Management Concept

प्रबन्ध (Management) क्या है ?

प्रबंधन एक व्यक्ति या व्यक्तियों का एक समूह है जो संगठन चलाने के लिए जिम्मेदारियों को स्वीकार करता है ।

वे संगठन की सभी आवश्यक गतिविधियों को नियंत्रण करते हैं। प्रबंधन एक निरंतर और कभी खत्म नहीं होने वाली प्रक्रिया है।

प्रबंधन स्वयं काम नहीं करता है। वे संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सभी कार्यकर्ता को काम करने और समन्वय (यानी एक साथ लाने) के लिए प्रेरित करते हैं।

प्रबंध मानवीय प्रयासों के नियोजन, संगठन, समन्वय, निर्देशन एवं नियंत्रण द्वारा उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करता है ताकि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके।

तो इस तरह हम कह सकते हैं कि किसी भी संगठन के निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक साधनों का सर्वोत्तम उपयोग ही प्रबंध है।

कुछ प्रमुख विद्वानों ने प्रबन्ध को इस प्रकार परिभाषित किया है :-

    • सी डब्ल्यू विल्सन के अनुसार : इनके अनुसार निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु मानवीय शक्ति का प्रयोग एवं निर्देशित करने की विधि प्रबंध कहलाती है।

 

    • लारेंस ए. एप्पले के अनुसार : इनके अनुसार प्रबंध व्यक्तियों के विकास से संबंधित है न कि वस्तुओं के निर्देशन से।

 

  • हेरोल्ड कुन्टज के अनुसार : प्रबंध औपचारिक रूप से समूहों में संगठित मनुष्यों से तथा उनके मिल-जुलकर काम करने तथा कराने की कला है।

प्रबंध के उद्देश्य क्या है ?

प्रबंध एक प्रक्रिया है। अतः इनके भी कुछ उद्देश्य हैं। यू तो प्रबंध के बहुत सारे उद्देश्य होता है कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

  • प्रबंध का पहला उद्देश्य यह है कि लम्बे समय तक इस प्रतियोगी बाजार में कैसे टिका रहा जाए।
  • समाज के लिए रोजगार का सृजन करना भी प्रबंध का उद्देश्य है।
  • पर्यावरण पर्दूषण को रोकना भी प्रवन्ध का मुख्य उद्देश्य रहता है।
  • कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक देना भी प्रबंध का मुख्य उद्देश्य रहता है क्यूंकि उनके लग्न और मेहनत par ही संगठन का विकास सम्भव है।
  • मिलावट को रोकना भी प्रवन्ध का एक उद्देश्य है।
  • विकास के अवसर प्रदान करते रहना भी इसका एक उद्देश्य है।

प्रबंध की विशेषताएँ क्या है ?

प्रबंध की निम्नलिखित कुछ विशेषताएं है :

    • प्रबंध की क्रिया निरंतर चलती रहती है। व्यवसाय में निरंतर समस्याओं के सुधार की आवश्यकता रहती है। इसी कारण प्रबंध को एक सतत् प्रक्रिया कहा जाता है।

 

    • प्रबंध एक सामूहिक क्रिया है, इसका कार्य अन्य व्यक्तियों के सहयोग से कार्य को सम्पादित कराना है।

 

    • प्रबंध कला भी है और विज्ञान भी क्योंकि इसके वैज्ञानिक एवं कलात्मक रूपों को अलग नहीं किया जा सकता है।

 

    • वास्तव में प्रबंध एक सामाजिक क्रिया है क्योंकि मुख्य रूप से इसका संबंध व्यवसाय के मानवीय तत्व से है।
      संस्था के सभी कर्मचारी समाज के ही अंग होते हैं।

 

  • प्रबंध के सिद्धांत विश्वव्यापी हैं। किसी भी उपक्रम में जहाँ मनुष्यों के समन्वित प्रयास होते हैं प्रबन्ध के सिद्धांत लागू किए जा सकते हैं।

प्रबंध की क्या प्रकृति है ?

प्रबंध की प्रकृति को निम्नलिखित रूपों में समझा जा सकता है –

    1. प्रबंध विज्ञानं एवं कला दोनों है (Management is Both Science And Art) : – प्रबंध कला और विज्ञानं दोनों है। कला का अर्थ किसी कार्य को करने अथवा किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञान एवं कुशलता का उपयोग करना है वास्तव में कला सिद्धांत को व्यावहारिक रूप प्रदान करने की विधि है। प्रबंध में व्यवसाय के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ज्ञान व कुशलता का उपयोग निहित होता है। इस प्रकार प्रबंध कला है। जो किन्ही सिद्धांतों पर आधारित हो विज्ञान कहलाता है। व्यावसायिक प्रबंध भी निश्चित सिद्धांतों पर आधारित सुव्यवस्थित ज्ञान का भण्डार है। इस तरह से प्रबंध विज्ञान की कोटि में रखने के लिए पर्याप्त है। इस तरह से प्रबंध विज्ञान और कला दोनों है।

 

    1. प्रबंध एक सार्वभौमिक क्रिया है (Management is a Universal Process) :- प्रबंध का उद्देश्य सामूहिक प्रयत्नों को इस प्रकार नियोजित व नियंत्रित करना है कि कम से कम लागत पर अधिकतम सीमा तक लक्ष्यों की पूर्ति की जा सके। प्रबंध का महत्त्व सर्वव्यापी है। इसका सिद्धांत धार्मिक, राजनैतिक तथा अन्य सभी क्षेत्रों में लागू होते हैं। इस तरह से प्रबंध एक सार्वभौमिक क्रिया है।

 

    1. प्रबंध एक समाजिक उत्तरदायित्व है (Management is a Social Responsibility):- आज व्यवसाय को मनुष्य की ख़ुशी एवं समाज और राष्ट्र की प्रगति के लक्ष्य प्राप्त करने का साधन मन जाता है। यह उत्तरदायित्व पेशेवर प्रबंधकों पर डाला गया है। यही कारण है कि प्रबंध केवल एक आर्थिक संसाधन ही नहीं अपितु एक सामाजिक उत्तरदायित्व है।

 

    1. प्रबंध एक जन्मजात प्रतिभा है (Management is an Inborn Quality):- कुछ व्यक्ति जन्म से ही इतने अधिक योग्य, कुशल, अनुभवी एवं दूरदर्शी होते हैं कि वे दूसरों पर कुशलतापूर्वक नेतृत्व एवं संगठन करने की क्षमता रखते हैं। ये गन इसमें जन्मजात होते हैं इसलिए प्रबंध एक जन्मजात प्रतिभा भी है। लेकिन आज के युग में प्रबंध प्रबन्धकीय शिक्षा प्राप्त व्यक्ति कर रहे हैं। अतः प्रबंध एक जन्मजात प्रतिभा के साथ-साथ अर्जित प्रतिभा भी है।

 

    1. प्रबंध एक सामूहिक क्रिया है (Management is a Group Activity):- प्रबंध एक सामूहिक क्रिया इसलिए कहा जाता है क्योंकि संस्था के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति एक व्यक्ति की तुलना में अनेक व्यक्तियों अथवा समूह के प्रयासों द्वारा होना अधिक सरल है।

 

  1. प्रबंध एक अदृश्य शक्ति है (Management is An Invisible Force):- प्रबंध एक अदृश्य शक्ति होती है जो साधनों के सर्वोत्तम उपयोग में सहयोग करती है।

प्रबंध का महत्व क्या है ?

सभी तरह के संस्था में चाहे वो छोटी या बड़ी, व्यावसायिक हो अथवा गैर व्यावसायिक उसके अंतगर्त सामूहिक प्रयत्नों के द्वारा सामान्य उद्देश्य की पूर्ति की जाती है और इन प्रयत्नों में प्रबंध का काफी महत्व रहता है। प्रबंध के बिना उत्पादन के साधन केवल साधन ही रह जाते है।

सामान्यतः प्रबंध के निम्नलिखित महत्व है :

 

    • प्रबंध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उत्पादन के विभिन्न साधनों में प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित कर न्यूनतम प्रयासों से अधिकतम परिणामों की प्राप्ति सम्भव बनाता है। प्रबंध संस्था के उपलब्ध साधनों में उपयुक्त समन्वय स्थापित कर मनुष्यों का विकास करता है।

 

    • अच्छे एवं कुशल प्रबंधन में दूरदर्शिता, योजनाओं के निर्माण की क्षमता, क्रियाओं के निर्धारण की क्षमता, देश की आर्थिक स्थिति का सही मूल्यांकन करने की क्षमता, ग्राहकों की रूचि का अध्ययन करने की क्षमता आदि होती है जो कटु प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए महत्वपूर्ण है।

 

    • प्रबंध द्वारा प्रारम्भ में आधारभूत नीतियों का निर्माण किया जाता है और बाद में जरूरत के अनुसार विभिन्न नीतियों का निर्धारण किया जाता है।

 

    • प्रबन्धक समाज को स्थिरता प्रदान करने वाला तथा परम्पराओं का संरक्षक है।

 

    • व्यक्तियों के विकास में प्रबंध का अत्यंत महत्व है। प्रबंध की समस्त क्रियाएँ मानवीय विकास से संबंधित होती है। यह व्यक्तियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करता है और उनका सर्वांगीण विकास करता है।

 

    • प्रबंधक प्रत्येक व्यवसाय का गतिशील एवं जीवनदायक तत्व होता है उसके नेतृत्व के आभाव में उत्पादन के साधन केवल साधन-मात्र ही रह जाते हैं, कभी उत्पाद नहीं बन पाते हैं।

 

    • प्रबंध की आवश्यकता केवल व्यावसायिक क्षेत्रों में ही नहीं अपितु गैर-व्यावसायिक क्षेत्र जैसे- स्कूल, कॉलेज, धार्मिक एवं राजनैतिक संस्थाओं, सामाजिक कार्यों, यहाँ तक कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जैसे घर,खेल का मैदान आदि में भी रहती है।

 

  • देश की समृद्धि में भी प्रबंध का काफी महत्व रहता है। कुशल प्रबंधक जब न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन सम्भव बनाते हैं। श्रम समस्याओं को सुलझाते हैं। समाज के विभिन्न अंगों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को भली-भांति निभाते हैं जिससे राष्ट्र समृद्धि की और बढ़ता है।

प्रबंध के स्तर क्या है ?

