भारतीय सविंधान की प्रस्तावना
प्रस्तावना
- प्रत्येक संविधान के प्रारम्भ में प्रस्तावना का उल्लेख मिलता है।
- प्रस्तावना संविधान की कुँजी है, जिसमें संविधान के लक्ष्य व आदर्श उद्देश्य होते है।
- सर बी. एन. राव संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे।
- 15 अगस्त, 1947 को डॉ. अम्बेडकर भारत के पहले विधि मंत्री बने।
- प्रारूप समिति के समक्ष 7635 संशोधन प्रस्तुत किये गये।
- 26 नवम्बर, 1949 को भारतीय संविधान आंशिक रूप से लागू हुआ।
- इस दिनांक का उल्लेख प्रस्तावना में है, जबकि सम्पूर्ण संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।
उद्देश्य
- प्रस्ताव पं. जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसम्बर, 1946 में ‘उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
- इस प्रस्ताव में संविधान सभा के उद्देश्यों को परिभाषित किया गया।
- संविधान का सार होती है जिसें देखकर हम सारी व्यवस्था को समझ सकते है।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना को 13 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू ने रखा था और संविधान सभा में इसे 22 जनवरी, 1947 को पारित किया गया।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
- हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत 2006 विक्रमी को) इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते है।
नोट
- 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा प्रस्तावना में समाजवाद, पंथनिरपेक्ष तथा अखण्डता शब्द जोड़े गए।
- बेरूबाडी मामले (1960) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है।
- केशवानन्द भारती बनाम भारत संघ (1973) में न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का अंग है तथा यह संविधान की व्याख्या का आधार है। अतः प्रस्तावना को संविधान की आँख कहा जाता है।
- एस. आर. बोम्मई वाद (1994) में न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्तावना संविधान के मूलभूत ढाँचे का भाग है।
- न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्ला भारतीय संविधान की प्रस्तावना समूचे संविधान की आत्मा है, शाश्वत और अपरिवर्तनीय। प्रस्तावना में संवैधानिक जीवन की विविधता का भी उल्लेख मिलता है और भविष्य दर्शन भी।
- ग्रेनविल ऑस्टिन प्रस्तावना को संविधान की कुँजी कहते है।
- के.एम. मुंशी -“प्रस्तावना भारत की राजनीतिक जन्म कुण्डली है।”
- बार्कर “भारतीय संविधान की प्रस्तावना विश्व के सभी संविधानों में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है।”
कुछ अन्य महत्वपूर्ण जानकारी
भारत के संविधान की प्रस्तावना
परिचय
- यह भारत के संविधान (Constitution of India- COI) की प्रस्तावना है।
- यह भारत के संविधान को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों को चिह्नित करने वाला एक परिचयात्मक वक्तव्य है।
- यह संविधान का मसौदा तैयार करने के पीछे संविधान सभा की प्रकृति और उद्देश्य की प्रस्तावना करता है।
- इसमें उस स्रोत का उल्लेख है जहाँ से संविधान को शक्ति मिलती है, यानी भारत के लोग।
पृष्ठभूमि
- संविधान सभा ने इसे 26 नवंबर, 1949 को अपनाया।
- जबलपुर के ब्योहर राममनोहर सिन्हा ने भारत के संविधान के अन्य पृष्ठों के साथ-साथ प्रस्तावना के पृष्ठ को भी डिज़ाइन किया।
- इसे पहली और अंतिम बार 42वें संशोधन अधिनियम 1976 के तहत संशोधित किया गया था।
प्रस्तावना के तत्त्व
- संविधान का स्रोत: भारत के लोगों में निहित है।
- संविधान की प्रकृति: संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक।
- संविधान के उद्देश्य: न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के साथ-साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता।
- संविधान लागू होने की तिथि: 26 नवंबर, 1949।
प्रस्तावना की मौलिक विशेषताएँ
- संप्रभुता: कोई भी बाहरी सत्ता प्रभुत्व के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। विदेशी नियंत्रण के विरुद्ध राष्ट्र स्वतंत्र है।
- समाजवादी: राष्ट्र का लक्ष्य सामाजिक कल्याण है। समाजवादी प्रकृति का घटक मिश्रित अर्थव्यवस्था है।
- धर्मनिरपेक्ष: राज्य का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है। राज्य की नजर में सभी धर्म समान हैं।
- लोकतांत्रिक: सरकार संविधान के अनुसार मतदान करने वाले लोगों की इच्छा से चुनी जाती है।
- गणतंत्र: राज्य का मुखिया जनता द्वारा चुना जाता है।
प्रस्तावना के उद्देश्य
- न्याय: समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थापना महत्त्वपूर्ण है।
- स्वतंत्रता: विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता, एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं करनी चाहिये।
- समानता: कानून के समक्ष सभी को समान रखने के लिये स्थिति और अवसर की समानता स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है।
- बंधुत्त्व: व्यक्तियों की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने के लिये लोगों के बीच बंधुत्त्व।
केस लॉ
बेरुबारी केस (1960) में:
- आठ न्यायधीशों की पीठ ने भारत-पाक समझौते पर मामले पर विचार किया। पीठ ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और इसलिये इसे कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा यह निर्माताओं के दिमाग की कुंजी है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
- 13 न्यायाधीशों की पीठ ने प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा बताया। इसके पास कोई सर्वोच्च प्राधिकार नहीं है लेकिन यह संविधान के कानूनों और प्रावधानों की व्याख्या करने के लिये एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।
संघ सरकार बनाम एलआईसी ऑफ इंडिया (1975):
- सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। लेकिन यह न्यायालय के समक्ष कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है।
एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ और अन्य (1994):
- सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर जोर देते हुए कहा कि राज्य का कोई धर्म नहीं होता है और किसी भी धर्म से संबंधित लोगों को अंतरात्मा की समान स्वतंत्रता तथा किसी भी धर्म का पालन करने, मानने या प्रचार करने का अधिकार है।
42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976
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निष्कर्ष
- संविधान की प्रस्तावना एक परिचयात्मक दस्तावेज़ है जिसमें उद्देश्यों का सारांश दिया गया है और उन सिद्धांतों को बताया गया है जिन पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका आधारित हैं। विभिन्न निर्णयों में प्रस्तावना की स्थिति पर विचार किया गया लेकिन अंततः केशवानंद भारती मामले में इसमें संशोधन किया गया जिसने इसे संविधान का हिस्सा घोषित कर दिया।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह संविधान के निर्माण के पीछे के विचारों और उद्देश्यों को दर्शाती है।
- यह भारत के लोगों द्वारा स्वयं को दिए गए एक वचन के समान है।
“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: …व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं |”
- भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था। यह भारत का सर्वोच्च कानून है और इसमें 25 भागों में 448 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां शामिल हैं। संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक प्रारंभिक भाग है जो इसके मूल्यों, उद्देश्यों और लक्ष्यों को निर्धारित करता है। यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो भारत की संवैधानिक व्यवस्था को समझने के लिए आवश्यक है।
संविधान की प्रस्तावना क्या है?
- भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह संविधान के उद्देश्यों, मूल्यों और दिशा-निर्देशों को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। प्रस्तावना संविधान की आत्मा मानी जाती है और यह भारतीय राज्य के उद्देश्य, लक्ष्य और आदर्शों का परिचय देती है।
संविधान की प्रस्तावना का पाठ
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के बारे में तथ्य
- भारतीय संविधान की उद्देशिका भारत की संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था।
- प्रस्तावना से तात्पर्य संविधान के सार या सार से युक्त संविधान से है।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना को सबसे पहले अमेरिकी संविधान में पेश किया गया था।
- भारत सरकार अधिनियम 1919 में एक अलग प्रस्तावना मौजूद थी।
- संविधान की प्रस्तावना पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार किए गए उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है, जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
- इसे “भारतीय संविधान की आत्मा” भी कहा जाता है।
- प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है और इसलिए इसमें संशोधन किया जा सकता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में मुख्य शब्द
मुख्य शब्दावली | अर्थ |
संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न | इसका मतलब है कि भारत को पूर्ण रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राज्य बनाना। |
समाजवादी | समाजवाद का मतलब है, समाज में धन और संसाधनों का समान वितरण और सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना। |
पंथनिरपेक्ष | इसका मतलब है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, यानी राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों को समान सम्मान दिया जाएगा। |
लोकतांत्रिक | यह भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप को इंगीत करता है, जहां जनमत के द्वारा चुनी हुई सरकार का शासन चलता है। |
गणतंत्र | गणतंत्र का अर्थ है एक ऐसा शासन व्यवस्था, जिसमें देश का प्रमुख (राष्ट्रपति या अन्य कोई) जनता द्वारा चुना जाता है और उसका कार्यकाल सीमित होता है। इसमें सर्वोच्च सत्ता जनता के हाथों में होती है, और सरकार को उनकी इच्छा और संविधान के अनुरूप काम करना होता है। |
न्याय | सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों के साथ व्यवहार में निष्पक्षता |
स्वतंत्रता | विचार, विश्वास, आस्था और पूजा की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध की अनुपस्थिति |
समानता | स्थिति और अवसर के संदर्भ में किसी विशेष हेतु प्रावधानों की अनुपस्थिति |
बन्धुत्व | देश की एकता और अखंडता के साथ भाईचारा |
संविधान की प्रस्तावना का इतिहास
- यह लगभग सभी को पता होता है, लेकिन भारतीय संविधान की प्रस्तावना का इतिहास संविधान सभा के विचार-विमर्श के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। प्रस्तावना सहित संविधान का मसौदा तैयार करने का कार्य डॉ. बी.आर. अंबेडकर की अध्यक्षता वाली मसौदा समिति द्वारा किया गया था। प्रस्तावना को अंतिम रूप से अपनाने से पहले कई संशोधनों से गुजरना पड़ा।
- प्रस्तावना विभिन्न स्रोतों से प्रेरित है, जिसमें 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किया गया उद्देश्य प्रस्ताव भी शामिल है। यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए भारतीय लोगों की आकांक्षाओं को दर्शाता है। प्रस्तावना को 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था और यह 26 जनवरी, 1950 को भारत के संविधान के साथ लागू हुई थी।
संविधान कब लागू हुआ?
- अगर आप सोचते हैं कि तो बता दे कि भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ था। इस दिन को भारत में गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो ब्रिटिश शासन से भारत के एक लोकतांत्रिक गणराज्य में परिवर्तन का प्रतीक है। इस दिन, संविधान ने भारत सरकार अधिनियम (1935) को देश के सर्वोच्च कानून के रूप में प्रतिस्थापित किया और भारत औपचारिक रूप से अपनी स्वयं की निर्वाचित सरकार तथा राज्य प्रमुख के साथ एक स्वतंत्र गणराज्य बन गया।
संविधान की प्रस्तावना का क्या महत्व है?
