकी पहचान का केंद्र हैं। हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में थोपे जाने के प्रयास पर तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों की ओर से कड़ा विरोध सामने आया।
- जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को केंद्र सरकार ने राज्य विधानमंडल से परामर्श किए बिना ही हटा दिया। संघीय सिद्धांतों को कमज़ोर करने के प्रयास के रूप में इस कदम की आलोचना की गई।
- भारत राष्ट्रीय एकता के लिये केंद्रीय प्राधिकार और क्षेत्रीय आवश्यकताओं के लिये राज्य स्वायत्तता के बीच की जटिल स्थिति का सामना करता है। मज़बूत केंद्रीय सरकारों को अतिक्रमण के रूप में देखा जा सकता है, जबकि मज़बूत क्षेत्रीय आंदोलन राष्ट्रीय एकता को खतरे में डाल सकते हैं।
- क्षेत्रीय असंतोष:
- क्षेत्रवाद (Regionalism) भाषा और संस्कृति के आधार पर स्वायत्तता की मांग के माध्यम से स्वयं को स्थापित करता है। इस परिदृश्य में राष्ट्र को उग्रवाद के रूप में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती का सामना करना पड़ता है और इससे भारतीय संघ की मूल धारणा में व्यवधान उत्पन्न होता है।
- असम की एक प्रमुख जनजाति बोडो द्वारा लंबे समय से पृथक बोडोलैंड राज्य की मांग की जा रही है।
- पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग पहाड़ियों में संकेंद्रित गोरखा जातीय समूह द्वारा लंबे समय से एक अलग गोरखालैंड राज्य की मांग की जा रही है।
- क्षेत्रवाद (Regionalism) भाषा और संस्कृति के आधार पर स्वायत्तता की मांग के माध्यम से स्वयं को स्थापित करता है। इस परिदृश्य में राष्ट्र को उग्रवाद के रूप में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती का सामना करना पड़ता है और इससे भारतीय संघ की मूल धारणा में व्यवधान उत्पन्न होता है।
- शक्तियों के विभाजन में विवाद:
- संविधान केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन करता है (संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के माध्यम से)। कई बार यह विभाजन अस्पष्ट सिद्ध हो सकता है, जिससे अधिकार क्षेत्र को लेकर (विशेष रूप से कृषि या शिक्षा को समवर्ती सूची में रखने) टकराव उत्पन्न हो सकता है।
- केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2020 में पारित तीन कृषि कानूनों को पंजाब जैसे राज्यों ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि कृषि राज्य सूची का विषय है। यह शक्ति विभाजन की व्याख्या को लेकर जारी विवादों को उजागर करता है।
- संविधान केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन करता है (संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के माध्यम से)। कई बार यह विभाजन अस्पष्ट सिद्ध हो सकता है, जिससे अधिकार क्षेत्र को लेकर (विशेष रूप से कृषि या शिक्षा को समवर्ती सूची में रखने) टकराव उत्पन्न हो सकता है।
- राज्यपाल के पद का दुरुपयोग:
- राज्यपाल के पद का दुरुपयोग—विशेष रूप से राज्य सरकारों को मनमाने ढंग से बर्खास्त करने, सरकार गठन में हेराफेरी, विधेयकों पर मंज़ूरी न देने और प्रायः केंद्रीय सत्तारूढ़ दल के निर्देश पर होने वाले स्थानांतरण एवं नियुक्तियों से संबंधित मामलों में—चिंता का विषय बनता जा रहा है।
- अरुणाचल प्रदेश (2016) में सत्तारूढ़ सरकार के पास बहुमत का समर्थन होने के बावजूद राज्यपाल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया, जिसे बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया।
- राज्यपाल के पद का दुरुपयोग—विशेष रूप से राज्य सरकारों को मनमाने ढंग से बर्खास्त करने, सरकार गठन में हेराफेरी, विधेयकों पर मंज़ूरी न देने और प्रायः केंद्रीय सत्तारूढ़ दल के निर्देश पर होने वाले स्थानांतरण एवं नियुक्तियों से संबंधित मामलों में—चिंता का विषय बनता जा रहा है।
- अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग :
- अनुच्छेद 356, जिसे ‘राष्ट्रपति शासन’ के रूप में भी जाना जाता है, तब लागू किया जाता है जब कोई राज्य संवैधानिक रूप से कार्य नहीं कर सकता। यह केंद्रीय मंत्रिमंडल को लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त करने और विधानसभाओं को भंग करने की शक्ति प्रदान करता है।
- वर्ष 2000 तक 100 से अधिक बार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिये अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग किया गया था, जिससे राज्य की स्वायत्तता बाधित हुई। हालाँकि इसका उपयोग कम हुआ है, लेकिन इसका संभावित दुरुपयोग चिंता का विषय बना हुआ है।
- वर्ष 1988 मेंसरकारिया आयोग ने पाया कि अनुच्छेद 356 के उपयोग के कम से कम एक तिहाई मामले राजनीति से प्रेरित थे।
- राजकोषीय असंतुलन:
- असमान राजस्व वितरण: 15वें वित्त आयोग ने राज्यों के लिये केंद्रीय करों में अधिक हिस्सेदारी की और इसे 32% से बढ़ाकर 41% करने की अनुशंसा की। राज्य प्रायः शिकायत करते हैं कि उन्हें प्राप्त धन अपर्याप्त है और इसे समय पर वितरित नहीं किया जाता है, जिससे राजकोषीय तनाव उत्पन्न होता है।
- इसके अलावा, दक्षिणी राज्य प्रायः शिकायत करते हैं कि उत्तरी राज्यों की तुलना में करों में अधिक योगदान के बावजूद उन्हें कम धनराशि प्राप्त होती है और उन्हें उनकी कम जनसंख्या के कारण इस असमानता का सामना करना पड़ता है।
- जीएसटी क्षतिपूर्ति के मुद्दे: पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों ने जीएसटी क्षतिपूर्ति में देरी के बारे में चिंता व्यक्त की है, जहाँ उनका तर्क है कि इससे उनकी वित्तीय योजना और विकास गतिविधियों में बाधा उत्पन्न होती है।
- असमान राजस्व वितरण: 15वें वित्त आयोग ने राज्यों के लिये केंद्रीय करों में अधिक हिस्सेदारी की और इसे 32% से बढ़ाकर 41% करने की अनुशंसा की। राज्य प्रायः शिकायत करते हैं कि उन्हें प्राप्त धन अपर्याप्त है और इसे समय पर वितरित नहीं किया जाता है, जिससे राजकोषीय तनाव उत्पन्न होता है।
- संसद में असममित प्रतिनिधित्व:
- लोकसभा में प्रतिनिधित्व जनसंख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है, जहाँ बड़े राज्यों को अधिक सीटें प्राप्त हैं। छोटे राज्यों का तर्क है कि इससे राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आवाज़ कमज़ोर हो जाती है।
- उदाहरण: सबसे अधिक आबादी वाले त्तर प्रदेश के पास 80 लोकसभा सीटें हैं, जबकि सबसे कम आबादी वाले सिक्किम के पास केवल 1 सीट है।
- लोकसभा में प्रतिनिधित्व जनसंख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है, जहाँ बड़े राज्यों को अधिक सीटें प्राप्त हैं। छोटे राज्यों का तर्क है कि इससे राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आवाज़ कमज़ोर हो जाती है।
- अंतर्राज्यीय विवाद:
- भारत में अंतर्राज्यीय विवादों में जल बँटवारा, सीमा विवाद और संसाधन आवंटन सहित कई मुद्दे शामिल हैं।
- यदि इन विवादों का समाधान नहीं किया गया तो इससे अविश्वास को बढ़ावा मिलेगा और सहकारी शासन में बाधा उत्पन्न होगी, जिससे संघीय ढाँचे पर दबाव पड़ेगा।
- तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी नदी के जल बँटवारे को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा है। इस विवाद में कई कानूनी लड़ाइयाँ, हिंसक विरोध प्रदर्शन और राजनीतिक गतिरोध देखने को मिले हैं।
- ऐसे मुद्दे न केवल शासन व्यवस्था को बाधित करते हैं, बल्कि इनकी आर्थिक लागत भी बहुत अधिक होती है।
- उदाहरण के लिये, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्य के बीच बेलगावी क्षेत्र के प्रशासन को लेकर लंबे समय से बेलगावी (बेलगाँव) सीमा विवाद चल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले को लेकर चली कानूनी लड़ाई में कर्नाटक सरकार ने प्रतिदिन 50 लाख रुपए से अधिक का भुगतान किया।
- आर्थिक असमानताएँ:
- निवेश के लिये प्रतिस्पर्द्धा: राज्य प्रायः प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के लिये प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, जिससे असंतुलन पैदा हो सकता है।
- उदाहरण के लिये, महाराष्ट्र और गुजरात बड़ी मात्रा में FDI प्राप्त करते हैं, जबकि पूर्वोत्तर राज्यों में न्यूनतम निवेश होता है, जिससे क्षेत्रीय असमानताएँ बढ़ती हैं।
- क्षेत्रीय असमानता:नीति आयोग के एसडीजी इंडिया इंडेक्स 2020-21 के अनुसार, केरल और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य सतत विकास लक्ष्यों पर उच्च स्कोरिंग रखते हैं, जबकि बिहार और झारखंड बहुत पीछे हैं, जो आर्थिक असमानताओं को दर्शाता है।
- निवेश के लिये प्रतिस्पर्द्धा: राज्य प्रायः प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के लिये प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, जिससे असंतुलन पैदा हो सकता है।
भारत में गठबंधन राजनीति की वापसी से कौन-सी संघीय मांगें उठ सकती हैं?