प्रबंध के स्तर (Level Of Management) से तातपर्य किसी संस्था के प्रबंध पदों में आदेश-निर्देश की व्यवस्था है। प्रबंध के स्तर यह स्पष्ट करता है कि किसी अधिकारी की क्या स्थिति है, कौन किसको आदेश देगा तथा कौन किससे आदेश प्राप्त करेगा।

मूल रूप से प्रबंध के निम्नलिखित तीन स्तर हैं :-

    1. उच्चस्तरीय प्रबंध (Top Level Management) :- उच्चस्तरीय प्रबंध किसी भी संस्था का सर्वोच्च प्रबंध होता है। संस्था का सम्पूर्ण दायित्व उच्चस्तरीय प्रबंध के कंधों पर होता है। इनका मुख्य कार्य नीतियों उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का निर्धारण करना है। प्रबंध के इस स्तर में मुख्य रूप से संचालन मण्डल तथा मुख्य कार्यकारी अधिकारी को सम्मिलित किया जाता है।

 

    1. मध्यस्तरीय प्रबंध (Middle Level Management) :- मध्य स्तरीय प्रबंध, उच्च स्तरीय तथा निम्नस्तरीय प्रबंध के मध्य स्थित होता है। मध्य स्तरीय प्रबंध का कार्य सबसे कठिन होता है क्योंकि इन पर तीन ओर से दबाव रहता है। पहला दबाव उच्चस्तरीय प्रबंधक की ओर से होता है, दूसरा दबाव निम्नस्तरीय प्रबंधक की ओर से होता है तथा तीसरा दबाव मध्यस्तरीय प्रबंधकों का स्वयं का होता है।

 

  1. पर्यवेक्षकीय प्रबंध (Supervisory Management) :- यह प्रबंध के स्तरों के क्रम में सबसे नीचे वाला स्तर है। यह प्रबंध का वह स्तर होता है जो उच्च प्रबंध द्वारा निर्धारित उद्देश्यों एवं नीतियों को अंतिम रूप से कर्मचारियों द्वारा क्रियान्वित करवाते है। इस स्तर के अधिकारियों का प्रत्यक्ष संबंध उन कर्मचारियों से होता है जो कार्यों को सम्पन्न करते हैं। इन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है – जैसे पर्यवेक्षकीय या प्राचालन या अंतिम पंक्ति या निम्नस्तरीय प्रबंध।

उच्चस्तरीय प्रबंध के कार्य क्या है ?

उच्च स्तरीय प्रबंध में मुख्य रूप से संचालक मंडल तथा मुख्य कार्यकारी अधिकारी को सम्मिलित किया जाता है। इनके मुख्य कार्य निम्नलिखित है :-

    • महत्वपूर्ण मामलों पर विचार-विर्मश करना ।

 

    • उपक्रम के उद्देश्यों का निर्धारण करना ।

 

    • योजनाओं एवं परिणामों की जाँच करना ।

 

    • आय का वितरण करना ।

 

    • प्रभावशाली समन्वय की स्थापना ।

 

    • अधीनस्थ अधिकारीयों में स्वतंत्रापूर्वक या स्वैच्छिक आधार पर कार्य करने की भावना को बनाये रखना।

 

    • यह जाने का प्रयास करना कि सभी स्तर के अधीनस्थ अधिकारीयों द्वारा मितव्ययिता एवं कार्य-कुशलता के उच्च स्तर को बनाये रखने के लिए ध्यान दिया गया है या नहीं ।

 

  • बजटों का अनुमोदन करना ।

मध्यस्तरीय प्रबंध के कार्य क्या है ?

मध्यस्तरीय प्रबंध के निम्नलिखित मुख्य कार्य हैं :-

    • उच्चस्तरीय तथा निम्नस्तरीय प्रबंध के मध्य कड़ी का काम करना एवं प्रभावी समन्वय स्थापित करना।

 

    • संगठन के विभिन्न अंगों में प्रभावी संतुलन बनाये रखना।

 

    • वास्तविक परिणामों पर नजर रखना एवं उनकी तुलना निर्धारित लक्ष्यों से करना।

 

    • उच्चस्तरीय प्रबंध द्वारा निर्धारित उद्देश्य, लक्ष्यों एवं नीतियों की व्याख्या करना।

 

    • पर्यवेक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान करना तथा उनको अभिप्रेरित करना।

 

  • उपयुक्त विभागों की स्थापना करना।

निम्नस्तरीय प्रबंध के कार्य क्या है ?

निम्नस्तरीय प्रबंध के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं :

    • उच्च प्रबंध द्वारा निर्धारित लक्ष्यों के अनुरूप दैनिक योजनाओं का निर्माण करना।

 

    • कर्मचारियों को कार्य सौंपना, उन्हें प्रशिक्षित करने की व्यवस्था करना एवं उनका विकास करना।

 

    • श्रमिकों को सलाह देना व उनकी सहायता करना।

 

    • कर्मचारियों के कार्य एवं उत्तरदायित्व को निर्धारित करना एवं उन्हें कार्य सौंपना।

 

    • उत्पादन कार्यों में लीन कर्मचारियों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित रखना।

 

    • कार्य की दशाओं में सुधार हेतु उच्च प्रबंध को आवश्यक सुझाव देना।

 

  • सामग्री, औजारों व मशीनों की व्यवस्था करना।

संचालन मंडल (Board Of Directors)किसे कहते है ?

संचालन मंडल (Board Of Directors) उच्च प्रबंध का एक महत्पूर्ण अंग है। इसी के द्वारा कम्पनी के उद्देश्यों एवं दीर्घकालीन नीतियों का निर्धारण किया जाता है साथ ही संगठन पर नियंत्रण भी रखा जाता है।

यह वास्तव में एक नीति निर्धारक एवं नियंत्रक सत्ता है। संचालक मण्डल में कुछ विशिष्ट योग्यताएँ होना आवश्यक है ताकि संस्था का सफलतापूर्वक संचालन व विकास हो सके।

संचालन मंडल के मुख्य कार्य निम्नलिखित है :-

    • निक्षेपी का कार्य (Trusteeship)

 

    • उपक्रम के उद्देश्यों का निर्धारण करना (Determination Of Enterprise Objectives)

 

    • मुख्य अधिशासी का चयन करना (Selection Of Key Executives)

 

    • योजनाओं एवं परिणामों की जाँच करना (Checking Of Plans And Results)

 

    • बजटों का अनुमोदन करना (Approval Of Budgets)

 

    • व्यवसाय में दीर्घकालीन स्थायित्व प्राप्त करना

 

    • आय का वितरण करना (Distribution Of Corporate Earning)

 

  • महत्वपूर्ण मामलों पर विचार-विमर्श करना (Asking Discerning Questions)

मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Chief Executive Officer)किसे कहते हैं ?

मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Chief Executive Officer) प्रबंध दल के नेता होता है। इस पद को विभिन्न नामों जैसे – जनरल मैनेजर, महाप्रबन्धक, अध्यक्ष आदि के नामों से जाना जाता है। यह संचालक मंडल के पर्यवेक्षण एवं नियंत्रण में कार्य करता है।

संचालन मंडल के मुख्य कार्य निम्नलिखित है :-

    • संचालक मंडल एवं समग्र संगठन के मध्य सम्पर्क एवं समन्वय बनाये रखना।

 

    • संचालन मंडल द्वारा निर्धारित नीतियों को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करना।

 

    • इस तथ्य की जानकारी करना कि अधीनस्थ कर्मचारी नीतियों के प्रभावों से अवगत हैं।

 

    • यह जानने का प्रयास करना कि सभी स्तर के अधीनस्थ अधिकारीयों द्वारा मितव्ययिता एवं कार्य-कुशलता के उच्च स्तर को बनाये रखने के लिए ध्यान दिया गया है नहीं।

 

    • प्रभावशाली समन्वय की स्थापना करना।

 

  • अधीनस्थ अधिकारीयों में स्वतंत्रतापूर्वक या स्वैच्छिक आधार पर कार्य करने की भावना को बनाये रखना।

प्रबंध के कार्य क्या है ?

प्रबन्ध के निम्नलिखित कार्य है :-

    1. नियोजन (Planning) :- प्रबंध भविष्य की आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाता है ताकि निर्धारित लक्ष्यों की दृष्टि से किए जाने वाले वर्तमान प्रयासों को उनके अनुरूप बनाया जा सके।नियोजन का मतलब होता है कि क्या करना है, क्यों करना है, कहाँ करना है, कब करना है, कैसे करना है तथा किस व्यक्ति द्वारा करना है, इन सभी बातों पर ध्यान देना। इसके साथ ही नियोजन के अंतगर्त विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के तरीकों पर भी विचार किया जाता है।

 

    1. संगठन (Organisation) :- नियोजन द्वारा उद्देश्य एवं लक्ष्य निर्धारित कर लेने के पश्चात उन्हें कार्यन्वित करने की समस्या आती है जिसे प्रबंध संगठन के माध्यम से करता है। संगठन निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति करने वाले तंत्र है। उपक्रम की योजनाएं चाहे कितनी भी अच्छी एवं आकर्षक क्यों न हो यदि अच्छे संगठन का आभाव है तो सफलता की कामना करना निष्फल होगा। इस तरह कुशल एवं प्रभावी संगठन का निर्माण करना बहुत जरूरी रहता है।

 

    1. नियुक्तियाँ (Staffing) :- प्रबंध का प्राथमिक कार्य है कर्मचारियों की नियुक्तियाँ करना है जिसका अर्थ है – संगठन की योजना के अनुसार आवश्यक पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति करना उनको आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान करना।

 

    1. निर्देशन (Directing) :- प्रबंध मूलतः व्यक्तियों से कार्य कराने व करने की कला है। प्रबंध का चौथा महत्वपूर्ण कार्य है उपक्रम को निर्देशन अथवा संचालन प्रदान करना। निर्देशन का अर्थ है – संस्था में विभिन्न नियुक्त व्यक्तियों को यह बताना कि उन्हें क्या करना है, कैसे करना है, कब करना है तथा यह देखता है कि वे व्यक्ति अपना कार्य उसी भांति कर रहे हैं या नहीं। निर्देशन प्रबंध का वह महत्वपूर्ण कार्य है जो संगठित प्रयत्नों को प्रारम्भ करता है।

      निर्देशन के अंतर्गत निम्न चार क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है :

      • पर्यवेक्षण (Supervision)
      • सम्प्रेषण (Communication)
      • नेतृत्व (Leadership)
      • अभिप्रेरणा (Motivation)

 

  1. नियंत्रण (Controlling) :- नियन्त्रण से आशय केवल किए गए कार्य की जाँच करना मात्र ही नहीं है बल्कि ऐसे उपाय करना जिससे उपक्रम के कारोबार को निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु निश्चित योजनाओं के अनुसार चलाया जा सके और यदि उसमें कहीं कोई अंतर आ जाए तो सुधारात्मक कदम उठाया जा सके। नियंत्रण प्रबंध का एक भाग है।

समन्वय (Co-ordination) क्या है ?