संविधान की प्रस्तावना का क्या महत्व है? यह संविधान के मूल विचार और भावना को दर्शाती है। इसका महत्व कई पहलुओं में है, जो मार्गदर्शन और उद्देश्यों को बताती है। यह भारत को एक स्वतंत्र, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश घोषित करती है, जो सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है।
नागरिकों और संस्थाओं को संविधान के मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करती है। यह उन्हें लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समानता के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की याद दिलाती है, जो भारतीय राज्य की नींव हैं। इसके अलावा, यह राष्ट्र की एकता और अखंडता की पुष्टि करके, भारत की विविध जनसंख्या के बीच अपनेपन और राष्ट्रीय पहचान की भावना को बढ़ावा देती है।
ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले (1973) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संसद को संविधान के विभिन्न भागों में संशोधन करने का अधिकार है।लेकिन वह प्रस्तावना में परिलक्षित मूल संरचना या आवश्यक विशेषताओं को नहीं बदल सकती है।
संविधान सभा की कार्यप्रणाली
- संविधान सभा का प्राथमिक कार्य भारत के संविधान का मसौदा तैयार करना और उसे लागू करना था। संविधान सभा ने संविधान के प्रत्येक प्रावधान पर गहन वाद-विवाद और चर्चाएँ की। विचारधारा, भाषा, धर्म और क्षेत्र में मतभेदों के बावजूद, संविधान सभा के सदस्यों ने आम सहमति बनाने और परस्पर विरोधी हितों के समाधान की दिशा में काम किया।
- संविधान सभा के कामकाज ने एक स्थायी विरासत छोड़ी, जिसने भारत के लोकतांत्रिक शासन और संवैधानिक सिद्धांतों की नींव रखी। इसका समावेशी और सहभागी दृष्टिकोण भविष्य की लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए एक मिसाल कायम करता है, जिसमें संवाद, आम सहमति बनाने और लोकतांत्रिक विचार-विमर्श के महत्व पर बल दिया गया है।
प्रस्तावना के घटक
- संविधान के अधिकार का स्रोत – प्रस्तावना में कहा गया है कि संविधान भारत के लोगों से अपना अधिकार प्राप्त करता है।
- भारतीय राज्य की प्रकृति – यह भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक और गणतंत्रात्मक राजनीति घोषित करता है।
- संविधान के उद्देश्य – यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को उद्देश्यों के रूप में निर्दिष्ट करता है।
- संविधान को अपनाने की तिथि – यह 26 नवंबर, 1949 को इसके अपनाने की तिथि निर्धारित करता है।
संविधान की प्रस्तावना का उद्देश्य और महत्व
- भारत के संविधान की प्रस्तावना कई उद्देश्यों को पूरा करती है और महत्वपूर्ण महत्व रखती है। यह उन उद्देश्यों और लक्ष्यों को रेखांकित करती है जिन्हें संविधान प्राप्त करना चाहता है। यह भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है, जो उन मौलिक मूल्यों और सिद्धांतों पर प्रकाश डालता है जिन पर भारतीय राज्य आधारित है।
संविधान की प्रस्तावना का उद्देश्य
भारत के संविधान की प्रस्तावना कई प्रमुख उद्देश्यों को पूरा करता है।
- प्रस्तावना भारत को एक “प्रभुसत्ता संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” घोषित करती है। यह उन मूल्यों और सिद्धांतों को भी निर्धारित करता है जिन पर संविधान आधारित है, जैसे कि स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता।
- प्रस्तावना में उन लक्ष्यों और उद्देश्यों का उल्लेख है जिनके लिए संविधान बनाया गया था। इनमें “सभी नागरिकों को न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और गरिमा सुरक्षित करना” शामिल है।
- प्रस्तावना में उन मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है जो सभी नागरिकों के लिए लागू होते हैं। यह इन अधिकारों और कर्तव्यों की मूल प्रकृति को समझने में मदद करता है।
- प्रस्तावना नागरिकों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में शिक्षित करने और एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र बनाने में योगदान करने के लिए प्रेरित करती है।
संविधान की प्रस्तावना महत्व
- अगर आप जानना चाहते हैं कि संविधान की प्रस्तावना का क्या महत्व है, तो बता दे कि यह कई कारणों से सर्वोपरि महत्व रखता है। यह एक आधारभूत कानूनी दस्तावेज के रूप में कार्य करता है जो सरकार की संरचना, शक्तियों और कार्यों को स्थापित करता है। यह शासन के लिए रूपरेखा तैयार करता है, राज्य के विभिन्न अंगों की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को परिभाषित करता है।
- यह भारत के संविधान की आत्मा है: प्रस्तावना उन मूल्यों और सिद्धांतों को दर्शाती है जिन पर संविधान आधारित है। यह संविधान की व्याख्या करने और लागू करने के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाश के रूप में कार्य करता है।
- यह नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों की रक्षा करता है: प्रस्तावना में मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है जो सभी नागरिकों के लिए लागू होते हैं। यह इन अधिकारों और कर्तव्यों की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि उनका उल्लंघन न हो।
- यह एक राष्ट्रीय पहचान प्रदान करता है: प्रस्तावना भारत के लोगों को एकजुट करती है और उन्हें एक राष्ट्रीय पहचान प्रदान करती है। यह साझा मूल्यों और लक्ष्यों की भावना को बढ़ावा देता है।
- यह प्रेरणा का स्रोत है: प्रस्तावना नागरिकों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में शिक्षित करने और एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र बनाने में योगदान करने के लिए प्रेरित करती है।
संविधान की प्रस्तावना: मौलिक विशेषताएं
- संविधान की प्रस्तावना का अर्थ भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताओं और लक्ष्यों को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। इसमें लिखा है हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और उसके सभी नागरिकों को सुरक्षित करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं।
प्रमुख मौलिक विशेषताएं
1. भारत को एक “प्रभुसत्ता संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” घोषित करना:
यह घोषणा भारत की राजनीतिक व्यवस्था की मूल प्रकृति को स्पष्ट करती है।
- प्रभुसत्ता संपन्न: इसका अर्थ है कि भारत किसी भी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है और यह अपनी स्वतंत्र इच्छा से अपना शासन चलाता है।
- समाजवादी: इसका अर्थ है कि भारत एक ऐसा समाज चाहता है जिसमें सामाजिक और आर्थिक समानता पर जोर दिया जाए।