- परिसीमन का लंबित कार्य:
- नियंत्रित जनसंख्या वृद्धि वाले कई दक्षिण भारतीय राज्य मांग कर रहे हैं कि भारत में लंबित परिसीमन प्रक्रिया को शीघ्रता से पूरा किया जाए।
- दक्षिणी राज्यों का मानना है कि जनसंख्या नियंत्रण के प्रभावी उपायों को लागू करने के उनके प्रयासों को अधिक या आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से पुरस्कृत किया जाना चाहिए। परिसीमन प्रक्रिया में देरी इन राज्यों को उनकी सफल पहलों के लिये दंडित करती प्रतीत होती है।
- पुनर्वितरण मॉडल की वैधता:
- दक्षिणी राज्य—जिनकी अर्थव्यवस्था सामान्यतः अधिक मज़बूत है और जो राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं—का मानना है कि जीएसटी मॉडल से आर्थिक रूप से कम विकसित राज्यों को असंगत रूप से लाभ पहुँचता है।
- वे जीएसटी पुनर्वितरण के लिये अधिक समतामूलक एवं संतुलित दृष्टिकोण की मांग करते हैं जो उनके उच्च योगदान को चिह्नित करता हो, राजस्व की कमी को दूर करता हो और उनकी विकासात्मक आवश्यकताओं का समर्थन करता हो।
- विशेष श्रेणी दर्जे की मांग:
- राष्ट्रीय गठबंधन सरकार में शामिल बिहार और आंध्र प्रदेश के क्षेत्रीय दल अपनी विशिष्ट विकासात्मक चुनौतियों से निपटने तथा सतत वृद्धि एवं विकास के लिये आवश्यक अतिरिक्त केंद्रीय सहायता प्राप्त करने हेतु विशेष श्रेणी दर्जे (Special Category Status) को एक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में देखते हैं।
- पूर्व में विशेष श्रेणी में वर्गीकृत राज्यों के लिये सबसे बड़ा लाभ यह रहा था कि केंद्र प्रायोजित योजनाओं के अंतर्गत 90% धनराशि केंद्र द्वारा दी जाती थी और राज्यों का योगदान केवल 10% होता था।
- ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के दृष्टिकोण से विचलन:
- कुछ राज्यों का तर्क है कि एक साथ चुनाव कराने से अलग-अलग राज्यों के विशिष्ट राजनीतिक एवं सामाजिक संदर्भों की तुलना में एकरूपता को प्राथमिकता देने के रूप में भारत का संघीय ढाँचा कमज़ोर पड़ सकता है।
- स्थानीय आवश्यकताओं और परिस्थितियों के आधार पर अपने चुनाव कार्यक्रम निर्धारित करने के संबंध में राज्य अपनी कुछ स्वायत्तता खो सकते हैं।
भारत के संघीय ढाँचे को सुदृढ़ करने के लिये कौन-से कदम आवश्यक हैं?
- शक्तियों का हस्तांतरण बढ़ाना:
- संवैधानिक सूचियों में संशोधन करने, केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने, राज्यों को अधिक वित्तीय स्वायत्तता एवं लचीलापन प्रदान करने आदि के रूप में राज्यों और स्थानीय निकायों के लिये शक्तियों एवं संसाधनों का हस्तांतरण बढ़ाकर संघवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है।
- सरकारिया आयोग (1988) ने संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में सूचीबद्ध क्षेत्रों में राज्यों के लिये अधिक स्वायत्तता की वकालत की थी।
- इसके अलावा, विश्व बैंक के हाल के एक कार्य-पत्र में पंचायतों को अधिक अधिकार सौपने और स्थानीय राजकोषीय क्षमता को सुदृढ़ करने का आह्वान किया गया है ताकि ऑनलाइन भुगतान प्रणालियों, MIS-आधारित लाभार्थी चयन और डिजिटल लाभार्थी ट्रैकिंग के व्यापक अंगीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न ‘पुनःकेंद्रीकरण’ के प्रभाव को कम किया जा सके।
- पंचायतों के अधिकार के आहरण के बजाय उन्हें अधिक अधिकार सौंपना प्रभावी स्थानीय शासन सुनिश्चित करने के लिये अत्यंत आवश्यक है।
- संवैधानिक सूचियों में संशोधन करने, केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने, राज्यों को अधिक वित्तीय स्वायत्तता एवं लचीलापन प्रदान करने आदि के रूप में राज्यों और स्थानीय निकायों के लिये शक्तियों एवं संसाधनों का हस्तांतरण बढ़ाकर संघवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है।
- समतामूलक विकास सुनिश्चित करना:
- संसाधन साझाकरण फॉर्मूला: जनसंख्या, गरीबी के स्तर और अवसंरचनात्मक आवश्यकताओं जैसे कारकों पर विचार करते हुए राज्यों को केंद्रीय धन वितरित करने के लिये एक पारदर्शी एवं वस्तुनिष्ठ फॉर्मूला विकसित करना चाहिए।
- रघुराम राजन समिति (2017) ने वस्तुनिष्ठ मानदंडों के आधार पर राज्यों को केंद्रीय निधियों के सूत्र-आधारित हस्तांतरण की वकालत की थी।
- क्षेत्रीय असमानताओं को संबोधित करना: पिछड़े और वंचित क्षेत्रों या समूहों को विशेष सहायता एवं समर्थन प्रदान कर क्षेत्रीय असंतुलन और असमानताओं को संबोधित किया जाए।
- पुंछी आयोगने केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने और उनकी राजकोषीय स्वायत्तता को बेहतर बनाने का सुझाव दिया था।
- 15वें वित्त आयोग ने राज्य-विशिष्ट अनुदानों के आवंटन के साथ-साथ राज्य-विशिष्ट और क्षेत्र-विशिष्ट अनुदानों के उपयोग की समीक्षा एवं निगरानी के लिये प्रत्येक राज्य में उच्च-स्तरीय समितियों के गठन की अनुशंसा की थी।
- आयोग ने संभावित प्रदर्शन प्रोत्साहनों के लिये विद्युत क्षेत्र की दक्षता, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) योजनाओं के अंगीकरण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन जैसे क्षेत्रों की भी पहचान की।
- संसाधन साझाकरण फॉर्मूला: जनसंख्या, गरीबी के स्तर और अवसंरचनात्मक आवश्यकताओं जैसे कारकों पर विचार करते हुए राज्यों को केंद्रीय धन वितरित करने के लिये एक पारदर्शी एवं वस्तुनिष्ठ फॉर्मूला विकसित करना चाहिए।
- अंतर-सरकारी संस्थाओं को सशक्त बनाना:
- अंतर-राज्य परिषद (ISC) को पुनःजीवंत करना: अंतर-राज्यीय विवादों को सुलझाने और राष्ट्रीय मुद्दों पर सहयोग को बढ़ावा देने के लिये ISC को अधिक प्रभावी मंच के रूप में स्थापित किया जाए। इसमें आम नीतियों को विकसित करने के लिये इसे अधिक शक्ति प्रदान करना शामिल हो सकता है।