समन्वय (Co-ordination) प्रबंध का सार है जो उपक्रम की विभिन्न क्रियाओं में तालमेल बनाये रखता है। यह निर्धारित लक्ष्य पूर्ति हेतु की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं में एकता अथवा तालमेल बनाये रखता है। समन्वय से लोग एक टीम के रूप में कार्य करते हैं, जिससे पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती है तथा संबंधित व्यावसायिक उपक्रम का सफल संचालन सम्भव होता है।

समन्वय के लक्षण अथवा विशेषताएँ :-

  • समन्वय एक सतत प्रक्रिया है।
  • यह प्रबंध का सार है।
  • यह समूह प्रयासों के अनावश्यक अपवव्य को रोकता है।
  • समन्वय स्थापित करने का प्राथमिक कार्य प्रबन्धकों का है।
  • यह क्रियाओं में एकरूपता लता है।

समन्वय वहां जरूरी होता है जहाँ लोगों का एक समूह समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक साथ काम करता है।

सहकारिता क्या है ?

सहकारिता एक स्वैच्छिक प्रकृति की होती है। यह लोगों के एक साथ काम करने की इच्छा से उत्पन्न होती है। यह अनौपचारिक संबंधों से उत्पन्न होती है। किसी भी सामूहिक क्रियाकलाप में बगैर समन्वय के सहकारिता व्यर्थ होती है।

यह समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समूह द्वारा ऐच्छिक रूप में किए गए सामूहिक प्रयासों को व्यक्त करती है।

प्रबन्ध के सिद्धांत का अर्थ क्या है ?

प्रबन्ध के सिद्धांत एक आधारभूत सत्य है और यह सामान्यतः कारण एवं परिणाम में संबंध प्रकट करता है। प्रबन्ध के सिद्धांत के आधार पर प्रबंधक अपने संस्थान के भविष्य की कल्पना कर सकते हैं तथा इन सिंद्धान्तों को ध्यान में रखकर वे इन छोटी-मोटी गलतियों से भी बच सकते हैं।

प्रबन्ध के सिद्धांत सत्य का एक आधारभूत विवरण है जो प्रयोग, अनुसन्धान तथा अभ्यास के व्यावहारिक विश्लेषण द्वारा तैयार होता है तथा यह विभिन्न क्रियाओं का मार्गदर्शन करते हैं।



प्रसिद्ध विद्वान विलियम बी. कोरनेल के अनुसार :- प्रबन्ध के सिद्धांत आधारभूत विवरण या सर्वमान्य सत्य है जो किसी कार्य या विचार का मार्ग-दर्शन करता है।

प्रबन्ध के सिद्धांतों को लागू करने से पूर्व उनके लक्षण एवं प्रकृति को समझना परम आवश्यक है अन्यथा यह अन्धेरे में डण्डा चलाने के समान होगा।



प्रबंध के सिद्धांतों के प्रमुख लक्षण अथवा प्रकृति निम्नलिखित हैं :-

  • गतिशीलता (Dynamic)
  • आधारभूत (Fundamental)
  • सापेक्षिक (Relative)
  • सार्वभौमिक (Universal)
  • मानव व्यवहार से प्रभावित (Affected By Human Behavior)

 

प्रबंध के सिद्धांतों की आवश्यकता तथा महत्व क्या है ?

प्रबंधकों के जीवन में प्रबंध के सिद्धांतों का निम्नलिखित प्रमुख महत्व है :-

    • कार्यकुशलता में वृद्धि (Increases Efficiency ):- प्रबंधन के सिद्धांतों से निश्चित ही प्रबंधकीय कार्यकुशलता में सुधार होता है। जब प्रबंधक को प्रबंध के सिद्धांतों की जानकारी होती है तो वह अधिक अच्छी तरह से संस्था की समस्याओं का समाधान ढूँढ सकता है। इसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण संस्था की कारकुशलता में वृद्धि होती है।

 

    • सही दृष्टिकोण एवं कार्य प्रणाली के विकास में योगदान (Helps To Develop Proper Approach And Working):- प्रबंध के सिद्धांतों कार्यों एवं विचारों के लिए मार्ग-दर्शक तत्वों का कार्य करते हैं। प्रबंध के सिद्धांत से उपयुक्त कार्य-प्रणाली का विकास कर सकते हैं।

 

    • सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति (Fulfills Social Objectives) :- प्रबंध के सिद्धांतों के विकास एवं उपयोग से भी संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है। इससे समाज के लोगों के अधिक संतुष्टि एवं अच्छा जीवन स्तर उपलब्ध होता है। जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति होती है।

 

    • प्रबंधकीय कार्यों का समुचित निष्पादन (Proper Performance Of Managerial Functions) :- प्रबंध के सिद्धांतों के विकास एवं व्यवहार से प्रबन्धकीय कार्यों को ठीक ढंग से पूरा किया जा सकता है।

 

    • जटिल समस्याओं के समाधान में योगदान (Helps In Solving Complex Problems) :- विकसित सिद्धांत व्यावसायिक जगत की जटिल से जटिल समस्याओं के समाधान में योगदान देते हैं। ये व्यावसायिक जटिलताओं में भी सफलता प्राप्त की जा सकती है।

 

  • प्रशिक्षण में सुविधा (Facilities Training) :- प्रबंध के सिद्धांतों का विकास होने पर प्रबंध का व्यवस्थित प्रशिक्षण दिया जा सकता है। प्रबंधकीय शिक्षण या प्रशिक्षण का जो विकास हुआ है, वह प्रबंध के सिद्धांतों के विकास का ही तो परिणाम है।

हेनरी फेयोल द्वारा प्रतिपादित प्रबंध के चौदह सिद्धांत क्या है ?

हेनरी फेयोल द्वारा प्रतिपादित प्रबंध के चौदह सिद्धांत निम्नलिखित है :-

  1. कार्य-विभाजन का सिद्धांत ( Principles Of Division Of Work )
  2. अधिकार तथा उत्तरदायित्व का सिद्धांत ( Principles Of Authority And Responsibility)
  3. अनुशासन का सिद्धांत (Method Of Discipline)
  4. आदेश की एकात्मकता का सिद्धांत ( Principles Of Unity Of Command)
  5. निर्देश की एकात्मकता का सिद्धांत ( Principles Of Unity Of Direction)
  6. व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सामान्य हितों की अधीनता का सिद्धांत ( Principles Of Subordination Of Individual Interest To General)
  7. केन्द्रीकरण तथा विकेन्द्रीकरण का सिद्धांत ( Principles Of Centralization And Decentralization)
  8. सोपान श्रृंखला का सिद्धांत ( Principles Of Scaler Chain)
  9. व्यवस्था अथवा क्रमबद्धता का सिद्धांत ( Principles Of Order)
  10. समता का सिद्धांत (Equity)
  11. कर्मचारियों के कार्य-काल में स्थायित्व ( Principles Of Stability Of Tenure Of Personnel)
  12. पहल क्षमता का सिद्धांत ( Principles Of Initiative)
  13. कर्मचारियों के परिश्रमिक का सिद्धांत ( Principles Of Remuneration Of Personnel)
  14. सहयोग की भावना का सिद्धांत ( Principles Of Esprit Corps)

वैज्ञानिक प्रबंध (Scientific Management) क्या है ?

वैज्ञानिक प्रबंध से आशय किसी कार्य को विशिष्ट ज्ञान सामग्री के आधार पर विभिन्न मानवीय प्रयासों द्वारा पूरा करना है। वैज्ञानिक प्रबंध के जन्मदाता श्री फ्रेडरिक विनस्लो टेलर है।

कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा वैज्ञानिक प्रबंध की दी गयी परिभाषाएँ :-

    • एफ. डब्ल्यू टेलर के अनुसार, वैज्ञानिक प्रबंध यह जानने की कला है कि आप लोगों से यथार्थ में क्या कराना चाहते हैं तथा यह देखने चाहते हैं कि वे उसको सुंदर तथा सस्ते ढंग से करें।

 

    • पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार, वैज्ञानिक प्रबंध कार्य का संगठित अध्ययन है, कार्यों के सरलतम भागों का विश्लेषण है तथा कार्य के प्रत्येक भाग में कर्मचारी के कार्य निष्पादन का विधिवत् सुधार है।

 

    • लारेंस ए. एप्पले के अनुसार, वैज्ञानिक प्रबंध अथवा नियोजित प्रबंध प्रतिदिन के अंगूठे के नियम एवं तीर नहीं तो तुक्का ही सही के विपरीत प्रबंध के उत्तरदायित्वों के निष्पादन का चेतनापूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण है।


इस तरह हम कह सकते है कि वैज्ञानिक प्रबंध सामूहिक प्रयासों की पद्धति एवं संगठित प्रणाली है जो वैज्ञानिक अन्वेषण, विश्लेषण एवं प्रयोगों पर आधारित तथा जिससे सभी पक्षकारों को लाभ होता है।

वैज्ञानिक प्रबंध की विशेषताएं अथवा लक्षण क्या है ?

वैज्ञानिक प्रबंध की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

    1. वैज्ञानिक विश्लेषण (Scientific Analysis) :- किसी भी योजना को कार्यान्वित करने से पूर्व कुशल प्रबंधक उसके विभिन्न अंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं प्रयोग करके देख लेते हैं कि उसकी उपयोगिता तथा उपयुक्तता किस सीमा तक पर्याप्त होगी।

 

    1. नियमों का समूह (Set Of Rules) :- वैज्ञानिक प्रबंध को लागू करने के लिए नियमों के समूह का निर्माण किया जाता है जिन्हें कठोरता से लागू किया जाता है।

 

    1. निश्चित योजना (A Definite Plan) :- वैज्ञानिक प्रबन्ध का सबसे मुख्य लक्षण यह है कि प्रत्येक कार्य को आरम्भ करने से पूर्व निश्चित योजना तैयार की जाती है सारा कार्य उसी योजना के अनुसार ही सम्पन्न होता है।

 

    1. कार्यक्षमता में वृद्धि (Increase In Efficiency ) :- वैज्ञानिक प्रबंध की प्रत्येक योजना में श्रमिकों की कार्यक्षमता का सबसे अधिक ध्यान रखा जाता है।

 

    1. मानसिक क्रांति (Mental Revolution) :- वैज्ञानिक प्रबंध मानसिक क्रांति पर बल देता है अर्थात श्रमिकों तथा प्रबंधकों दोनों को विचारधाराओं में आमूल-चूल परिवर्तन लाने पर बल देता है।

 

    1. परम्परागत प्रबंध का विरोधी (Discards Traditional Management) :- वैज्ञानिक प्रबंध परम्परागत प्रबंध का कटु विरोधी है। उसके स्थान पर नई पद्धतियों को लागु करने पर बल देता है।

 

  1. मितव्ययिता (Economy) :- वैज्ञानिक प्रबंध की आधारशिला ही मितव्ययिता है। इसको लागू करने के लिए उत्पादन के समस्त अनावश्यक तत्वों का विनाश किया जाता है और यह प्रयत्न किया जाता है कि न्यूनतम व्यय पर अधिक से अधिक उत्पादन हो।

वैज्ञानिक प्रबंध के लाभ क्या है ?