- धर्मनिरपेक्ष: इसका अर्थ है कि भारत सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करता है और किसी भी धर्म को राज्य धर्म का दर्जा नहीं देता है।
- लोकतांत्रिक: इसका अर्थ है कि भारत में सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और जनता के प्रति जवाबदेह होती है।
- गणराज्य: इसका अर्थ है कि भारत में कोई राजा या रानी नहीं है, और राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है।
2. मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख:
प्रस्तावना में उन मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है जो सभी नागरिकों के लिए लागू होते हैं।
- मौलिक अधिकार: ये वे अधिकार हैं जो नागरिकों को सरकार द्वारा हनन किए जाने से सुरक्षित करते हैं। इनमें स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के अधिकार शामिल हैं।
- मौलिक कर्तव्य: ये वे कर्तव्य हैं जो सभी नागरिकों को देश के प्रति निभाने होते हैं। इनमें राष्ट्र के प्रति निष्ठा, संविधान का सम्मान, राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान, सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा, और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना शामिल है।
3. संघीय व्यवस्था की स्थापना:
प्रस्तावना भारत को एक संघीय गणराज्य घोषित करती है, जिसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
- केंद्र सरकार: केंद्र सरकार कानून बनाने और उन लागू करने के लिए जिम्मेदार होती है जो पूरे देश पर लागू होते हैं।
- राज्य सरकारें: राज्य सरकारें उन मामलों पर कानून बनाने और उन लागू करने के लिए जिम्मेदार होती हैं जो उनके राज्यों के लिए विशिष्ट हैं।
4. न्यायपालिका की स्वतंत्रता:
प्रस्तावना न्यायपालिका की स्वतंत्रता की गारंटी देती है, जिसका अर्थ है कि न्यायाधीशों को बिना किसी डर या पक्षपात के अपने फैसले सुनाने की स्वतंत्रता है।
5. संविधान की सर्वोच्चता:
प्रस्तावना स्थापित करती है कि भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है, और कोई भी कानून या नियम संविधान के विपरीत नहीं हो सकता है।
संविधान की प्रस्तावना के चार हिस्से
भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान के सिद्धांतों और उद्देश्यों के लिए मार्गदर्शक ढांचे के रूप में कार्य करती है। इसमें चार मुख्य घटक शामिल हैं।
प्रस्तावना के चार घटक
- न्याय: प्रस्तावना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की खोज पर जोर देती है, सभी नागरिकों के लिए अवसर और स्थिति की समानता सुनिश्चित करती है।
- स्वतंत्रता: यह सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता की गारंटी देती है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता को बढ़ावा देती है।
- समानता: प्रस्तावना एक ऐसे समाज की कल्पना करती है जहाँ जाति, पंथ, धर्म, नस्ल या लिंग के बावजूद स्थिति और अवसर की समानता हो।
- भाईचारा: भाईचारा सभी नागरिकों के बीच भाईचारे और एकता की भावना को दर्शाता है, जो विविधताओं से परे है और एकता और एकीकरण की भावना को बढ़ावा देता है।
प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ
- संप्रभुता (Sovereignty):
भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है। इसका मतलब है कि हमारे देश के किसी भी निर्णय में कोई बाहरी शक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकती। हम अपने सभी आंतरिक और बाहरी मामलों का फैसला खुद लेते हैं। - समाजवादी (Socialist):
भारत का उद्देश्य सभी नागरिकों का सामाजिक और आर्थिक कल्याण सुनिश्चित करना है। यहाँ मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई गई है, जिसमें सरकारी और निजी दोनों क्षेत्र साथ मिलकर काम करते हैं। - धर्मनिरपेक्षता (Secular):
भारत किसी एक धर्म को बढ़ावा नहीं देता। यहाँ हर नागरिक को अपने धर्म को मानने और पालन करने की पूरी आज़ादी है। राज्य सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है। - लोकतंत्र (Democratic):
भारत की सरकार जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के माध्यम से चुनी जाती है। नागरिकों को चुनाव में भाग लेने और अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है। - गणराज्य (Republic):
भारत में देश का सर्वोच्च नेता यानी राष्ट्रपति जनता द्वारा परोक्ष रूप से चुना जाता है। यह पद किसी विरासत या राजशाही से नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से तय होता है।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करना इसकी आधारभूत प्रकृति और प्रतीकात्मक महत्व के कारण एक जटिल और संवेदनशील मामला है।
- हालाँकि प्रस्तावना को इसके अपनाए जाने के बाद से पूरी तरह से संशोधित नहीं किया गया है, लेकिन बदलते सामाजिक मूल्यों या राजनीतिक विचारधाराओं को प्रतिबिंबित करने के लिए संभावित संशोधनों या परिवर्धन के बारे में महत्वपूर्ण बहस और चर्चाएँ हुई हैं।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख है। इस अनुच्छेद के अनुसार, संसद के दोनों सदनों (लोक सभा और राज्य सभा) द्वारा दो-तिहाई बहुमत से पारित किए गए प्रस्ताव द्वारा संविधान में संशोधन किया जा सकता है।कुछ कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि प्रस्तावना, संविधान का एक हिस्सा होने के नाते, इस प्रक्रिया के अधीन संशोधन के लिए खुला है।
- हालांकि, इस मुद्दे पर कोई सर्वसम्मति नहीं है, और कई अन्य विशेषज्ञों का तर्क है कि प्रस्तावना संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है और इसे संशोधित नहीं किया जा सकता है।
निष्कर्ष
- भारत के संविधान की प्रस्तावना राष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाली आकांक्षाओं और आदर्शों की एक गंभीर घोषणा है। यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूलभूत सिद्धांतों को समाहित करती है, जो भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की आधारशिला हैं। संविधान के परिचयात्मक कथन के रूप में, प्रस्तावना एक प्रकाश स्तंभ के रूप में कार्य करती है, जो न्यायपूर्ण, समतापूर्ण और समावेशी समाज की ओर मार्ग को रोशन करती है। अब आपको पूरी तरह ज्ञात हो गया होगा कि संविधान की प्रस्तावना क्या है।
भारत के संविधान की प्रस्तावना: संविधान के प्रस्तावना की विशेषताएं और महत्व
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
- हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने तथा उसके समस्त नागरिकों को निम्नलिखित सुरक्षा प्रदान करने के लिए सत्यनिष्ठा से संकल्प लेते हैं:
- न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक;
- विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता;