- सरकारिया आयोग की अनुशंसा पर सरकार ने एक स्थायी अंतर-राज्यीय परिषद की स्थापना की है, लेकिन यह सरकारिया आयोग के दृष्टिकोण को पूर्ण साकार नहीं कर सकी है।
- तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के सुझाव के अनुसार ISC की बैठक वर्ष में कम से कम तीन बार आयोजित की जानी चाहिए ।
- पिछले 8 वर्षों में परिषद की केवल एक बार बैठक हुई है और जुलाई 2016 के बाद से इसकी कोई बैठक नहीं हुई है।
- वर्ष 1990 में स्थापना के बाद से ISC की केवल 11 बार बैठक हुई है।
- संचार और समन्वय बढ़ाना: सुचारू नीति कार्यान्वयन सुनिश्चित करने और क्षेत्रीय चिंताओं को दूर करने के लिये केंद्र एवं राज्यों के बीच संचार के नियमित चैनल स्थापित किये जाएँ।
- पुंछी आयोग ने आंतरिक सुरक्षा, समन्वय और प्रभावशीलता बढ़ाने से संबंधित मामलों के लिये एक अधिरोहित संरचना के रूप में ‘राष्ट्रीय एकता परिषद’ (National Integration Council)के गठन का प्रस्ताव किया था।
- अंतर-राज्य परिषद (ISC) को पुनःजीवंत करना: अंतर-राज्यीय विवादों को सुलझाने और राष्ट्रीय मुद्दों पर सहयोग को बढ़ावा देने के लिये ISC को अधिक प्रभावी मंच के रूप में स्थापित किया जाए। इसमें आम नीतियों को विकसित करने के लिये इसे अधिक शक्ति प्रदान करना शामिल हो सकता है।
- सहकारी और प्रतिस्पर्द्धी संघवाद को बढ़ावा देना:
- सहकारी संघवाद में केंद्र और राज्य राष्ट्रीय सुरक्षा, आपदा प्रबंधन एवं आर्थिक विकास जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर मिलकर कार्य करते हैं। इससे साझा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।
- उदाहरण के लिये, जीएसटी परिषद की स्थापना करना और राज्यों की वित्तपोषण हिस्सेदारी बढ़ाने के वित्त आयोग के सुझाव को मंज़ूरी देना।
- प्रतिस्पर्द्धी संघवाद में राज्य अवसंरचना, सार्वजनिक सेवाओं और विनियामक ढाँचे में सुधार कर निवेश एवं प्रतिभा के लिये प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। इससे पूरे देश में नवाचार और बेहतर शासन अभ्यासों को बढ़ावा मिलता है।
- नीति आयोग स्कूल शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक (SEQI), राज्य स्वास्थ्य सूचकांक (SHI), समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (CWMI) जैसे विभिन्न सूचकांकों के माध्यम से (जो विशिष्ट मानदंडों पर राज्यों की रैंकिंग करते हैं) भारत में अधिक सुदृढ़ एवं प्रतिस्पर्द्धी संघीय प्रणाली के लिये उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है।
- सहकारी संघवाद में केंद्र और राज्य राष्ट्रीय सुरक्षा, आपदा प्रबंधन एवं आर्थिक विकास जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर मिलकर कार्य करते हैं। इससे साझा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।
- संघीय सिद्धांतों और भावना का सम्मान करना:
- केंद्रीय हस्तक्षेप को कम करना: केंद्र को संविधान केअनुच्छेद 355 और 356 (जो राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति देते हैं) के तहत अपनी शक्तियों के अत्यधिक उपयोग से बचना चाहिए। इससे राज्यों के लिये अधिक स्वायत्तता सुनिश्चित होगी।
- सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया था कि अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) का प्रयोग अत्यंत संयम से किया जाना चाहिए और अत्यंत आवश्यक मामलों में अंतिम उपाय के रूप में तभी इसका प्रयोग किया जाना चाहिए जब अन्य सभी उपलब्ध विकल्प विफल हो जाएँ।
- अधिक प्रतिनिधित्व और भागीदारी सुनिश्चित करना: राज्य प्रतिनिधियों की बढ़ी हुई भागीदारी यह सुनिश्चित करेगी कि उनकी चिंताओं और प्राथमिकताओं को राष्ट्रीय स्तर पर सुना जाए।
- उदाहरण के लिये, राज्यपाल की नियुक्ति अधिक पारदर्शी और परामर्शपरक होनी चाहिए।
- पुंछी आयोग ने राज्यपाल की नियुक्ति में मुख्यमंत्री की भागीदारी की अनुशंसा की थी।
- उदाहरण के लिये, राज्यपाल की नियुक्ति अधिक पारदर्शी और परामर्शपरक होनी चाहिए।
- केंद्रीय हस्तक्षेप को कम करना: केंद्र को संविधान केअनुच्छेद 355 और 356 (जो राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति देते हैं) के तहत अपनी शक्तियों के अत्यधिक उपयोग से बचना चाहिए। इससे राज्यों के लिये अधिक स्वायत्तता सुनिश्चित होगी।
निष्कर्ष:
- गठबंधन राजनीति के पुनरुत्थान और क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव से चिह्नित उभरता राजनीतिक परिदृश्य संघीय ढाँचे को पुनर्परिभाषित करने और इसे सुदृढ़ करने का एक अनूठा अवसर प्रदान कर रहा है। भारत में संघवाद के लिये एक दूरदर्शी दृष्टिकोण वह होगा जो इसकी विविधता का जश्न मनाए, सहयोग को बढ़ावा दे और इसके सभी नागरिकों के लिये एक सामंजस्यपूर्ण एवं समृद्ध भविष्य का निर्माण करे। यह केवल एक राजनीतिक आवश्यकता नहीं है, बल्कि भारतीय गणराज्य को परिभाषित करने वाली प्रत्यास्थता एवं एकता की पुष्टि भी होगी।
भारतीय संघवाद की जटिलता
संघवाद (Federalism) सरकार की एक प्रणाली है जिसमें शक्तियों को सरकार के दो या दो से अधिक स्तरों, जैसे केंद्र और राज्यों अथवा प्रांतों के बीच विभाजित किया जाता है। संघवाद एक बड़ी राजनीतिक इकाई के भीतर विविधता और क्षेत्रीय स्वायत्तता के समायोजन की अनुमति देता है।
भारतीय संविधान कुछ एकात्मक विशेषताओं (unitary features) के साथ एक संघीय प्रणाली (federal system) स्थापित करता है। इसे कभी-कभी अर्द्ध-संघीय प्रणाली (quasi-federal system) भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें ‘फ़ेडरेशन’ और ‘यूनियन’ दोनों के तत्व शामिल होते हैं। संविधान केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विधायी, प्रशासनिक और कार्यकारी शक्तियों के वितरण को निर्दिष्ट करता है। विधायी शक्तियों को संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है, जो संघ सरकार एवं राज्य सरकारों को प्रदत्त शक्तियों और उनके बीच साझा की गई शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। संविधान राजनीतिक शक्ति वितरण के कई तरीकों के साथ एक बहुस्तरीय या बहु-संस्तरीय संघ (multilevel or multilayered federation) की स्थापना का भी प्रावधान करता है।