निर्माता अथवा उत्पादक की दृष्टि से वैज्ञानिक प्रबंध के लाभ :-

  • उत्पादन व्यय में कमी
  • वस्तु की किस्म में सुधर
  • श्रम-पूंजी के झगड़ों का अंत
  • श्रमिकों से अधिकतम कार्य ले सकना
  • न्यूनतम श्रम-परिव्व्य
  • पूर्ण नियंत्रण

श्रमिकों की दृष्टि से वैज्ञानिक प्रबंध के लाभ :-

  • वेतन में वृद्धि
  • कार्य क्षमता में वृद्धि
  • समय की बचत
  • उच्च जीवन स्तर
  • कार्य का युक्तिपूर्ण वितरण
  • मानसिक क्रांति
  • स्वास्थ्यप्रद एवं शांतिपूर्ण वातावरण

उपभोक्ताओं, समाज तथा राष्ट्र की दृष्टि से वैज्ञानिक प्रबंध के लाभ :-

  • राष्ट्र की आय में वृद्धि
  • उपभोक्ताओं को लाभ
  • पूर्ण औद्योगिक शांति
  • सामाजिक स्तर में वृद्धि

वैज्ञानिक प्रबंध की तकनीकें क्या है ?

वैज्ञानिक प्रबंध की तकनीकें (Techniques Of Scientific Management)

 

वैज्ञानिक प्रबंध की तकनीकी से आशय उन सभी विधियों से है जिनके माध्यम से वैज्ञानिक प्रबंध की प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है।

वैज्ञानिक प्रबंध की प्रमुख तकनीकें निम्नलिखित हैं :-

    • कार्य का वैज्ञानिक अध्ययन (Scientific Study Of Work) : –
    • वैज्ञानिक प्रबंध के अंतर्गत एक संस्था में सम्पन्न की जाने वाली सभी गतिविधियों का अच्छे से अध्ययन किया जाता है, ताकि न्यूनतम प्रयत्नों से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सके। टेलर अकुशलता के घोर विरोधी थे। वे अकुशलता जैसी बीमारी को सदा के लिए उन्मूलन करना चाहते थे।

 

    • इसके लिए उन्होंने निम्नलिखित प्रयोग दिये :-
      1. समय अध्ययन (Time Study)
      2. थकान अध्ययन (Motion Study)
      3. कार्य विधि अध्ययन (Method Study)

 

    • कार्य का वैज्ञानिक अध्ययन (Scientific Study Of Work) : –
    • वैज्ञानिक प्रबंध की दूसरी तकनीकी कार्य का वैज्ञानिक ढंग से नियोजन किया जाना है। नियोजन विभाग वैज्ञानिक प्रबंध का केंद्र है जिसका प्रमुख कार्य उन समस्त कर्मचारियों की आवश्यकताओं को पूरा करना है जो उत्पादन की विभिन्न विधियों में लगे हुए हैं। एक सफल नियोजन में निम्नलिखित कार्यों को सम्मिलित किया जाता है :-
      1. क्रियाओं का कर्म निर्धारित करना
      2. आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराना
      3. समय तालिका तैयार करना
      4. प्रगति रिपोर्ट तैयार करना

 

    • श्रमिकों का वैज्ञानिक ढंग से चुनाव तथा उनकी शिक्षा (Scientific Selection And Training Of Labourers) : –
    • श्री टेलर ने श्रमिकों के चुनाव तथा उनके प्रक्षिशण पर बहुत बल दिया है। इससे कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।



    • कार्य का वैज्ञानिक ढंग से वितरण (Scientific Allotment Of Task ) : –
    • कर्मचारियों को कार्य सौंपते समय उनकी योग्यता तथा कार्यक्षमता का ध्यान रखा जाना चाहिए। जो व्यक्ति जिस कार्य के लिए उपयुक्त हो उसे वैसा ही कार्य दिया जाना चाहिए।



    • प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति (Incentive Wage System ) : –
    • प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति से हमारा अभिप्राय मजदूरी देने के उस पद्धति से है जिसके अपनाने से श्रमिक अधिकाधिक कार्य करने के लिए प्रेरित हो उठे। इस पद्धति के अनुसार प्रमापित समय में अपना कार्य समाप्त करने वाले श्रमिक को ऊँची दर से मजदूरी दी जाती है। इसके विपरीत, जो श्रमिक निर्धारित समय में अपना कार्य समाप्त करने में असमर्थ रहता है, उसे निम्न दर से मजदूरी दी जाती है। इसके अतिरिक्त ठीक प्रकार से काम न करने वाले श्रमिकों को आवश्यक दण्ड भी दिया जाना चाहिए।



    • श्रम संगठन पद्धति (Labour Organisation System ) : –
    • वैज्ञानिक प्रबंध का मुख्य उद्देश्य न्यूनतम व्यय पर अधिकतम लाभ प्राप्त करना है।



  • क्रियात्मक संगठन (Functional Organisation ) : –
  • क्रियात्मक संगठन में प्रबंध को इस प्रकार विभाजित किया जाता है जिससे सहायक अधीक्षक से लेकर नीचे तक के व्यक्तियों को इतने काम कार्य दिये जायें जितने वे सरलता से पूरे कर सकें।

 

समय अध्ययन (Time Study) क्या है ?

समय अध्ययन के अंतगर्त यह देखा जाता है कि सामान्य योग्यता एवं सामान्य बुद्धि वाले सामान्य व्यक्ति को किसी कार्य को सामान्य रूप से करने में कितना समय लगता है। इसी आधार पर किसी कार्य को करने का प्रमापित समय ज्ञात किया जाता है। इस परमपित समय के अंदर प्रत्येक श्रमिक को उक्त कार्य को पूरा करना पड़ता है। इसके आधार पर ही मजदूरी की दर भी निश्चित की जाती है। जो इस प्रमापित समय से कम समय में काम करता है उसे अधिक मजदूरी तथा जो अधिक समय में काम करता है उसे कम मजदूरी दी जाती है।

समय अध्ययन के उद्देश्य (Objective Of Time Study)
    1. किसी कार्य को कुशलतापूर्वक करने का प्रमापित समय निर्धारित करना।

 

    1. समय अध्ययन का मूलभूत उद्देश्य यह ज्ञात करना है कि निश्चित कार्य को करने में कितना समय लगता है।

 

    1. कार्यों की गतियों के अध्ययन में सुविधा लाना।

 

    1. सूचीयन में लगने वाले समय का पता लगाना।

 

    1. जो श्रमिक निर्धारित समय में कार्य पूरा नहीं कर पाते हैं उसकी असमर्थता के कारणों को ज्ञात करना तथा उन्हें दूर करने का प्रयास करना एवं ऐसे श्रमिकों का पारिश्रमिक तय करना आयी।

 

  1. उत्पादन लागत तथा उत्पादन में लगने वाले समय का निर्धारण करना।
समय अध्ययन के लाभ (Advantages Of Time Study)

समय अध्ययन से होने वाले प्रमुख लाभ निम्नलिखित है :-

    1. व्यर्थ की क्रियाएँ नहीं करनी पड़ती हैं है जिसके कारण व्यर्थ में समय नष्ट नहीं होता।

 

    1. यह श्रमिकों की कुशलता की माप करने का सुंदर तरीका है।

 

    1. प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति अपनाई जा सकती है।

 

    1. संस्था की उत्पादन क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।

 

    1. इसमें कार्य का समनाता से विभाजन हो सकता है।

 

    1. समय अध्ययन श्रमिकों को उनके प्रयासों का मूल्यांकन करने का सुअवसर प्रदान करता है।

 

  1. परिणाम की पूर्ण शुद्धता प्राप्त करना सम्भव होता है।
समय अध्ययन की विधि (Procedure Of Time Study)

समय अध्ययन के निम्नलिखित Steps है :-

    1. सबसे पहले उत्पादन की प्रत्येक क्रिया को प्रत्येक छोटी-छोटी क्रियाओं एवं उपक्रियाओं को विभाजित किया जाता है।

 

    1. इसके पश्चात प्रत्येक क्रिया एवं उपक्रिया में लगने वाले समय को स्टॉप वाच की सहायता से ज्ञात करके अंकित किया जाता है।

 

    1. प्रत्येक क्रिया तथा उपक्रिया में लगने वाले समय को उपर्युक्त विधि से ज्ञात करके जोड़ लिया जाता है और इस कार्य में लगने वाला सम्पूर्ण समय ज्ञात हो जाता है।

 

    1. सम्पूर्ण समय में से उस समय को घटा दिया जाता है, जो कि श्रमिक क्रियाओं को बदलने एवं विश्राम आदि के लिए लेते हैं।

 

  1. इस प्रकार अंत में कार्य के निष्पादन का प्रमापित समय ज्ञात कर लिया जाता है।

गति अध्ययन (Motion Study) क्या है ?

कार्य करने की सर्वश्रेष्ठ रीति का पता लगाना गति अध्ययन कहलाता है। गति अध्ययन वह विज्ञान है जिसके द्वारा अनावश्यक अनिर्देशित तथा अकुशल गति से होने वाली क्षति को रोका जा सके।

इस अध्ययन की आधारशिला यह है कि प्रत्येक कार्य को करने में श्रमिक को अपने हाथ-पैर हिलाने-डुलाने पड़ते हैं। शरीर का यह हिलाना-डुलाना जितना अधिक होगा, समय उतना ही अधिक लगेगा तथा थकावट भी उतनी ही जल्दी आयेगी। अतएव वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा काम करने की ऐसी विधि अपनानी चाहिए जिससे शरीर की कम से कम हरकत हो और थकान कम से कम हो। इसका उदाहरण हमें गिलब्रेथ की ईंट जोड़ने की विधि में मिलता है। उन्होंने देखा कि औसतन एक राज को ईंट दीवारे में रखने के लिए 18 बार हरकत करनी पड़ती है। उसने ईंट लगाने के तरीके में सुधार करके इस हरकत को घटाकर 5 और कुछ में तो केवल 2 ही कर दिया।

गति अध्ययन के उद्देश्य (Objectives Of Motion)

गति अध्ययन (Motion Study) के निम्लिखित उद्येश्य है :-

    1. अनावश्यक, अनिर्देशित तथा अकुशल गतियों को समाप्त करना।

 

    1. कार्य करने की सर्वोत्तम विधि का पता लगाना।

 

    1. थकान को काम करना एवं शक्ति व समय की बचत करना।

 

    1. लागत में कमी लाना।

 

गति अध्ययन की विधि (Procedure Of Motion Study )

गति अध्ययन में निम्नलिखित विधि का उपयोग किया जाता है :

    1. सबसे पहले कुछ श्रमिकों का चयन करके उनमें होने वाली हरकतों का विश्लेषण किया जाता है।

 

    1. तत्पश्चात कैमरे अथवा वांच की सहायता से प्रत्येक हरकत में लगने वाला न्यूनतम समय ज्ञात किया जाता है।

 

    1. सभी अनावश्यक त्रुटिपूर्ण धीमी एवं अक्षम्य गतियों को समाप्त कर दिया जाता है।

 

  1. इसके पश्चात प्रत्येक कार्य करने की सर्वोत्तम गतियों तथा उनमें लगने वाला न्यूनतम समय का अभिलेख रखा जाता है।

थकान अध्ययन (Fatigue Study) क्या है ?