- स्थिति और अवसर की समानता, और उन सभी के बीच बढ़ावा देना
- व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता का आश्वासन देने वाली बंधुता;
- अपनी संविधान सभा में, आज छब्बीस नवम्बर 1949 को, हम इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की पृष्ठभूमि
जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव, जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अनुमोदित किया गया था, में वे सिद्धांत निर्धारित किये गये जो प्रस्तावना (preamble in hindi) में प्रतिबिंबित हैं।
इसे संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था और पुरुषोत्तम दास टंडन ने इसका समर्थन किया था। संविधान सभा में चर्चा के बाद, उद्देश्य प्रस्ताव के अधिकांश प्रावधानों को प्रस्तावना के रूप में अपनाया गया।
उद्देश्य प्रस्ताव में “मूलभूत बातें” सूचीबद्ध थीं, जो उस संवैधानिक ढांचे के लिए दिशानिर्देश के रूप में काम करने वाली थीं, जिस पर संविधान सभा एकत्रित हुई थी।
प्रस्ताव में भारत के भावी संविधान के लिए कुछ “मूलभूत बातों” को रेखांकित किया गया, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह था कि देश एक “संप्रभु भारतीय गणराज्य” होगा।
इसके अतिरिक्त, “गणतंत्र” की अवधारणा का प्रयोग पहली बार संविधान सभा के उद्देश्य प्रस्ताव में भारतीय राजनीतिक संरचना के लिए “मौलिक” के रूप में किया गया था।
हालाँकि, उद्देश्य प्रस्ताव में “लोकतांत्रिक” शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था।
इस संबंध में जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि उद्देश्य प्रस्ताव में उल्लिखित शब्द “गणतंत्र” का तात्पर्य लोकतंत्र से है।
उन्होंने आगे स्पष्ट किया कि “उद्देश्य प्रस्ताव” में लोकतांत्रिक और आर्थिक लोकतंत्र दोनों को “विषय-वस्तु” में शामिल किया गया है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के प्रमुख घटक
सार्वभौम
- “संप्रभुता” शब्द का अर्थ है कि भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है। इसे बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के खुद पर शासन करने का अधिकार है। इसका अर्थ है कि निर्णय लेने और कानून बनाने की शक्ति भारत के लोगों के पास है।
समाजवादी
- “समाजवादी” शब्द भारत सरकार की अपने नागरिकों के बीच सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए प्रयास करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इसका उद्देश्य समाज के भीतर आर्थिक असमानताओं को कम करना है। यह सभी व्यक्तियों के कल्याण और खुशहाली को सुनिश्चित करता है।
धर्मनिरपेक्ष
- “धर्मनिरपेक्ष” शब्द का अर्थ है कि भारत किसी विशिष्ट धर्म को बढ़ावा नहीं देता या उसका पक्ष नहीं लेता। सरकार सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करती है। यह किसी भी व्यक्ति या समुदाय के साथ उनके धार्मिक विश्वासों के आधार पर भेदभाव नहीं करती है। यह धर्म की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है और धर्म के मामलों में तटस्थ रुख रखता है।
लोकतांत्रिक
- “लोकतांत्रिक” शब्द से पता चलता है कि भारत एक ऐसी शासन प्रणाली का पालन करता है जहाँ सत्ता लोगों के हाथों में निहित होती है। यह समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर जोर देता है। नागरिकों को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से अपने प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार है। इस प्रकार गठित सरकार लोगों के प्रति जवाबदेह होती है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में महत्वपूर्ण शब्द
प्रस्तावना में कुछ महत्वपूर्ण शब्द इस प्रकार हैं:
संप्रभु – एक स्वतंत्र राज्य या देश।
समाजवादी – भारत एक लोकतांत्रिक समाजवादी देश है जिसमें कल्याणकारी राज्य की अवधारणा है।
धर्मनिरपेक्ष – भारत में धर्मनिरपेक्षता का एक सकारात्मक रूप है जिसमें राज्य सभी धर्मों की समानता को मान्यता देता है लेकिन उसका कोई आधिकारिक धर्म नहीं होता है।
लोकतांत्रिक – भारत में लोग अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करते हैं; इसे प्रतिनिधि लोकतंत्र भी कहा जाता है।
गणतंत्र – यह एक ऐसे राज्य को संदर्भित करता है जिसमें लोगों और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास सर्वोच्च शक्ति होती है और राज्य का मुखिया वंशानुगत राजा या तानाशाह के बजाय निर्वाचित होता है।
न्याय – सभी भारतीय नागरिकों के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के संदर्भ में समान व्यवहार किया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता – भारतीय नागरिकों की विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा गतिविधियों की स्वतंत्रता को संदर्भित करता है।
समानता – समान अवसर और समान स्थिति को संदर्भित करता है।
बंधुत्व – भाईचारे की भावना, व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को संदर्भित करता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का महत्व
भारतीय संविधान की प्रस्तावना महत्वपूर्ण क्यों है, इसके कुछ कारण इस प्रकार हैं:
यह क़ानून के लिए एक परिचय के रूप में कार्य करता है और विधायी मंशा और नीति को समझने में सहायता करता है।
इसमें उन मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है जिन्हें सरकार हासिल करना चाहती है।
इसमें वे आदर्श शामिल हैं जिन्हें संविधान प्राप्त करना चाहता है।
हालाँकि, यह कोई शक्ति प्रदान नहीं करता है; बल्कि, यह संविधान को दिशा और उद्देश्य प्रदान करता है और संविधान के समग्र उद्देश्यों को रेखांकित करता है।
यह संवैधानिक साधनों के माध्यम से प्राप्त किये जाने वाले व्यापक उद्देश्यों और सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को भी निर्धारित करता है।
प्रस्तावना की स्थिति
प्रस्तावना की स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों में बहस हो चुकी है। इस मुद्दे पर प्रकाश डालने वाले दो उल्लेखनीय मामले बेरुबारी केस और केशवानंद भारती केस हैं।
बेरुबारी केस (1960)
बेरुबारी मामले में आठ न्यायाधीशों की पीठ ने बेरुबारी संघ और परिक्षेत्रों के आदान-प्रदान के संबंध में भारत-पाकिस्तान समझौते के कार्यान्वयन पर विचार किया। इस मामले में न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना (preamble in hindi) संविधान निर्माताओं के इरादों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। हालांकि, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि प्रस्तावना संविधान का लागू करने योग्य हिस्सा नहीं है।
केशवानंद भारती केस (1973)