भारतीय संघवाद अपने संदर्भ में अद्वितीय है, क्योंकि यह ब्रिटिश शासन के तहत प्रचलित एकात्मक प्रणाली से स्वतंत्रता के बाद एक संघीय प्रणाली के रूप में विकसित हुआ है। भारतीय संघवाद को समय के साथ कई चुनौतियों और समस्याओं का सामना करना पड़ा है, जैसे कि रियासतों (princely states) का एकीकरण, राज्यों का भाषाई पुनर्गठन, क्षेत्रीय आंदोलन एवं स्वायत्तता की मांग, केंद्र-राज्य संबंध एवं संघर्ष, राजकोषीय संघवाद (fiscal federalism) एवं संसाधन साझाकरण, सहकारी संघवाद (cooperative federalism), अंतर-राज्य समन्वय आदि।
संघीय प्रणालियों के विभिन्न प्रकार
- ‘होल्डिंग टूगेदर फ़ेडरेशन’ (Holding Together Federation): इस प्रकार के संघ में संपूर्ण इकाई में विविधता को समायोजित करने के लिये विभिन्न घटक भागों के बीच शक्तियों को साझा किया जाता है। यहाँ शक्तियाँ आम तौर पर केंद्रीय सत्ता की ओर झुकी होती हैं। उदाहरण: भारत, स्पेन, बेल्जियम।
- ‘कमिंग टूगेदर फ़ेडरेशन’ (Coming Together Federation): इस प्रकार के संघ में स्वतंत्र राज्य एक बड़ी इकाई बनाने के लिये एक साथ आते हैं। यहाँ राज्यों को ‘होल्डिंग टूगेदर फ़ेडरेशन’ के रूप में गठित संघ की तुलना में अधिक स्वायत्तता प्राप्त होती है। उदाहरण: संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैंड।
- असममित संघ (Asymmetrical Federation): इस प्रकार के संघ में कुछ घटक इकाइयों के पास ऐतिहासिक या सांस्कृतिक कारणों से अन्य की तुलना में अधिक शक्तियाँ या विशेष स्थिति होती है। उदाहरण: कनाडा (क्यूबेक), रूस (चेचन्या), इथियोपिया (टाइग्रे)।
संघ के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ
- क्षेत्रवाद (Regionalism):
- भाषाई, जातीय, धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान पर आधारित क्षेत्रीय दलों और आंदोलनों के उदय ने भारत की राष्ट्रीय अखंडता एवं एकता के लिये चुनौती पेश की है।
- कुछ क्षेत्रों या समूहों ने अधिक स्वायत्तता, विशेष दर्जा या यहाँ तक कि भारतीय संघ से अलग होने की मांग की है।
- उदाहरण के लिये पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, असम में बोडोलैंड की मांग आदि।
- शक्तियों का विभाजन (Division of Powers):
- केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन स्पष्ट और संतुलित नहीं है।
- केंद्र के पास राज्यों की तुलना में अधिक शक्तियाँ एवं संसाधन हैं और वह राष्ट्रपति शासन, राज्यपाल की भूमिका, केंद्रीय कानून आदि विभिन्न माध्यमों से उनके मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है। राज्यों के पास अपने स्वयं के विकास और कल्याण नीतियों को आगे बढ़ाने के लिये सीमित स्वायत्तता एवं वित्तीय अवसर मौजूद हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2016 में संवैधानिक उल्लंघन के आधार पर केंद्र द्वारा अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था, लेकिन बाद में इसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया।
- राजकोषीय संघवाद का अभाव (Absence of Fiscal Federalism):
- केंद्र और राज्यों के बीच राजकोषीय संबंध न्यायसंगत एवं पारदर्शी नहीं हैं। अधिकांश करों का संग्रह केंद्र द्वारा किया जाता है और वह अपने विवेक या कुछ मानदंडों के अनुसार राज्यों को इसका वितरण करता है।
- राज्य सहायता अनुदान, ऋण और अन्य हस्तांतरण के लिये केंद्र पर निर्भर होते हैं। राज्यों के पास कराधान शक्तियाँ और उधार लेने की क्षमताएँ सीमित होती हैं।
- उदाहरण के लिये, कई राज्यों ने जीएसटी कार्यान्वयन के कारण हुए राजस्व घाटे के लिये अपर्याप्त मुआवजे के संबंध में शिकायत की है।
- इकाइयों का असमान प्रतिनिधित्व (Unequal Representation of Units):
- संसद और अन्य संघीय संस्थानों में राज्यों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या, क्षेत्र या योगदान के अनुपात में नहीं है। कुछ राज्यों के अति प्रतिनिधित्व तो अन्य राज्यों के अल्प प्रतिनिधित्व की समस्या उत्पन्न हुई है।
- उदाहरण के लिये, उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीट हैं जबकि सिक्किम में केवल एक लोकसभा सीट है। यह राष्ट्रीय निर्णयन और संसाधन आवंटन में विभिन्न राज्यों की आवाज़ और असर को प्रभावित करता है।
- संसद और अन्य संघीय संस्थानों में राज्यों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या, क्षेत्र या योगदान के अनुपात में नहीं है। कुछ राज्यों के अति प्रतिनिधित्व तो अन्य राज्यों के अल्प प्रतिनिधित्व की समस्या उत्पन्न हुई है।
- केंद्रीकृत संशोधन शक्ति (Centralized Amendment Power):
- संविधान में संशोधन करने की शक्ति विशेष बहुमत वाली संसद में निहित है। राज्यों को प्रभावित करने वाले कुछ मामलों को छोड़कर संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की कोई भूमिका या मत नहीं है।
- उदाहरण के लिये, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने का केंद्र का निर्णय राज्य सरकार या अन्य हितधारकों से किसी परामर्श के बिना किया गया था।
- आंध्र प्रदेश राज्य से तेलंगाना राज्य के निर्माण का आंध्र प्रदेश ने विरोध किया था और इसके परिणामस्वरूप प्रदर्शन एवं हिंसा की घटनाएँ हुईं।
- संविधान में संशोधन करने की शक्ति विशेष बहुमत वाली संसद में निहित है। राज्यों को प्रभावित करने वाले कुछ मामलों को छोड़कर संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की कोई भूमिका या मत नहीं है।
संघवाद को सुदृढ़ करने की आवश्यकता क्यों?