श्रमिक उत्पादन का एक सक्रिय साधन है। निरंतर काम करने से एक समय के पश्चात वह थकान अनुभव करने लगता है। इस थकान का उसकी कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अर्थात वह गिर जाती है। थकान अध्ययन का उद्देश्य थकान होने के कारणों का पता लगाना एवं उसे दूर करने के उपाय करना है।

इस संबंध में टेलर ने प्रत्येक क्रिया का विस्तृत अध्ययन करके यह पता लगाया कि थकान कब, क्यों और कैसे होती है तथा उसे किस प्रकार सुधारा जा सकता है।

उचित प्रयोग करने के पश्चात टेलर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि थकान को दो प्रकार से कम किया जा सकता है – एक तो कार्य के बीच में आराम का समय देकर और दूसरे कार्य की उचित मात्रा निश्चित करके। श्रमिक भी इससे स्फूर्ति का अनुभव करता है।

कार्यविधि अध्ययन (Method Study) क्या है ?

कार्यविधि अध्ययन के अन्तर्गत उत्पादन प्रक्रिया का व्यापक अध्ययन किया जाता है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि उत्पादन के सभी संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग किया जा रहा है ताकि लागतों को न्यूनतम किया जा सके।

इसके अंतर्गत उत्पादन की प्रक्रिया को अलग-अलग उप-क्रियाओं में इस प्रकार से विभाजित किया जाता है कि कच्चे एवं अर्द्ध-निर्मित माल के आवागमन में कम से कम दूरी एवं समय लगे।

आवश्यक औजार एवं साज-सज्जा को उठाने में कम-से-कम समय और कम कर्मचारी लगें। निरीक्षण करने और माल को एकत्रित करने आदि में भी आवश्यक एवं सुधारात्मक कदम उठाये जाते हैं।

कार्यविधि का व्यापक अध्ययन एवं विश्लेषण करने के पश्चात कुछ क्रियाओं को, जो अनावश्यक हों, पूर्णतया समाप्त कर दिया जाता है और कुछ क्रियाओं को आपस में मिला दिया जाता है। इसके लिए एक प्रक्रिया चार्ट का सहारा लिया जाता है। यंत्रों, औजारों एवं श्रमिकों की उचित व्यवस्था की जाती है ताकि उत्पादन का प्रवाह निरंतर बिना किसी बाधा के चलता है।

मानसिक क्रांति (Mental Revolution) क्या है ?

मानसिक क्रांति का आधारभूत सिद्धांत यह है कि श्रम तथा पूंजी में किसी प्रकार का विरोध नहीं होता। संघर्ष के स्थान पर एकता कायम होती है। बिना मानसिक क्रांति के कोई भी योजना, चाहे वह वैज्ञानिक प्रबंध की हो अथवा अन्य कोई सफलतापूर्वक कार्यान्वित नहीं की जा सकती।

वैज्ञानिक प्रबंध पूंजी तथा श्रम में सामंजस्य स्थापित करना चाहता है जिसके द्वारा इन दोनों के बीच के अंतर को कम किया जा सके तथा दोनों यह समझें कि उनका एक-दूसरे के बिना निर्वाह नहीं हो सकता। इसके लिए पूँजीपत को श्रमिकों के कल्याण की ओर विशेष रूप से जागरूक रहना चाहिए तथा प्रयत्न करना चाहिए कि श्रमिक उस कारखाने को अपना ही कारखाना समझे तथा उसके विकास में अपना ही विकास अनुभव करें। श्रमिकों को भी ऐसा ही मार्ग अपनाना चाहिए जिससे कारखाना में किसी प्रकार की कटुता उत्पन्न न हो।

प्रसिद्ध विद्वान श्री हण्ट के अनुसार – सुंदर तथा नवीनतम औजारों तथा मशीनों का प्रयोग तब ही सुखद परिणाम दे सकता है जब पूंजीपति तथा श्रमिकों के मानवीय संबंध सुदृढ़ हों तथा उनके बीच की बढ़ती हुई विषमता को दूर किया जा सके।

वैज्ञानिक प्रबंध के दोष अथवा अवगुण क्या है ?

वैज्ञानिक प्रबंध का श्रमिकों द्वारा विरोध निम्नलिखित है :
    • वैज्ञानिक प्रबंध अपनाने पर श्रमिकों से अधिक कार्य करवाया जाता है, जिससे उनके स्वास्थ्य पर विषम प्रभाव पड़ता है।

 

    • वैज्ञानिक प्रबंध में श्रमिकों को बड़े हो कठोर नियंत्रण के अंतगर्त कार्य करना पड़ता है।

 

    • श्रमिक वर्ग को वेतन उस अनुपात में नहीं मिलता जिस अनुपात में उत्पादन में वृद्धि होती है। अधिकांश भाग निर्माताओं की जेबों में चला जाता है।

 

    • प्रत्येक श्रमिक स्वाभाविक रूप से ही स्वतंत्रतापूर्वक काम करना चाहता है। किन्तु वैज्ञानिक प्रबंध में इसके लिए कोई स्थान नहीं है।

 

    • वैज्ञानिक प्रबंध में श्रमिकों की स्वतंत्रता का हनन होने के कारण उन्हें एक मशीन की तरह कार्य करना पड़ता है। निरंतर एक ही प्रकार का कार्य करते रहने के कारण उन्हें कार्य के प्रति अरुचि उत्पन्न होने लगती है।

 

    • श्रम संघों की दृष्टि से यह प्रणाली हानिकारक है क्यूंकि यह श्रमिकों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करती है।

 

    • वैज्ञानिक प्रबंध के द्वारा श्रमिकों का अनेक प्रकार से शोषण किया जाता है। निर्माताओं की मनमानी, पक्षपात, तालाबंदी, मतभेद पैदा करो और राज करो का बोलबाला हो जाता है।

 

निर्माताओं अथवा उत्पादकों द्वारा वैज्ञानिक प्रबंध का निम्नलिखित विरोध है :
    • यह प्रणाली अत्यंत खर्चीली है।

 

    • निर्माताओं की स्वतंत्रता का हनन हो जाता है, वे विशेषज्ञों के हाथ की कठपुतली हो जाते हैं और वे जिधर घुमाते हैं, उधर घूमना पड़ता हैं।

 

    • कारखाना एक कारखाना न रहकर एक प्रयोगशाला बन जाता है।

 

    • मंदी के समय जब उत्पादन शिथिल हो जाता और लाभ कम हो जाते हैं तो उस समय वैज्ञानिक प्रबंध के अनुसार योजना एवं विकास विभाग तथा उसके अधिकारों पर होने वाला व्यय भारस्वरूप हो जाता है।

 

  • संस्था में अनेक निरीक्षकों तथा विशेषज्ञों के होने के कारण उनके कार्यों में समन्वय स्थापित करना कठिन हो जाता है।

नियोजन (Planning) क्या है ?

नियोजन प्रबंध का प्रमुख एवं प्राथमिक कार्य है।

नियोजन में इस बात का निर्णय करना कि क्या करना है, कहाँ करना है, कब करना है, कैसे करना है और किस व्यक्ति द्वारा किया जाना है, शामिल किया जाता है। तो इस तरह हम कह सकते है नियोजन का मतलब भविष्य के बारे में अनुमान लगाना है।

प्रबंध की प्रक्रिया नियोजन से प्रारम्भ होती है तथा नियोजन पर ही समाप्त मानी जाती है। किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके बारे में सोच-विचार कर एक योजना तैयार करके और उसी के आधार पर कार्य करने से उस कार्य में अधिक सफलता मिलने की संभावना होती है। बिना योजना बनाये किसी कार्य को करने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है।

इस तरह व्यवसाय के प्रबंध में नियोजन का काफी महत्व है।

प्रसिद्ध विद्वान ऊर्विक के अनुसार नियोजन मूल रूप से कार्यों को सुव्यवस्थित ढंग से करने, कार्य को करने से पूर्व उस पर मनन करने तथा कार्यों का अनुमानों की तुलना में तथ्यों के आधार पर करने का प्राथमिक रूप में एक मानसिक चिन्तन है।

प्रसिद्ध विद्वान श्री शील्ड के अनुसार योजना विभाग प्रबंध का हृदय है जिसका एकमात्र कार्य उत्पादन के विभिन्न पहलुओं में कार्यरत कर्मचारियों की आवश्यकताओं को पूरा करना है।

प्रसिद्ध विद्वान जार्ज आर. टैरी के अनुसार नियोजन भविष्य के गर्भ में देखने की विधि या कला है, यह भविष्य की आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाना है, जिससे निर्धारित लक्ष्यों की दृष्टि से किए जाने वाले वर्तमान प्रयासों को उनके अनुरूप बनाया जा सके।

इस प्रकार नियोजन तथ्यों पर आधारित भविष्य के कार्यक्रम का एक उद्देश्यपूर्ण मानसिक चिन्तन है।

नियोजन के विशेषताएं अथवा लक्षण अथवा प्रकृति क्या है ?

नियोजन (Planning) के प्रमुख विशेषताएं (Characteristics)अथवा लक्षण (Nature) निम्नलिखित है :-

    1. नियोजन का कार्य निर्धारित लक्ष्य एवं उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है।



    1. नियोजन का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण भविष्य के बारे में देखना अर्थात पूर्वानुमान लगाना है।



    1. ऐक्यता भी नियोजन का एक आवश्यक लक्षण है।

    2. नियोजन का चतुर्थ महत्वपूर्ण लक्षण विभिन्न वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम क्रिया का चयन किया जाना है।



    1. नियोजन का पांचवां लक्षण इसकी सर्वव्यापकता का होना है।



    1. नियोजन का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह भी है कि इसमें निरंतरता एवं लोच रहनी चाहिए ताकि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप इसमें आवश्यक परिवर्तन किया जा सके।



    1. नियोजन प्राथमिक रूप से बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया है।



    1. नियोजन का व्यावहारिक होना नितांत आवश्यक है।



    1. नियोजन में समय तत्व अधिक महत्व रखता है।



    1. नियोजन एक मार्गदर्शक का कार्य करता है।



  1. नियोजन प्रबंधकों की कार्यकुशलता का आधार है।

नियोजन के उद्देश्य क्या है ?