केशवानंद भारती केस ने प्रस्तावना की व्याख्या में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया। 13 न्यायाधीशों की एक पीठ एक रिट याचिका पर सुनवाई करने के लिए बैठी थी, और न्यायालय ने दो महत्वपूर्ण फैसले दिए:
प्रस्तावना को अब संविधान का अभिन्न अंग माना जाता है।
प्रस्तावना सर्वोच्च शक्ति या प्रतिबंधों का स्रोत नहीं है। हालाँकि, यह संविधान के क़ानूनों और प्रावधानों की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
1995 में केंद्र सरकार बनाम एलआईसी ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से पुष्टि की कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। हालाँकि, यह भारत में न्यायालय में सीधे लागू नहीं हो सकती।
प्रस्तावना में संशोधनअब तक, प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है: 1976 में, 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा, जिसने प्रस्तावना में तीन नए शब्द जोड़े, जैसे
भारतीय राज्य की प्रकृति में दो शब्द (समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष)।
एक शब्द, “अखंडता”, भारतीय संविधान के उद्देश्यों में है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के बारे में मुख्य तथ्य
यह संविधान की प्रस्तावना या परिचय है।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, “प्रस्तावना इसके निर्माताओं के दिमाग की कुंजी है।”
प्रस्तावना की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से ली गई है।
प्रस्तावना में उल्लिखित उद्देश्य हमारे संविधान की मूल संरचना में निहित हैं और इन्हें बदला नहीं जा सकता।
यह संविधान का अभिन्न अंग है और मूल ढांचे को छोड़कर इसमें संशोधन किया जा सकता है।
अब तक, प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है: 1976 में, 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा, जिसमें प्रस्तावना में तीन नए शब्द जोड़े गए: समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता।
हालाँकि, इसके प्रावधानों को अदालतों में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि यह न्यायोचित नहीं है।
निष्कर्ष
संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान के अंदर क्या है, इसकी खिड़की है। इसे भारतीय संविधान की आत्मा और रीढ़ भी कहा जाता है। इसके आदर्श जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य संकल्प में रखे गए थे, जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। भारतीय संविधान की प्रस्तावना उद्देश्य संकल्प पर आधारित है। संविधान के आदर्श इसमें समाहित हैं। हालाँकि, यह कोई शक्ति प्रदान नहीं करता है, लेकिन यह राज्य को दिशा और उद्देश्य प्रदान करता है। इसे केवल एक बार, 1976 में, 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित किया गया था, जिसमें समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द शामिल थे।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
- प्रस्तावना, भारत के संविधान की भूमिका के जैसे है, जिसमें संविधान का मूल उद्देश्य, आदर्श, सरकार का स्वरूप और कानूनी प्रावधान इत्यादि का संक्षेप में उल्लेख होता है। भारतीय संविधान के प्रस्तावना की नीव पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा 13 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में रखी गई। भारत की प्रस्तावना, अमेरिकी संविधान से ली गई है किन्तु इसके भाषा पर आस्ट्रेलियाई संविधान के प्रस्तावना का प्रभाव दिखता है। 22 जनवरी 1947 को उद्देश्य प्रस्ताव को संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किया गया था। 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा मूल प्रस्तावना में ‘समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं अखंडता’ शब्द जोड़ा गया था।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble of the Constitution)
- संविधान की उद्देशिका अर्थात प्रस्तावना संविधान बनाने के उद्देश्य को प्रदर्शित करती है।
- इसके माध्यम से हमें यह पता चलता है कि संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान के निर्माण में किन-किन बातों का ध्यान रखा गया।
- सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में ‘प्रस्तावना’ को सम्मिलित किया गया था।
- 13 दिसंबर 1946 को पूर्व प्रधानमंत्री ‘पंडित जवाहर लाल नेहरू’ ने संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया, भारतीय संविधान की प्रस्तावना इसी उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है।
- 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को स्वीकार किया।
- 42 वे संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखण्डता शब्दों को जोड़ा गया।
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प्रस्तावना में लिखे गए शब्दों का क्रम
- हम भारत के लोग (WE, THE PEOPLE OF INDIA)
- प्रभुत्व सम्पन्न (SOVEREIGN)
- समाजवादी (SOCIALIST)
- पंथनिरपेक्ष (SECULAR)
- लोकतांत्रिक (DEMOCRATIC)
- गणराज्य (REPUBLIC)
- न्याय (JUSTICE)
- स्वतन्त्रता (LIBERTY)
- समता (EQUALITY)
- राष्ट्र की एकता एवं अखंडता (UNITY AND INTEGRITY OF THE NATION)
- अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित (HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES)
प्रस्तावना में लिखे गए शब्दों के अर्थ
1) हम भारत के लोग (WE, THE PEOPLE OF INDIA)
- इसका तात्पर्य है कि भारतीय संविधान भारत के लोगों द्वारा निर्मित है और उन्हे ही समर्पित है। अतः भारत एक संप्रभु और लोकतान्त्रिक राष्ट्र है।
2) संप्रभुता (SOVEREIGNTY)
- इसका तात्पर्य है कि भारत किसी अन्य राष्ट्र या राजशाही के अधीन नहीं है जैसे कि 1947 से पहले था, भारत एक स्वतन्त्र और लोकतान्त्रिक राष्ट्र है।
- भारत अपने आंतरिक और बाहरी मामलों को निपटाने में पूर्ण रूप से सक्षम है। यह किसी भी विदेशी शक्ति के अधीन नहीं है।
3) समाजवादी (SOCIALIST)
- समाजवादी शब्द को 42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया था।
- इसका तात्पर्य है कि भारत के प्रमुख संसाधनों, संपत्ति, शिक्षा, उत्पादन और वितरण आदि पर समान समंजस्य और सार्वजनिक नियंत्रण हो। इसके लिए राज्य नियम बना सकता है।
- समाजवाद के अंतर्गत सभी के अधिकारों की रक्षा की जाती है और ऐसे समाज की रचना की जाती है जहां कोई भी भुखमरी, गरीबी और अशिक्षा का शिकार न हो।
- सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवाद’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि भारतीय समाजवाद एक प्रकार का लोकतान्त्रिक समाजवाद (DEMOCRATIC SOCIALISM) है, जिसका अर्थ गरीबी, बीमारी, भुखमरी और अशिक्षा आदि से सभी लोगों को छुटकारा देना है।