- विविधता और बहुलता का संरक्षण:
- केंद्र या प्रमुख समूहों की ओर से बढ़ते समरूपीकरण और आत्मसातीकरण दबाव (homogenization and assimilation pressures) के समक्ष भारत के समाज, संस्कृति, भाषा, धर्म आदि की विविधता एवं बहुलता (diversity and pluralism) की रक्षा और संरक्षण के लिये संघवाद आवश्यक है।
- स्वायत्तता और अधिकारों की सुरक्षा:
- बढ़ते केंद्रीकरण और केंद्र या अन्य बाह्य शक्तियों के हस्तक्षेप की स्थिति में राज्यों और अन्य उप-राष्ट्रीय इकाइयों की स्वायत्तता एवं अधिकारों की सुरक्षा एवं संवृद्धि के लिये संघवाद आवश्यक है।
- शासन की गुणवत्ता और दक्षता में सुधार:
- राज्यों एवं अन्य उप-राष्ट्रीय इकाइयों को उनकी आवश्यकताओं एवं क्षमताओं के अनुसार अपनी नीतियाँ एवं कार्यक्रम बनाने तथा उसका प्रवर्तन करने के लिये सशक्त और सक्षम बनाकर विभिन्न स्तरों पर शासन एवं सेवा वितरण की गुणवत्ता और दक्षता में सुधार लाने और उनकी सुनिश्चिता के लिये संघवाद आवश्यक है।
- संतुलित और समावेशी विकास को बढ़ावा देना:
- सरकार के विभिन्न स्तरों या इकाइयों के बीच संसाधनों और अवसरों का समान एवं पारदर्शी वितरण सुनिश्चित करके भारत के सभी क्षेत्रों एवं वर्गों के संतुलित और समावेशी विकास एवं कल्याण को बढ़ावा देने तथा इसकी प्राप्त के लिये संघवाद आवश्यक है।
- सद्भाव और सहयोग को बढ़ावा देना:
- टकराव और दबाव के बजाय संवाद एवं परामर्श के माध्यम से विवादों और संघर्षों को हल करके सरकार के विभिन्न स्तरों या इकाइयों के बीच सद्भाव एवं सहयोग को बढ़ावा देने तथा इसे बनाए रखने के लिये संघवाद आवश्यक है।
कौन-सी संस्थाएँ संघवाद को बढ़ावा दे रही हैं?
- सर्वोच्च न्यायालय (SCI):
- यह देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है और संविधान के संरक्षक एवं व्याख्याकार के रूप में कार्य करती है।
- इसके पास केंद्र और राज्यों के बीच या राज्यों के आपसी विवादों पर निर्णय लेने की शक्ति है।
- अंतर्राज्यीय परिषद (Inter-State Council):
- यह सामान्य हित एवं चिंता के मामलों पर केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय एवं सहयोग को बढ़ावा देने के लिये संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत स्थापित एक संवैधानिक निकाय है।
- इसमें प्रधानमंत्री, सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, विधानसभा वाले केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री द्वारा नामित छह केंद्रीय मंत्री शामिल होते हैं।
- वित्त आयोग (FC):
- यह केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व के वितरण की अनुशंसा करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत स्थापित एक संवैधानिक निकाय है।
- यह राज्यों के संसाधनों को बढ़ाने और ज़रूरतमंद राज्यों को सहायता अनुदान देने के उपाय भी सुझाता है।
- नीति आयोग (NITI Aayog) :
- इसकी स्थापना वर्ष 2015 में योजना आयोग (Planning Commission) के स्थान पर की गई थी।
- यह आर्थिक और सामाजिक विकास के मामलों पर केंद्र और राज्यों के लिये एक थिंक टैंक एवं सलाहकार निकाय के रूप में कार्य करता है।
- यह नीति निर्माण और कार्यान्वयन में राज्यों को शामिल करके सहकारी संघवाद को भी बढ़ावा देता है।
- इसमें एक अध्यक्ष (प्रधानमंत्री), एक उपाध्यक्ष, एक कार्यकारी अधिकारी/सीईओ, पूर्णकालिक सदस्य, अंशकालिक सदस्य, पदेन सदस्य (सभी राज्यों के मुख्यमंत्री एवं केंद्रशासित प्रदेशों के उपराज्यपाल) और विशेष आमंत्रित सदस्य शामिल होते हैं।
भारत में संघवाद को सुदृढ़ करने के लिये आगे की राह
- शक्तियों और संसाधनों का हस्तांतरण बढ़ाना:
- संवैधानिक सूचियों को संशोधित करके, केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाकर, राज्यों को अधिक वित्तीय स्वायत्तता एवं लचीलापन प्रदान करने जैसे कदमों के माध्यम से राज्यों और स्थानीय निकायों की ओर शक्तियों एवं संसाधनों के हस्तांतरण को बढ़ाकर संघवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है।
- बेहतर प्रतिनिधित्व और भागीदारी सुनिश्चित करना:
- राष्ट्रीय निर्णय प्रक्रिया में राज्यों का अधिक प्रतिनिधित्व और भागीदारी सुनिश्चित करके संघवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है। इसके लिये उन्हें राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों के निर्माण एवं कार्यान्वयन में संलग्न करके, उन्हें संघीय संस्थानों (जैसे जीएसटी परिषद, अंतर्राज्यीय परिषद, नीति आयोग आदि) में अधिक आवाज़ एवं वोटिंग देकर सबल किया जा सकता है।
- सहकारी और प्रतिस्पर्द्धी संघवाद को बढ़ावा देना:
- राज्यों के बीच सहकारी एवं प्रतिस्पर्द्धी संघवाद को बढ़ावा देकर संघवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है। इसके लिये उन्हें साझा मुद्दों एवं चुनौतियों पर साथ मिलकर कार्य करने हेतु प्रोत्साहित करने, उनके बीच सर्वोत्तम प्रथाओं एवं नवाचारों को बढ़ावा देने, बेहतर प्रदर्शन एवं परिणामों के लिये वित्तीय प्रोत्साहन एवं पुरस्कार देने जैसे कदम उठाये जा सकते हैं।
- क्षेत्रीय असंतुलन और असमानताओं को संबोधित करना:
- पिछड़े और वंचित क्षेत्रों या समूहों को विशेष सहायता एवं समर्थन प्रदान करने, विभिन्न क्षेत्रों या समूहों के बीच संसाधनों एवं अवसरों का उचित एवं पर्याप्त आवंटन सुनिश्चित करने, क्षेत्रीय विकास परिषदों या प्राधिकरणों का निर्माण करने के रूप में क्षेत्रीय असंतुलन और असमानताओं को संबोधित कर संघवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है।
- संघीय सिद्धांतों एवं भावना का सम्मान करना:
- संघवाद से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों एवं मानदंडों का पालन करने, केंद्र या राज्यों द्वारा मनमानी या एकतरफा कार्रवाई या हस्तक्षेप से बचने, संवाद या न्यायिक तंत्र के माध्यम से विवादों या संघर्षों को हल करने आदि के रूप में सभी मामलों में संघीय सिद्धांतों एवं भावना का सम्मान करके संघवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है।
संघवाद क्या है? भारत में संघीय व्यवस्था