    1. नियोजन के माध्यम से संस्था की भावी गतिविधियों में अनिश्चितता के स्थान पर निश्चितता लाने का प्रयास किया जाता है।



    1. नियोजन द्वारा किसी कार्य विशेष की भावी रुपरेखा बनाकर उसे एक ऐसी विशेष दिशा प्रदान करने का प्रयत्न किया जाता है जोकि इसके आभाव में लगभग असम्भव प्रतीत होती है।



    1. नियोजन द्वारा उपक्रम की विभिन्न गतिविधियों में साम्य एवं समन्वय स्थापित किया जाता है।



    1. उपक्रम की भावी गतिविधियों की योजना के बन जाने से प्रबंध का ध्यान उसे कार्यान्वित करने की ओर केंद्रित हो जाता है, जिसके फलस्वरूप क्रियाओं में अपव्यय के स्थान पर मितव्ययता आती है।



    1. पूर्वानुमान नियोजन का सार है। नियोजन का उद्देश्य भविष्य के संबंध में पूर्वानुमान लगाना है।



    1. नियोजन का एक महत्वपूर्ण उदेश्य निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना है।



    1. नियोजन का एक मूलभूत उद्देश्य उपक्रम की कुशलता में वृद्धि करना है।



    1. नियोजन उपक्रम की भावी जोखिम एवं संभावनाओं को परखता है एवं भावी जोखिम में कमी लाता है।



  1. नियोजन का अंतिम उदेश्य स्वस्थ मोर्चाबन्दी को विकसित करना है।

नियोजन के प्रकार क्या है ?

नियोजन के मुख्य प्रकार निम्नलिखित है :

समय के आधार पर योजनाओं को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है :-

  • अल्पकालीन योजना (Shortern Plan) :-
    अल्पकालीन योजना से आशय छोटी अवधि के लिए बनाई गई योजना से है। इन अल्पकालीन योजनाओं में तत्कालीन समस्याओं के निवारण पर अधिक बल दिया जाता है।
  • दीर्घकालीन योजना (Long Plan) :-
    दीर्घकालीन योजना से आशय लम्बे समय के लिए बनाई गई योजना से है। एक उपक्रम का जीवन बहुत लम्बा होता हैं और कुछ उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को थोड़ी अवधि में प्राप्त करना भी सम्भव नहीं है। अतः इनकों प्राप्त करने के लिए दीर्घकालीन योजनाएं तैयार की जाती हैं।

प्रबंध के स्तर के आधार पर योजनाओं को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया गया है :-

  • उच्चस्तरीय योजना :- यह योजना उच्च प्रबंधकों द्वारा तैयार की जाती है और इसके अंदर सम्पूर्ण उपक्रम की सामान्य नीति, उद्देश्य, लक्ष्य बजार आदि तैयार किये जाते हैं।
  • मध्यस्तरीय योजना :- यह मध्यस्तरीय प्रबंधकों द्वारा तैयार की जाती है। ये योजनाएं युक्तियों के रूप में तैयार की जाती हैं जिनकी द्वारा उपक्रम के उदेश्यों एवं लक्ष्यों की पूर्ति करना सम्भव होता है।
  • निम्नस्तरीय योजना :- यह योजना पर्यवेक्षकों द्वारा तैयार की जाती है तथा उपक्रम के कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं से संबंध रखती है।

उपयोग के आधार पर योजनाओं को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है :-

  • स्थायी अथवा बार-बार उपयोग की योजनाएं (Standing or Repeated Use Plans) :- भिन्न-भिन्न स्तरों पर कार्य करने वाले अधिकारीयों के मार्गदर्शन हेतु स्थायी रूप से तथा बार-बार काम में लाने के लिए इन्हें तैयार किया जाता है।
  • एकल उपयोग योजनाएं (Single Use Plans) :-
    एकल उपयोग योजनाएं किसी विशेष परिस्थिति का समाधान करने हेतु तत्कालीन उपयोग के लिए बनाई जाती हैं। जैसे ही उक्त विशेष परिस्थिति का समाधान हो जाता है, एकल योजना का अंत हो जाता है। एक बार उपयोग करने के पश्चात इन योजनाओं का कोई महत्व नहीं रहता और विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार इन्हें बार-बार बनाया जाता है।

संगठन(Organisation) का अर्थ क्या है ?

उपक्रम द्वारा निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु संगठन एक ओर तो विभिन्न कार्यों एवं क्रियाओं में
सामंजस्य स्थापित करने की प्रक्रिया है और दूसरी ओर कार्यरत व्यक्तियों के बीच मधुर संबंध स्थापित करने की कला है।

जब कभी दो से अधिक व्यक्ति किसिस उपक्रम में साथ-साथ कार्य करते हैं तो इन व्यक्तियों के मध्य कार्य को बाँटने की आवश्यकता होती है।

इसी का नाम संगठन है और यहीं से संगठन की क्रिया का शुभारम्भ होता है।

संगठन प्रबंध तंत्र है जिसके माध्यम से प्रबंधक अपना कार्य सम्पन्न करता है।

प्रसिद्ध विद्वान जी. ई. मिलवर्ड के अनुसार , कार्य और कर्मचारी समुदाय का मधुर संबंध संगठन कहलाता है।

प्रसिद्ध विद्वान डेविस के अनुसार, संगठन मूलतः व्यक्तियों का समूह है जो कि नेता के निर्देशन में सामान्यतः उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सहयोग करते हैं।

प्रसिद्ध विद्वान ऊर्विक के अनुसार, किसिस कार्य को सम्पादित करने के लिए किन-किन क्रियाओं को किया जाये, इसका निर्धारण करना एवं व्यक्तियों के बीच उन क्रियाओं के वितरण की व्यवस्था करना ही संगठन है।

इस तरह आधुनिक युग में अनेक घटकों के सहयोग से उत्पादन किया जाता है और इन विभिन्न घटकों में प्रभावी सामंजस्य स्थापित करना ही संगठन (Organisation) है।

संगठन के विशेषताएं अथवा लक्षण अथवा प्रकृति क्या है ?

संगठन के विशेषताएं अथवा लक्षण निम्नलिखित हैं :-

    1. संगठन व्यक्तियों का समूह है जो निर्धारित उदेश्यों की प्राप्ति के लिए मिलकर काम करते हैं। बिना व्यक्तियों के समूह संगठन का कोई अर्थ नहीं है।

 

    1. संगठन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतगर्त संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए गतिविधियों की पहचान व समूहीकरण किया जाता है।

 

    1. संगठन एक ऐसा साधन है जिसके अंतगर्त संस्था की कार्य-विधि तथा कार्यों की इस तरह व्याख्या की जाती है जिससे कि संस्था के उद्देश्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त किया जा सके।

 

    1. संगठन प्रबंध का एक महत्वपूर्ण कार्य है।

 

    1. संगठन एक ढांचा है जिसमें कार्यरत कर्मचारियों एवं अधिकारीयों के पारस्परिक संबंधों का विश्लेषण किया जाता है।

 

    1. संगठन एक एकीकृत प्रणाली है जिसका निर्माण कई विभागों, उप-विभागों तथा उनके बीच की क्रियाओं से होता है।

 

    1. संगठन प्रबंध का एक तंत्र है।

 

    1. संगठन का उद्देश्य मानवीय प्रयासों में कुशलता, क्रमबद्धता तथा समन्वय लाना है।

 

    1. संगठन का निर्माण व्यावसायिक तथा गैर-व्यावसायिक सभी प्रकार की संस्थाओं में किया जाता है।

 

  1. संगठन के अंतगर्त नियमों, उप नियमों, आदेशों व निर्देशों को संस्था में काम करने वाले सभी कर्मचारियों को सम्प्रेषित किया जाता है।

संगठन की महत्ता अथवा महत्व क्या है ?

संगठन की महत्व अथवा आवश्यकता निम्नलिखित है :-

    1. प्रबंध सुचारु रूप से चलता है, यदि संगठन की स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई हो, विधिवत हो, निश्चित हो तथा प्रबंधकों की सहायतार्थ उपयुक्त क्रियात्मक समूह उपलब्ध किया गया हो।

 

    1. संगठन एक साधन है जिसके माध्यम से विशिष्टीकरण सम्भव होता है। इसके अंतगर्त विभिन्न व्यक्तियों में कार्य का विभाजन उनकी योग्यतानुसार किया जाता है।

 

    1. संगठन उपक्रम की विभिन्न क्रियाओं को आनुपातिक एवं सन्तुलित महत्व प्रदान करता है।

 

    1. सवस्थ संगठन एक ऐसे ढांचे का निर्माण करता है जिसके अंतगर्त संबंधित उपक्रम का स्वतः ही विकास होता रहता है।

 

    1. स्वस्थ संगठन समन्वय को सुविधाजनक बनाता है।

 

    1. संगठन कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करता है।

 

    1. संगठन किसी उपक्रम के विस्तार में पर्याप्त सहायता प्रदान करता है। बिना कुशल संगठन के कोई भी उपक्रम दीर्घकाल तक जीवित नहीं रह सकता है।

 

    1. संगठन कर्मचारियों की मनोबल में भी वृद्धि करता है। प्रत्येक व्यक्ति के कार्य एवं अधिकार निश्चित होने से उनकों अपने अस्तित्व का ज्ञान हो जाता है।

 

  1. यह स्वतंत्र विचारधारा एवं प्रेरणा को प्रोत्साहन देता है।

संगठन प्रक्रिया के अंतर्गत उठाये जाने वाले कदम क्या है ?