4) पंथनिरपेक्ष (SECULARISM)
- ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द को 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया।
- इसका तात्पर्य है कि हमारे राष्ट्र का कोई अपना धर्म या संप्रदाय नहीं होगा।
- भारत सभी धर्मों और संप्रदायों का समान भाव से सम्मान करेगा और किसी विशेष धर्म को वरीयता नहीं देगा और न ही भेद-भाव करेगा।
- धर्म या संप्रदाय के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेद-भाव नहीं किया जाएगा।
5) लोकतंत्र (DEMOCRACY)
- अब्राहम लिंकन के शब्दों में “जनता का जनता द्वारा जनता के लिए शासन” लोकतंत्र कहलाता है।
- लोकतन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को खुद चुनेगी और चुने गए प्रतिनिधि जनता के कल्याण के लिए नीतियाँ एवं नियम-कानून बनाएँगे।
- लोकतन्त्र दो प्रकार के होते है। 1. प्रत्यक्ष लोकतंत्र (MP/MLA का चुनाव) 2. अप्रत्यक्ष लोकतंत्र (राष्ट्रपति का चुनाव)
6) गणतंत्र (REPUBLIC)
- गणतन्त्र के अनुसार राष्ट्र की राजनैतिक शक्ति किसी एक व्यक्ति के हाथ में होने कि बजाय लोगों के हाथ में रहेगा।
- हर सार्वजनिक कार्यालय बगैर किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिए खुला है।
- राष्ट्रपति का चुनाव पाँच वर्षों के लिए अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है जो कि गणतन्त्र का एक बेहतर उदाहरण है।
7) न्याय (JUSTICE)
- प्रस्तावना में ‘न्याय’ को तीन अलग-अलग रूपों में शामिल किया गया है – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय।
- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के इन तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है
- सामाजिक न्याय (Social Justice) से तात्पर्य है कि किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, रंग, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, सभी के साथ समान व्यवहार किया जाएगा।
- आर्थिक न्याय (Economic Justice) से तात्पर्य है कि आर्थिक कारणों के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नहीं किया जाएगा, इसमें आय व संपत्ति की असमानता को दूर करना भी शामिल है।
- सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय को संयुक्त रूप से आनुपाती न्याय भी कहते है।
- राजनीतिक न्याय (Political Justice) से तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे।
- सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के वोट देने तथा चुनावों में प्रतिनिधि के रूप में अपनी उम्मीदवारी प्रदर्शित करने का समान अवसर मिलेगा।
प्रश्न | उत्तर |
---|---|
संविधान की आत्मा किसे कहते हैं? | उद्देशिका (प्रस्तावना) |
डॉक्टर अंबेडकर के अनुसार संविधान की आत्मा हैं? | अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) |
संविधान के उद्देशिका को और किस नाम से जाना जाता है? | संविधान की कुंजी |
भारतीय संविधान का दार्शनिक आधार क्या है? | संविधान की प्रस्तावना |
प्रसिद्ध अंग्रेज राजनीतिज्ञ अर्नेस्ट बार्कर ने अपने किस पुस्तक में प्रस्तावना का उल्लेख किया है? | ‘प्रिंसिपल ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी’ में |
भारत को एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में वर्णित करता है? | संविधान की प्रस्तावना |
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व के आदर्शों को कहाँ से लिया गया है? | फ्रांस की क्रांति से |
“उद्देशिका हमारे स्वप्नों और विचारों का प्रतिनिधित्व करती है” यह कथन किसका है? | सर अल्लादि कृष्णा स्वामी अय्यर |
“प्रस्तावना हमारे संप्रभु लोकतान्त्रिक गणराज्य का जन्मकुंडली है” यह कथन किसका है? | के. एम. मुंशी |
प्रस्तावना को संविधान का परिचय पत्र किसने कहा था? | एन. ए. पालकीवाला ने |
उच्चतम न्यायालय ने सर्वप्रथम उद्देशिका को किस वाद में संविधान का भाग नहीं माना था? | बेरुबारी वाद (1960) |
उच्चतम न्यायालय ने सर्वप्रथम उद्देशिका को किस वाद में संविधान का भाग माना था? | केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) |
उद्देशिका को संविधान की मूल आत्मा किस वाद में माना गया था? | गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) |
संविधान की उद्देशिका में प्रयुक्त ‘समाजवाद’ की अवधारणा किसमे अंतर्निहित है? | आर्थिक न्याय |
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
- यह एक दस्तावेज़ का परिचयात्मक वक्तव्य है जो इसके दर्शन और उद्देश्यों को स्पष्ट करता है।
- एक संविधान अपने निर्माताओं की मंशा, इसके निर्माण के पीछे के इतिहास, राष्ट्र के मूल मूल्यों और सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करता है।
- भारतीय प्रस्तावना मूलतः निम्नलिखित का विचार देती है:
- संविधान का स्रोत
- भारतीय राज्य की प्रकृति
- इसके उद्देश्यों का विवरण
- इसके अपनाने की तिथि
- ये आदर्श जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव द्वारा निर्धारित किये गये थे, जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था ।
- इसे 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ
- यह अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से उत्पन्न हुई है।
- यद्यपि यह न्यायालय में लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन यह संविधान के उद्देश्यों को बताता है तथा जब भाषा अस्पष्ट हो तो अनुच्छेदों की व्याख्या के दौरान सहायता के रूप में कार्य करता है।
- संबंधित मामले
- बेरुबारी मामला, 1960: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘प्रस्तावना निर्माताओं के मस्तिष्क को खोलने की कुंजी है’, लेकिन इसे संविधान का हिस्सा नहीं माना जा सकता। इसलिये, यह न्यायालय में लागू नहीं किया जा सकता।
- केशवानंद भारती मामला, 1973: यह किसी प्रतिबंध या निषेध का सर्वोच्च शक्ति अथवा स्रोत नहीं है, लेकिन संविधान के कानूनों और प्रावधानों की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- LIC ऑफ इंडिया मामला, 1995: सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः माना कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है।
- 42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976
- केशवानंद भारती मामले के फैसले के बाद यह स्वीकार किया गया कि यह भारतीय संविधान का हिस्सा है।
- संविधान के एक भाग के रूप में, इसमें संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन किया जा सकता है, बशर्ते कि इसकी मूल विशेषताओं में कोई संशोधन न किया जाए।