- संघवाद एक ऐसा शब्द है जो अक्सर सुनने में आता है। संघवाद क्या है? यह सरकार चलाने की कई प्रणालियों में से एक है, जिसमें प्रशासनिक शक्तियों का विभाजन होता है। हमारा देश भी संघवाद के आधार पर संचालित होता है। इस ब्लॉग में, आप जानेंगे कि संघवाद क्या है, इसे कैसे परिभाषित किया जाता है, इसकी विशेषताएं क्या हैं, और इसके कितने प्रकार होते हैं। साथ ही, सहकारी संघवाद और संघवाद में प्रतिस्पर्धा के बारे में भी जानकारी मिलेगी। संघवाद की यह प्रणाली न केवल प्रशासनिक संतुलन बनाए रखती है, बल्कि विभिन्न स्तरों पर सरकारों के बीच तालमेल भी सुनिश्चित करती है, जिससे शासन अधिक प्रभावी और संगठित होता है।
संघवाद की परिभाषा
- संघवाद क्या है? समझने के लिए प्रचलित और आसान संघवाद की परिभाषा को जानना महत्वपूर्ण है।
- संघवाद शासन की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें प्रशासनिक शक्तियों को देश की राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच में संवैधानिक तरीके से बाँट दिया जाता है। संघवाद सरकार चलाने का वह अनुबंध भी है जो राज्य और केंद्र सरकार को क्षेत्रों के नियंत्रण अधिकार देता है तथा दोनों के मध्य तालमेल बनाए रखता है। संघवाद की परिभाषा के अनुसार संघवाद में कम से कम दो स्तरीय सरकार होती है जिसका विभाजन एक बड़ी इकाई तथा कई छोटी छोटी इकाइयों में होता है।
संघवाद के प्रकार
संघवाद में क्षेत्र, संस्कृति, भाषा, उपनेश के आधार पर संघवाद के प्रकार कई तरह के हो सकते है। संघवाद के प्रकार तीन है:
- असममित संघ
- कमिंग टूगेदर फ़ेडरेशन
- होल्डिंग टूगेदर फ़ेडरेशन
असममित संघ
संघवाद में दो स्तर की सरकार होती है और दूसरे स्तर पर राज्य या प्रांत होते है। इन सभी राज्यों का संवैधानिक स्तर एक ही होता है लेकिन इन राज्यों के पास एक दूसरे से भिन्न अधिकार होते है, असममित संघ राज्यों में इसी असमान शक्तियों और अधिकारों के बंटवारे पर चलने वाला संघ है, संघवाद के प्रकार असममित संघ में निम्न गुण पाए जाते है।
- एक या एक से ज़्यादा राज्यों के पास दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक स्वतंत्रता होती है।
- राज्य का निर्माण भाषा, संस्कृति और परम्परा के आधार पर होता है इसीलिए अलग अलग राज्य अपनी भाषा, संस्कृति, परम्परा तथा जाती के अनुसार राज्य के प्रावधानों में बदलाव कर सकतें है ।
- असममित संघ विविधता में एकता कायम करने के लिए एक अच्छी व्यवस्था है।
कमिंग टूगेदर फ़ेडरेशन
- जब कुछ स्वतंत्र इकाइयाँ, जैसे प्रांत, राज्य या उपनिवेश, एक साथ आकर एक बड़ा संघ बनाती हैं, तो इसे “कमिंग टुगेदर फेडरेशन” (एक साथ आने वाला संघ) कहते हैं। इस प्रकार के संघ में विशेष प्रशासनिक शक्तियाँ राज्यों के पास रहती हैं, और कोई नया नियम या बदलाव तभी लागू होता है जब सभी संघ सदस्य राज्यों की सहमति मिलती है। संयुक्त राज्य अमेरिका इसका एक प्रमुख उदाहरण है। कमिंग टुगेदर फेडरेशन संघवाद के प्रमुख प्रकारों में से एक माना जाता है।
होल्डिंग टूगेदर फ़ेडरेशन
- जब एक बड़ा देश अपनी नीतियों को हर क्षेत्र में समान रूप से लागू करना चाहता है और विभिन्न परंपराओं और विविधताओं के बीच तालमेल बैठाना चाहता है, तो वह अपने क्षेत्र को अलग-अलग इकाइयों में बांटकर शक्तियों को विकेंद्रीकृत कर देता है। इस प्रकार के संघ को “होल्डिंग टुगेदर फेडरेशन” (एक साथ रहने वाला संघ) कहते हैं। इस संघ में केंद्रीय सरकार के पास विशेष शक्तियाँ होती हैं, जबकि राज्यों को भी कुछ अधिकार मिलते हैं। भारत इसका एक प्रमुख उदाहरण है। होल्डिंग टुगेदर फेडरेशन संघवाद के महत्वपूर्ण प्रकारों में से एक है।
दोहरी सरकार की राजनीति
- केंद्र और राज्य की सरकार के पास अलग होने से दोनों के पास सीमित अधिकार का होना एक सामंजस्य स्थापित करता है।
- प्रशासनिक नीतियों पर स्वच्छ तथा पारदर्शिता बनी रहती है।
- केंद्र सरकार का राज्य सरकार पर पूर्ण नियंत्रण नहीं होता, राज्य सरकार कई क्षेत्रों में बिना दबाव के फैसला ले सकती है। यह दोहरी सरकार की राजनीति में महत्वपूर्ण संघवाद की विशेषताएं है।
विभिन्न स्तरों के बीच शक्तियों का विभाजन
शक्तियों का विकेंद्रीकरण संघवाद की विशेषताएं में से सबसे ज्यादा प्रचलित विशेषता है
- शक्तियों का विकेंद्रीकरण मुख्यतः संघीय सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची के मुताबिक किया जाता है ।
- राज्य से संबंध रखने वाले विषयों पर राज्य का एकाधिकार होता है और राज्य स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति रखता है।
- राष्ट्रीय हितों के विषय में संविधान द्वारा निर्धारित क्षेत्रों में केंद्रीय सरकार फैसले लेती है ।
- जो विषय और क्षेत्र केंद्र और राज्य दोनों के लिए महत्वपूर्ण है वहाँ आपसी सहमति से फैसले लिए जाते है। राज्य द्वारा सहमत ना होने पर संविधान के पूर्व केंद्रीय कानून मान्य होते है।
संविधान की कठोरता
- संविधान के अनुसार ही केंद्र और राज्य को शक्तियां मिलती है, स्वतंत्र होकर भी केंद्र और राज्य संविधान के अनुसार ही फैसले ले सकते है
- केंद्र और राज्य अपनी शक्तियों का दुरुपयोग ना करे यह संविधान में पहले से ही निश्चित किया जाता है।
- संविधान के द्वारा राज्य दिए गए अधिकारों में केंद्र अपने फायदे के लिए फेरबदल नहीं कर सकता।
- संविधान में बदलाव के लिए दोनों स्तर की सरकारों का योगदान होता है
स्वतंत्र न्यायपालिका
- देश की न्यायपालिका स्वतंत्र है तथा केंद्र और राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहती है, यह संघवाद की विशेषता है ।
- न्यायपालिका सीधे तौर पर संविधान के मुताबिक बनाए गए कानून पर चलती है, जब राज्य या केंद्र द्वारा पारित कानून संविधान के प्रावधान का उल्लंघन करता है तब सर्वोच्च न्यायालय उसे स्थगित कर सकता है।
- केंद्र और राज्य के बीच जब शक्तियों और अधिकारों को लेकर विवाद उत्पन्न होता है तब सर्वोच्च न्यायालय निर्णय करता है।
लिखित संविधान:
संघवाद में एक ऐसा लिखित संविधान होता है जो विभिन्न सरकारों की शक्तियों और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से निर्धारित करता है। इस तरह, संघवाद में लिखित संविधान एक स्थिर और संतुलित शासन व्यवस्था की नींव होता है।
द्विसदनीय विधायिका:
- संघवाद में द्विसदन का होना संघवाद की विशेषता है, राज्यसभा प्रांतों का प्रतिनिधित्व करता है तथा लोकसभा केंद्र का।
- दोनों सदनों की सहभागिता विधायी प्रक्रिया को अधिक लोकतांत्रिक बनाती है।
- द्विसदन प्रणाली संघीय सरकारों के कामों पर निगरानी रखने का काम करती है।