संगठन प्रक्रिया के अंतर्गत उठाये जाने वाले कदम निम्नलिखित है :-

    1. संगठन की प्रक्रिया का प्रारम्भ संस्था के उद्येश्यों एवं लक्ष्यों के निर्धारण से ही होता है।

 

    1. उपक्रम के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का निर्धारण होने के बाद संगठन का दूसरा कदम उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जाने वाली क्रियाओं का निर्धारण करना है।

 

    1. संगठन का तीसरा कदम है क्रियाओं का श्रेणीबद्ध किया जाना। इसके अंतगर्त समान प्रकार की क्रियाओं अथवा एक-दूसरे से संबंधित क्रियाओं का विभागों अथवा क्षेत्रों में विभाजन किया जाता है।

 

    1. क्रियाओं का श्रेणीयन पूरा हो जाने के उपरांत उनका आबंटन विभिन्न व्यक्तियों में उनकी योग्यता एवं रूचि के अनुसार किया जाता है।

 

    1. उपयुक्त कर्मचारियों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार काम सौंप देने के पश्चात उन्हें अपने कार्य का सही ढंग से निष्पादन करने के लिए उनकी अधिकार सत्ता, कर्तव्यों एवं उद्देश्य की स्पष्ट व्याख्या की जाती है।

 

    1. प्रत्येक कर्मचारी को आवश्यक अधिकार सौंपा जाते हैं ताकि वह अपना उत्तरदायित्व निभा सके ताकि वह अपना उत्तरदायित्व निभा सके।

 

    1. कर्मचारियों को अधिकार-सत्ता कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के सौंपे जाने के पश्चात ही संगठन प्रक्रिया की समाप्ति नहीं हो जाती है। मानवीय सांसदों का अनुकूलतम उपयोग करने के लिए उन्हें कार्य के अनुसार भौतिक संसाधनों तथा कार्य करने का उपयुक्त पर्यावरण भी उपलब्ध करना परम् आवश्यक है।

 

  1. किसी उपक्रम में संगठन की स्थापना की दिशा में उठाया जाने वाला अंतिम कदम विभिन्न विभागों, उप-विभागों, समूहों एवं व्यक्तियों की क्रियाओं के मध्य समन्वय, संतुलन एवं संबंधों की स्थापना किया जाना है।

संगठन कितने प्रकार के होते है ?

संगठन को निम्नलिखित दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है :-

1) औपचारिक संगठन (Formal Organisation)

औपचारिक संगठन से आशय एक ऐसे संगठन से है जिसमें प्रबंध के प्रत्येक स्तर पर अधिकारीयों के अधिकारों, कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्व की स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी जाती है।

ऐसे संगठन में सत्ता का भारर्पण ऊपर से नीचे की ओर किया जाता है तथा संगठन-संरचना का निर्माण संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

औपचारिक संगठन संस्था के प्रत्येक व्यक्ति को निश्चित विधि से कार्य करने, नियमों का पालन करने, मिलकर कार्य करने तथा पदानुसार एक-दूसरे के साथ व्यवहार एवं सम्मान करने के लिए बाध्य करता है।

प्रसिद्ध विद्वान चेस्टर आई. बर्नाड के अनुसार :-
जब किसी संगठन के दो या दो से अधिक व्यक्तियों की क्रियाओं को किसी निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चेतनापूर्वक समन्वित किया जाता है तो ऐसे संगठन औपचारिक संगठन कहलाता है।

औपचारिक संगठन के लक्षण अथवा विशेषताएं निम्नलिखित है :-

  • औपचारिक संगठन की स्थापना स्वेच्छा से चेतनापूर्वक निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए की जाती है।
  • इसमें प्रबंध के प्रत्येक स्तर पर अधिकारीयों के अधिकारों, कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की स्पष्ट रूप में व्याख्या की जाती है एवं उनकी सीमाएं निर्धारित रहती है।
  • इसमें सत्ता का भारर्पण ऊपर से नीचे की ओर होता है।
  • इसमें आदेश के एकता का पालन किया जाता है।
  • इसमें संगठन चार्टों का उपयोग किया जाता है।
  • इसमें सभी व्यक्तियों आपसे में मिलजुलकर काम करते हैं।
  • ऐसे संगठन में निश्चित प्रणालियों आदेशों, नीतियों, नियमों, पद्धतियों एवं संचार व्यवस्था के अधीन कार्य होता है।

 

2) अनौपचारिक संगठन (Informal Organisation)

अनौपचारिक संगठन औपचारिक संगठन के ठीक विपरीत है।

संस्था में औपचारिक रूप से कार्य करते हुए व्यक्तियों के मध्य जब अनौपचारिक सामाजिक संबंध स्थापित हो जाते हैं तो इन संबंधों के कारण अनौपचारिक संगठन का जन्म होता है।

प्रसिद्ध विद्वान प्रो. कीथ डेविस के अनुसार :-
अनौपचारिक संगठन व्यक्तिगत एवं सामाजिक संबंधों का ऐसा जाल है जिसे स्थापित करने के लिए किसी औपचारिक संगठन की स्थापना की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

इस तरह अनौपचारिक संगठन मानवीय अंतर्क्रियाओं का वह समूह है जो स्वतः स्वाभाविक तौर से लम्बे समय तक साथ रहने से उत्पन्न हो जाता है।

अनौपचारिक संगठन सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थापित होते हैं।

अनौपचारिक संगठन के लक्षण अथवा विशेषताएं निम्नलिखित है :-

  • अनौपचारिक संगठन का निर्माण स्वतः अर्थात अपने आप होता है।
  • ये समाजिक संगठन होते हैं जिनकी स्थापना व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की जाती है।
  • अनौपचारिक संगठन का निर्माणों सामाजिक समूहों के रीति-रिवाजों, धर्मों जातियों, भाषाओँ, क्षेत्रों, स्वभावों, विचारों, पारस्परिक संबंधों, आदतों तथा लम्बे समय तक आपस में मिलते-जुलते रहने के कारण होता है।
  • अनौपचारिक संगठन सम्पूर्ण संगठन का आंतरिक भाग है।
  • इनके अपने नियम, प्रणालियों। पद्धतियों एवं परम्पराएं होती हैं जिनका ये पालन करते हैं किन्तु ये नियम, पद्धतियां एवं परम्पराएं लिखित नहीं होती हैं किन्तु फिर भी इनका पालन होता है।
  • प्रबंध के सभी स्तरों पर अनौपचारिक संगठन विद्यमान रहते हैं।
  • अनौपचारिक संगठन पदों की क्रमबद्धता से मुक्त होते हैं।
  • अनौपचारिक संगठन विभिन्न प्रकार के हो सकते है, जैसे पारिवारिक, स्वाभाविकttha संगठित।

भारार्पण(Delegation) क्या होता है ?

भारार्पण (Delegation) से आशय कार्य-भार के सौंपे जाने से है।

एकाकी व्यक्ति केवल एक मानव-शक्ति का निर्माण करता है।

जहाँ पर किसी व्यक्ति का कार्य-भार उसकी क्षमता से बाहर बढ़ जाता है तो वह अन्य व्यक्तियों को अपने अतिरिक्त कार्य-भार्य सौंप देता है।

और इसे ही भारार्पण अथवा प्रत्यायुक्ति कहते हैं।

भारार्पण एक साधन है जिसके माध्यम से एक उच्च अधिकारी दूसरे अधीनस्थ अधिकारीयों के साथ अपने प्रबंधकीय दायित्व में हिस्सा बंटाता है।

जिस प्रकार अधिकार प्रबंध के कार्य की कुंजी है, उसी प्रकार भारार्पण संगठन की कुंजी है।

कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा भारार्पण की दी गई परिभाषाएँ

प्रो थियो हैमन के अनुसार , भारार्पण का आशय केवल अधीनस्थों को निर्दिष्ट सीमाओं के अंतगर्त कार्य करने का अधिकार प्रदान किये जाने से है।

 

ई. एफ. एल ब्रेच के अनुसार , संक्षेप में भारार्पण का आशय है प्रबंध प्रक्रिया के चार तत्वों में से प्रत्येक का एक अंश दूसरों को हस्तांतरित करता है।

 

एफ जी. मुरे के अनुसार , भारार्पण से अभिप्राय है दूसरे लोगों को कार्य सौंपना तथा उसे करने हेतु अधिकार प्रदान करना।

 

भारार्पण के लक्षण अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित है :-

 

    • भारार्पण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा कुल भार का भाग व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों को सौंपा जाता है।

 

    • भारार्पण ऊपर से नीचे की ओर होता है।

 

    • भारार्पण का आशय विकरणद्रीकरण कदापि नहीं होता है।

 

    • भारार्पण एक से अधिक प्रकार का होता है।

 

    • भारार्पण असहयोग न होकर सहयोग प्राप्त करने की प्रक्रिया है।

 

भारार्पण संगठन के कार्य का एक महत्वपूर्ण अंग है क्योंकि यह सदस्यों के मध्य अधिकारों का समन्वय स्थापित करता है तथा कार्य का निष्पादन सम्भव बनाता है।

 

भारार्पण के प्रमुख लाभ अथवा आवश्यकता अथवा महत्व निम्नलिखित है :-

    • भारार्पण के माध्यम से एक प्रशासनिक अधिकारी ऐसे कार्यों से मुक्त हो जाता है छोटी किस्म के हैं।

 

    • भारार्पण अधीनस्थों को इस बात का सुअवसर प्रदान करता हैं कि वे अपने पदों का क्षेत्र समझने की शक्ति तथा क्षमता का विकास करें।

 

    • भारार्पण प्रभावी संगठन की आधारशिला है।

 

    • भारार्पण के होने से निर्णयन का कार्य निम्न-स्तर तक सम्पन्न होता है।

 

    • भारार्पण अधीनस्थों को प्रशिक्षण प्रदान करने का कार्य करता है।

 

  • भारार्पण अभिप्रेरणा का साधन है।

विकेंद्रीकरण(Decentralisation) क्या है ?

विकेंद्रीकरण(Decentralisation) भारर्पण का ही एक विकसित रूप है। जब किसी उच्च अधिकारी द्वारा अधीनस्थ कर्मचारी को अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में अधिकारों का भारार्पण किया जाता है तो वह विकेंद्रीकरण कहलाता है।

अतः विकेंद्रीकरण का क्षेत्र भारार्पण की तुलना में अधिक व्यापक होता है।

ई. एफ. एल. ब्रेच के अनुसार, विकेंद्रीकरण भारार्पण के फलस्वरूप मिलने वाले दायित्वों का आकर होता है।

हेनरी फेयोल के अनुसार , अधीनस्थों की भूमिका के महत्व को बढ़ाने के लिए जो भी किया जाय, वह सभी विकेंद्रीकरण के अंतगर्त आता है।

विकेंद्रीकरण के लक्षण निम्नलिखित है :-

  • भारार्पण विकेंद्रीकरण का प्रथम चरण है।
  • विकेंद्रीकरण अधीनस्थों की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाता है।
  • यह संगठन में ऊपर से नीचे अर्थात सम्पूर्ण संगठन में लागू होने वाली प्रक्रिया है।
  • विकेंद्रीकरण प्रबंध की एक एक विधि है जो कि सत्ता का वितरण करती है।
  • निर्णयन प्रक्रिया में अधीनस्थों को भी भागीदारी मिलती है।

विकेंद्रीकरण का महत्व अथवा लाभ निम्नलिखित है :-

    • विकेंद्रीकरण का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसके माध्यम से उच्च अधिकारीयों के कार्यभार में पर्याप्त कमी हो जाती है।

 

    • चूँकि विकेंद्रीकरण से युवा अधिकारीयों को स्वतंत्र निर्णय लेने का अवसर प्राओत होता है, अतः उनमें उत्साह और प्रेरणा की सृष्टि होती हैं तथा वे उपक्रम के कार्यों में अधिक दिलचस्पी लेने लगते है।

 

    • संदेशवाहक का कार्य सुविधाजनक हो जाता है।

 

    • विकेंद्रीकरण में विविधीकरण की पर्याप्त सुविधा रहती है।

 

  • नियंत्रण को प्रभावी बनाने में सहायता मिलती है।

प्रबंध में अधिकार का क्या मतलब होता है ?