- संघवाद में द्विसदन प्रणाली विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों की विविधता और उनकी विशेष आवश्यकताओं को प्रतिनिधित्व देती है।
- द्विसदन दोनो स्तर पर शक्तियों का संतुलन बनाए रखती है।
भारत में सहकारी और प्रतिस्पर्धा संघवाद
सहकारी संघवाद
- संघवाद की परिभाषा के अनुसार भारत में सहकारी संघवाद एक महत्वपूर्ण प्रणाली है जो देश के संघीय ढांचे को मजबूत बनाती है। सहकारी संघवाद प्रणाली केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच तालमेल और सहयोग बढ़ाने पर जोर देती है। भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन स्पष्ट रूप से किया गया है, लेकिन सहकारी संघवाद के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि दोनों स्तर की सरकारें मिलकर राष्ट्र के विकास के लिए कार्य करें। सहकारी संघवाद से राष्ट्र की अखंडता और एकता को बनाए रखते हुए समावेशी और संतुलित विकास किया जाता है।
प्रतिस्पर्धा संघवाद
- यह संघवाद की एक ऐसी अवधारणा है, जिसमें राज्यों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित किया जाता है ताकि वे विकास और सुशासन के क्षेत्र में अधिकतम प्रदर्शन कर सकें। यह अवधारणा सहकारी संघवाद के साथ-साथ कार्य करती है और देश के समग्र विकास में योगदान करती है। केंद्रीय योजनाओं के तहत धन का निवेश हासिल करने के लिए राज्य सरकारें कई तरह की सुविधाएं देकर आपस में प्रतिस्पर्धा करती है जिससे विकास की गति को बढ़ावा मिलता है।
भारतीय संघवाद की विशेषताएं
संघीकरण और क्षेत्रीयकरण
- संघीकरण की प्रक्रिया:
- भारतीय संविधान संघीकरण और क्षेत्रीयकरण को मान्यता देता है।
- संघीकरण राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए एकात्मक विशेषताओं (जैसे केंद्रीकृत संघवाद) को अपनाने की अनुमति देता है।
- सर्वोच्च न्यायालय की समीक्षा के अधीन रहता है।
- क्षेत्रीयकरण की मान्यता:
- संविधान क्षेत्रीयता और क्षेत्रीयकरण को मान्यता देता है।
- राष्ट्र निर्माण और राज्य गठन के मान्य सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करता है।
बहुस्तरीय संघ की स्थापना
- संविधान द्वारा मान्यता:
- भारतीय संविधान बहुस्तरीय संघ की स्थापना को मान्यता देता है।
- इसमें संघ, राज्य, क्षेत्रीय विकास/स्वायत्त परिषद और स्थानीय स्वशासन (पंचायतें और नगर पालिकाएँ) शामिल हैं।
- स्वतंत्र कार्य:
- प्रत्येक इकाई अपने संवैधानिक कर्तव्यों को स्वतंत्र रूप से निभाती है।
- उदाहरण के लिए, केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण सातवीं अनुसूची में निर्दिष्ट है।
- आदिवासी क्षेत्रों, स्वायत्त जिला परिषदों, पंचायतों और नगर पालिकाओं के अधिकार पांचवीं, छठी, ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूचियों में वर्णित हैं।
वित्तीय और राजनीतिक नियंत्रण
- केंद्र का नियंत्रण:
- केंद्र सरकार के पास राज्यों पर राजकोषीय और राजनीतिक नियंत्रण होता है।
- संविधान सममित और विषम शक्ति वितरण को प्रोत्साहित करता है।
- विशेष प्रावधान:
- अनुच्छेद 370 और 371, और पांचवीं और छठी अनुसूचियाँ विषम राज्यों के लिए विशेष नियमों की अनुमति देती हैं।
स्थानीय स्वशासन और विकास
- पंचायती राज संस्थाएँ (PRI):
- ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहन देना।
- सड़क और परिवहन जैसी विकास परियोजनाओं के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करना।
- सामुदायिक संपत्तियों का निर्माण और रखरखाव।
- नगर पालिकाएँ:
- स्थानीय स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था और नियंत्रण।
- सामाजिक वानिकी, पशुपालन, डेयरी और मुर्गी पालन को बढ़ावा देना।
संघवाद की चुनौतियाँ
- संघवाद की चुनौतियाँ विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती हैं जो कि संघीय ढांचे के सुचारू संचालन में बाधा डालती हैं। संघवाद क्या है? और इसकी क्या चुनौतियां हैं इसका विवरण निम्नलिखित है:
कई निकायों का अप्रभावी कार्य:
- केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय की कमी कई बार नीतियों और योजनाओं के चलन में बाधा डालती है।
- संघीय ढांचे में कई निकायों के होने से नीतिगत निर्णय लेने में जटिलता बढ़ती है, जिससे निर्णयों का प्रभावी कार्यान्वयन कठिन हो जाता है।
- कई बार संस्थानों में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी भी कार्यों के अप्रभावी होने का एक कारण होती है, संपूर्ण पारदर्शिता लाना भी संघवाद की चुनौती है ।
कर व्यवस्था की समस्याएँ:
- वस्तु एवं सेवा कर (GST) प्रणाली में राज्यों और केंद्र के बीच राजस्व बंटवारे को लेकर कई विवाद होते हैं।
- विभिन्न राज्यों में कर संग्रहण में असमानता पाई जाती है, जिससे राज्यों की आर्थिक स्थिति में फर्क पड़ता है।
- राज्यों को अपनी वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए केंद्र पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे उनकी आर्थिक स्वायत्तता प्रभावित होती है, वित्तीय स्वतंत्रता लाना संघवाद की चुनौती है ।
राज्य सूची के मामले में राज्यों की स्वायत्तता का अतिक्रमण:
- कई मामलों में केंद्र सरकार द्वारा राज्य सूची के विषयों पर भी नीतिगत हस्तक्षेप किया जाता है, जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित होती है।
- संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद केंद्र के बढ़ते हस्तक्षेप से राज्यों के अधिकारों का हनन होता है।
- कई बार राज्यों और केंद्र के बीच राजनीतिक विवाद भी इस समस्या को बढ़ाते हैं, केंद्र और राज्य के बीच क्षेत्राधिकार की सीमा तय करना संघवाद की चुनौती है ।
कोविड-19 का प्रभाव:
- कोविड-19 महामारी के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और समन्वय की कमी स्पष्ट रूप से देखी गई।
- कोविड-19 महामारी के दौरान केंद्र राज्यों के बीच उपकरणों तथा ऑक्सिजन की आपूर्ति करने में नाकाम रहा तथा सुविधाएँ वहाँ नहीं पहुँच पाई जहाँ उनकी आवश्यकता ज़्यादा थी।
- महामारी के कारण उत्पन्न आर्थिक संकट ने राज्यों और केंद्र दोनों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया।
- महामारी ने विभिन्न राज्यों में स्वास्थ्य सुविधाओं और आर्थिक सहायता के वितरण में असमानता को उजागर किया, अब जिससे संघवाद की चुनौती और बढ़ गई है।
कौन सी संस्थाएँ संघवाद को बढ़ावा दे रहीं है ?
संघवाद क्या है? यह जानने के लिए भारत में संघवाद को बढ़ावा देने वाली प्रमुख संस्थाओं के बारे में जान लेते हैं:
सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India):
- संवैधानिक व्याख्या: सर्वोच्च न्यायालय संघवाद से जुड़े संवैधानिक विवादों की व्याख्या करता है और संघीय ढांचे की रक्षा करता है।
- राज्यों और केंद्र के बीच विवाद समाधान: यह न्यायालय राज्यों और केंद्र के बीच उत्पन्न विवादों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिससे संघीय ढांचे की मजबूती सुनिश्चित होती है।
- संविधान की सर्वोच्चता: सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक प्रावधानों का पालन सुनिश्चित कर संघवाद को बनाए रखता है तथा संघवाद को बढ़ावा देता है ।
अंतर्राज्यीय परिषद :
- संवाद और समन्वय: यह परिषद केंद्र और राज्यों के बीच संवाद और समन्वय को बढ़ावा देती है, जिससे संघीय ढांचे के तहत सहयोग सुनिश्चित होता है।
- विवाद समाधान: अंतर्राज्यीय विवादों और नीतिगत मुद्दों पर विचार-विमर्श कर उन्हें सुलझाने में सहायक होती है जिससे संघवाद को बढ़ावा मिलता है।
- नीतिगत सुधार: संघीय नीतियों में सुधार और राज्यों की समस्याओं के समाधान के लिए यह महत्वपूर्ण मंच है।
वित्त आयोग :
- राजस्व का बंटवारा: वित्त आयोग केंद्र और राज्यों के बीच कर राजस्व के बंटवारे का निर्धारण करता है, जिससे वित्तीय संघवाद को मजबूती मिलती है।
- वित्तीय अनुशासन: यह आयोग राज्यों के वित्तीय अनुशासन और समन्वित आर्थिक नीतियों को प्रोत्साहित करता है।
- राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता: राज्यों को उनके वित्तीय आवश्यकताओं के अनुसार अनुदान और संसाधन प्रदान करने की सिफारिश करता है।
नीति आयोग :
- राष्ट्रीय विकास की योजना: नीति आयोग केंद्र और राज्यों के बीच समन्वित विकास योजनाएँ बनाता है और उन्हें लागू करता है।
- राज्यों की भागीदारी: नीति आयोग राज्यों की भागीदारी से विकास कार्यों की प्राथमिकताएँ तय करता है, जिससे संघीय संरचना को मजबूती मिलती है।
- सहयोगात्मक संघवाद: यह आयोग सहकारी संघवाद को बढ़ावा देता है और राज्यों को विकास योजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित करता है।
संघवाद का भविष्य
संघवाद के पास भविष्य में टिकाऊ बने रहने की क्षमता है, क्योंकि यह अन्य प्रणालियों की तुलना में बेहतर है और राष्ट्रहित के अनुसार परिवर्तन की गुंजाइश रखता है।
- राजनीतिक स्थिरता: संघीय व्यवस्था में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सरकारों के बीच संतुलन और सहयोग आवश्यक है।
- अर्थव्यवस्था: आर्थिक विकास और वित्तीय संसाधनों का उचित वितरण संघवाद के सफल संचालन में महत्वपूर्ण है।
- सामाजिक एकता: विभिन्न समुदायों के बीच समरसता और एकता संघवाद की स्थिरता को बनाए रखने में सहायक हैं।
संभावित परिवर्तन
- विकेंद्रीकरण: राज्यों और स्थानीय सरकारों को अधिक स्वायत्तता और अधिकार प्रदान करना।
- आर्थिक नीतियाँ: संघीय और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संसाधनों का पुनर्वितरण।
- संवैधानिक सुधार: संविधान में बदलाव कर संघीय व्यवस्था को अधिक लचीला और समावेशी बनाना।
- तकनीकी परिवर्तन: प्रौद्योगिकी और डिजिटल गवर्नेंस के माध्यम से प्रशासन में सुधार।
- क्षेत्रीय असमानताएँ: पिछड़े क्षेत्रों और वर्ग समूहों पर विशेष ध्यान देना और असमानताओं को दूर करना।
संघवाद के विकास के रुझान
- सहकारी संघवाद: राष्ट्रीय और राज्य सरकारों के बीच बढ़ते सहयोग की प्रवृत्ति।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव: वैश्वीकरण और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का संघीय संरचना पर प्रभाव।
- प्रादेशिक पहचान: क्षेत्रीय और सांस्कृतिक पहचान का महत्व, जो संघवाद को प्रभावित कर सकता है।
- नागरिक सहभागिता: संघीय शासन में नागरिकों की भागीदारी और उनकी आवाज़ को महत्व देना।
निष्कर्ष
- संघवाद क्या है, यह समझने से हमें यह स्पष्ट होता है कि यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा होता है। संघवाद के प्रकार मुख्य रूप से संघीय और संघात्मक होते हैं, जो अलग-अलग देशों की शासन प्रणाली पर निर्भर करते हैं। भारत में संघवाद की विशेषताएं इसकी संविधान में निर्धारित की गई हैं, जहां केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार और जिम्मेदारियां स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं। यह प्रणाली विभिन्न स्तरों पर शासन की दक्षता और समन्वय बनाए रखने में मदद करती है, जिससे एक स्थिर और समृद्ध राष्ट्र की नींव तैयार होती है। संघवाद लोकतंत्र के सिद्धांतों को मजबूती प्रदान करता है।
भारतीय सविधान
संघ सरकार
उपराष्ट्रपति
महान्यायवादी
प्रधानमंत्री एवं मंत्री-परिषद
संसद
उच्चतम न्यायलय
राज्य सरकार
पंचायती राज
जिला परिषद
शहरी स्थानीय स्वशासन
चुनाव आयोग
संघ लोक सेवा आयोग
कन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण
नियन्त्रण एंव महालेखा परिक्षिक
C.B.I. ( सी.बी.आई. )
केन्द्रीय सतर्कता आयोग
लोकायुक्त
लोकपाल
Haryana CET for C & D { All Haryana Exam }
सामान्य अध्ययन
Haryana
Welcome to GK247 Haryana GK (तैयारी नौकरी की). GK247.IN is India’s most trending website for free Study Material like Haryana Current Affairs, Haryana GK (General Knowledge), General Studies, Reasoning, Mathematics, English & Hindi for exam like Haryana CET, HSSC Clerk, Haryana Police, Haryana Patwari, Haryana Civil Services, Haryana Gram Sachiv, HSSC Haryana Police Constable, HSSC Canal Patwari, HSSC Staff Nurse, HSSC TGT, HSSC PGT, Haryana Police Commando, HSSC SI / Government job recruitment examinations of Haryana State.
Haryana Topic Wise
Haryana Common Entrance Test GROUP C & D
This section provide General Knowledge/ General Studies Question that may be useful for General Awareness part of Prelims Examination of Haryana State Civil Services exams, Haryana CET, HSSC Clerk, Haryana Police, Haryana Patwari, Haryana Gram Sachiv, HSSC Haryana Police Constable, HSSC Canal Patwari, HSSC Staff Nurse, HSSC TGT, HSSC PGT, Haryana Police Commando, HSSC SI & Various Other Competitive Exams.
General Studies for All One Day Haryana Exams [HPSC, HSSC, Haryana CET etc.]