अधिकार दूसरों को आदेश देने की शक्ति है। यह उपक्रम अथवा विभागीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, शक्ति प्राप्तकर्ता के निर्देशानुसार कार्य करने अथवा न करने का आदेश है।

दूसरे शब्दों में हम ऐसे भी कह सकते हैं कि अधिकार से आशय किसी व्यक्ति को प्राप्त उस वैधानिक शक्ति से है जिसके आधार पर वह दूसरों को कार्य के निष्पादन के संबंध में आदेश देता है तथा उनसे कार्य लेता है।

इस तरह संगठन के अंतर्गत उद्देश्यों एवं लक्षयों को प्राप्त करने के लिए संगठन के अंतर्गत कार्य करने की गतिविधियां का मार्गदशन करने तथा उससे कार्य लेने के लिए आदेश देने हेतु जो प्राप्त शक्ति रहती है व्ही अधिकार के नाम से जाना जाता है।

 

प्रसिद्ध विद्वान थियो हैमन के अनुसार :- अधिकार वह उचित कानूनी शक्ति है जिसे धारण करने वाला व्यक्ति अधीनस्थ व्यक्ति से कुछ करने अथवा करने से विरत रहने के लिए कह सकता है और यदि वह इन निर्देशों का अनुसरण न करे तो प्रबंधक इस स्थिति में होता है कि आवश्यकता होने पर अनुशासन की कार्यवाही कर सके।

 

अधिकार की प्रमुख लक्षण निम्नलिखित है :-

  • अधिकारों का भारार्पण किया जा सकता है।
  • अधिकार सदैव उच्च अधिकारी से संबंधित होते हैं।
  • अधिकार अन्य लोगों से काम कराने की शक्ति।
  • अधिकारों का परवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है।

प्रबंध में उत्तरदायित्व का क्या मतलब होता है ?

उत्तरदायित्व से आशय कार्य अथवा कर्त्तव्य का पालन करने से है। यह एक प्रकार से आबंधन है जिसे पूरा करना संबंधित व्यक्ति का कर्तव्य होता है।

अतएव अपने उच्च-अधिकारी के आदेशानुसार कार्य करने के कर्तव्य को ही उत्तरदायित्व कहते हैं।

प्रसिद्ध विद्वान कूण्टज तथा ओ डोलैल के शब्दों में, प्रबंध साहित्य में उत्तरदायित्व सबसे अधिक भ्रान्तिजनक शब्द है।

 

उत्तरदायित्व की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है :-

  • उत्तरदायित्व का भारार्पण नहीं किया जा सकता है।
  • उत्तरदायित्व अधीनस्थों से संबंधित होते हैं।
  • उत्तरदायित्व का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है।
  • उत्तरदायित्व किसी कार्य को करने का बंधन है।

इस तरह उत्तरदायित्व कार्य निष्पादन हेतु एक आबन्धन है जो कि एक अधिकारी का होता है और किसी भी अधिकारी को यह अनुमति नहीं दी जा सकती कि वह उसे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को सौंपकर अपने उत्तरदायित्व से बच सके।

उत्तरदायित्व का प्रत्यायोजन करना सम्भव नहीं है।

हाँ एक प्रबंधक अपना उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए अपने अधीनस्थ की सहयता ले सकता है तथा अपने अधिकारों का कुछ भाग सौंप सकता है किन्तु उसका उत्तरदायित्व ज्यों का त्यों बना रहता है, उसमें किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं होती।

इस प्रकार उत्तरदायित्व से आशय किसी व्यक्ति द्वारा अपने कर्तव्यों के निभाने के बंधन से है।

नियुक्तिकरण की विशेषताएं क्या है ?

नियुक्तिकरण की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं है :-

 

    • यह सम्पूर्ण प्रबंध प्रणाली की एक उप-प्रणाली है।

 

    • प्रबंध के अन्य कार्यों की भांति नियुक्तिकरण भी एक दायित्व है जिसे प्रबंध को निरंतर सम्पन्न करना पड़ता है।

 

    • नियुक्तिकरण मूलभूत रूप में लोगों अथवा व्यक्तियों से संबंध रखती है, न कि वस्तुओं से।

 

    • नियुक्तिकरण न केवल वर्तमान रिक्त पदों की भर्ती हेतु की जाती है अपितु भावी पदों की पूर्ति हेतु भी की जाती है।

 

  • नियुक्तिकरण सभी प्रबंधकीय स्तरों अर्थात उच्चतम स्तर, मध्यम स्तर तथा निम्नस्तर पर आवश्यक है।

 

इस तरह से कर्मचारी नियुक्ति प्रबंध का एक मुख्य कार्य है एवं इसके अंतगर्त संगठन में स्थापित विभिन्न पदों पर व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती है और इससे भी जरूरी बात यह है कि उन्हें पदों पर एक लम्बे समय तक बनाये रखने के लिए प्रयास किये जाते हैं।

नियुक्तिकरण का महत्व क्या है ?

नियुक्तिकरण प्रबंध का एक महत्वपूर्ण कार्य एवं उत्तरदायित्व है जो संस्था के कार्य संचालन के लिए पर्याप्त संख्या में प्रबंधकीय कर्मचारियों एवं अन्य कर्मचारियों को उपलब्ध करने, उनके विकास करने तथा उनकों संस्था में बनाए रखने से संबंधित है।

नियुक्तिकरण की महत्व और आवश्यकता निम्नलिखित है :-

    • उत्पादन के समस्त संसाधनों में केवल मानव संसाधन है तथा शेष सभी निष्क्रिय संसाधन हैं। इन समस्त निष्क्रिय संसाधनों का अधिकतम एवं कुशलतम उपयोग करने के लिए कुशल नियुक्तिकरण की आवश्यकता होती है। इससे शर्म लागत में पर्याप्त कमी होती है।

 

  • प्रबंध के अन्य कार्यों जैसे – नियोजन, संगठन, निर्देशन तथा नियंत्रण आदि का प्रभावी एवं कुशल निष्पादन करने के लिए कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। इनकी उपलब्धि नियुक्तिकरण

नियुक्तिकरण का महत्व क्या है ?

नियुक्तिकरण प्रबंध का एक महत्वपूर्ण कार्य एवं उत्तरदायित्व है जो संस्था के कार्य संचालन के लिए पर्याप्त संख्या में प्रबंधकीय कर्मचारियों एवं अन्य कर्मचारियों को उपलब्ध करने, उनके विकास करने तथा उनकों संस्था में बनाए रखने से संबंधित है।

नियुक्तिकरण की महत्व और आवश्यकता निम्नलिखित है :-

    • उत्पादन के समस्त संसाधनों में केवल मानव संसाधन है तथा शेष सभी निष्क्रिय संसाधन हैं। इन समस्त निष्क्रिय संसाधनों का अधिकतम एवं कुशलतम उपयोग करने के लिए कुशल नियुक्तिकरण की आवश्यकता होती है। इससे शर्म लागत में पर्याप्त कमी होती है।

 

    • प्रबंध के अन्य कार्यों जैसे – नियोजन, संगठन, निर्देशन तथा नियंत्रण आदि का प्रभावी एवं कुशल निष्पादन करने के लिए कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। इनकी उपलब्धि नियुक्तिकरण द्वारा की जाती है। इस प्रकार नियुक्तिकरण अन्य सभी प्रबंधकीय कार्यों की कुंजी है।

 

    • उत्पादन तथा उत्पादकता दोनों में वृद्धि के लिए यह परम् आवश्यक है कि उपयुक्त एवं कुशल कर्मचारी को नियुक्त किया जाय और सही व्यक्ति को सही कृत्य पर लगाया जाय ताकि उसकी पूर्ण क्षमता का उपयोग किया जा सके।

 

    • प्रभावी नियुक्तिकरण योग्य, सक्षम, अनुभवी कर्मचारियों की खोज में सहायता प्रदान करता है जो कि किसी उपक्रम की वास्तविक निधि है।

 

    • नियुक्तिकरण में सही व्यक्ति की उसकी रूचि, कुशलता एवं क्षमता के अनुसार सही कृत्य पर नियुक्ति की जाती है।

 

  • व्यावसायिक उपक्रम समस्याओं का घर है। आए दिन कोई न कोई समस्या उठ खड़ी होती है। कभी श्रम समस्या, कभी उत्पाद समस्या, कभी विपणन समस्या तो कभी वित्त समस्या तो कभी अनुसन्धान एवं विकास की समस्या। इन सभी समस्याओं का समाधान योग्य एवं सक्षम नियुक्तिकरण में निहित है।

नियुक्तिकरण की प्रक्रिया क्या है ?

नियुक्तिकरण प्रक्रिया अथवा स्टाफिंग प्रक्रिया से आशय कदमों की ऐसी श्रृंखला से है जो कि संगठन में सही समय पर सही पदों पर तथा सही व्यक्तियों की निरन्तर पूर्ति करने के लिए उठाये जाते हैं।

नियुक्तिकरण की प्रक्रिया में निम्नलिखित कदमों का समावेश है :-

  • मानव संसाधन नियोजन :- स्टाफिंग प्रक्रिया का प्रथम कदम मानव संसाधन नियोजन करना है। मानव संसाधन नियोजन का उद्देश्य यह देखना है कि संगठन में कर्मचारियों की आवश्यकता की निरंतर पूर्ति होती रहे।
  • भर्ती
  • चयन
  • आगमन तथा अभिस्थापन
  • प्रशिक्षण एवं विकास
  • निष्पादन मूल्यांकन
  • स्थानांतरण
  • पृथक किया जाना

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लेख एवं अंकन दो शब्दों के मेल से वने लेखांकन में लेख से मतलब लिखने से होता है तथा अंकन से मतलब अंकों से होता है । किसी घटना क्रम को अंकों में लिखे जाने को लेखांकन (Accounting) कहा जाता है ।

किसी खास उदेश्य को हासिल करने के लिए घटित घटनाओं को अंकों में लिखे जाने के क्रिया को लेखांकन कहा जाता है । यहाँ घटनाओं से मतलब उस समस्त क्रियाओं से होता है जिसमे रुपय का आदान-प्रदान होता है ।

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