- अब तक, प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है, जिसमें प्रस्तावना में तीन नए शब्द – समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जोड़े गए हैं।

प्रस्तावना
- इसे “संविधान की आत्मा” कहा गया है।- ठाकुर दास भार्गव ।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है।
- संविधान की प्रस्तावना संविधान का दर्शन है।
- उद्देश्य प्रस्तावों को के. एम. मुंशी ने संविधान सभा की जन्मकुण्डली कहा।
- हम भारत के लोग- शब्द अमेरिका के संविधान से लिया गया है जिसका अर्थ अन्तिम सत्ता भारतीय जनता में निहित की गई है।
- सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न(सम्प्रभुता) का अर्थ भारत आन्तरिक और बाहरी रूप से निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्रत है। क्रमशः समाजवादी, पथंनिरपेक्ष(धर्म निरपेक्ष), अखण्डता शब्दों को 42 वें सविधान संशोधन 1976 से जोड़ा गया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में एक बार संशोधन किया गया है।
समाजवादी –
- राज्य के सभी आर्थिक और भौतिक या अभौतिक संसाधनों पर अन्तिम रूप से राज्य का अधिकार होगा। ये किसी एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित नहीं होगा।
पंथ निरपेक्षता/धर्म निरपेक्षता-
- राज्य का कोई अपना धर्म नहीं होगा सभी धर्मो का समान आदर किया जायेगा।
लोकतंन्त्र-गणराज्य –
- समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय भाग-4 में वर्णित किये गये है। ये “सर्वे भुवन्त सुखिन सर्वे सुन्त निराभया” के आदर्श वाक्य पर बनाया गया।
- विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास,धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता भाग-3 में वर्णित किये गये है।
- प्रतिष्ठा और अवसर की समानता भाग-3 में वर्णित है।
- व्यक्त् िकी गरिमा(गरिमा पूर्ण जीवन)
- राष्ट्र की एकता और अखण्डता
- संविधान सभा द्वारा संविधान को 26 जनवरी 1949 के दिन अंगीकृत ,अधिनियमित, आत्मापित(आत्मा से अपनाया) है।
- संविधान की प्रस्तावना को न्यायलय में प्रविर्तित नहीं किया जा सकता।
- 1952 को शंकरी प्रसाद बनाम बिहार राज्य में कहा गया कि संविधान की प्रस्तावना इसका अंग नहीं है। तथा ऐसा ही निर्णय 1965 में सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य में आया।
- 1967 के गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य विवाद में न्याययलय ने कहा कि संसद प्रस्तावना सहित मौलिक अधिकारो को परिवर्तीत नहीं किया जा सकता।
- इसके विरोध में 24 वां व 25 वां संविधान संशोधन 1971 लाया गया जिसके कारण न्यायपालिका व कार्यपालिका में विवाद उत्पन्न हुआ।
- समन्वय करने हेतु 1973 में केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य वाद में न्यायलय में कहा कि प्रस्तावना संविधान का अंग है। संसद संविधान में संशोधन कर सकती है। लेकिन ऐसा संशोधन मान्य नहीं होगा जो संविधान की मुल आत्मा को नष्ट करता है। इसे मुल ढांचे का सिद्धान्त कहा जाता है।
मुल ढांचे में –
- सम्प्रभुता
- पंथनिरपेक्षता
- गरिमा पूर्ण जीवन
- संसदीय शासन प्रणाली
- मौलिक अधिकार
- राष्ट्रपति की निर्वाचन पद्वति को रखा गया।
- 1980 का मिनर्वा मिल्क केस(वाद) में भी सर्वोच्च न्यायलय में मुल ढांचे को प्रतिस्थापित(व्याख्या) की।
- आधारभूत विशेषताएँ भारतीय संविधान के प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्प्रुभता,सम्पन्न,समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है।
सम्प्रुभता –
- सम्प्रुभता शब्द का अर्थ है सर्वोच्च या स्वतंत्र. भारत किसी भी विदेशी और आंतरिक शक्ति के नियंत्रण से पूर्णतः मुक्तसम्प्रुभता सम्पन्न राष्ट्र है। यह सीधे लोगों द्वारा चुने गए एक मुक्त सरकार द्वारा शासित है तथा यही सरकार कानून बनाकर लोगों पर शासन करती है।
- भारतीय संविधान की प्रकृति संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने इसको संघात्मक संविधान माना है, परन्तु विद्वानों में मतभेद है। अमेरीकी विद्वान इस को ‘छद्म-संघात्मक- संविधान’ कहते हैं, हालांकि पूर्वी संविधानवेत्ता कहते हैं कि अमेरिकी संविधान ही एकमात्र संघात्मक संविधान नहीं हो सकता। संविधान का संघात्मक होना उसमें निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है, किन्तु माननीय सर्वोच्च न्यायालय (पी कन्नादासनवाद) ने इसे पूर्ण संघात्मक माना है।
समाजवाद –
- समाजवादी शब्द संविधान के १९७६ में हुए ४२वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करता है। जाति, रंग, नस्ल, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना सभी को बराबर का दर्जा और अवसर देता है। सरकार केवल कुछ लोगों के हाथों में धन जमा होने से रोकेगी तथा सभी नागरिकों को एक अच्छा जीवन स्तर प्रदान करने कीकोशिश करेगी।
- भारत ने एक मिश्रित आर्थिक मॉडल को अपनाया है। सरकार ने समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई कानूनों जैसे अस्पृश्यता उन्मूलन, जमींदारी अधिनियम, समान वेतन अधिनियम और बाल श्रम निषेध अधिनियम आदि बनाया है।
- शक्ति विभाजन यह भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है, राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती हैं। दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नही होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती हैं।
धर्मनिरपेक्षता –
- धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान के १९७६ में हुए ४२वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह सभी धर्मों की समानता और धार्मिक सहिष्णुता सुनिश्चीत करता है। भारत का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। यह ना तो किसी धर्म को बढावा देता है, ना ही किसी से भेदभाव करता है। यह सभी धर्मों का सम्मान करता है व एक समान व्यवहारकरता है। हर व्यक्ति को अपने पसन्द केकिसी भी धर्म का उपासना, पालन औरप्रचार का अधिकार है। सभी नागरिकों,चाहे उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी हो कानून की नजर में बराबर होते हैं। सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में कोई धार्मिक अनुदेश लागू नहीं होता।
- संविधान की सर्वोचता संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते हैं। केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद निम्न दिए गए हैं|
- अनुच्छेद 54,55,73,162,241।
- भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्चन्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंध।
- अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची।
- राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व।
- संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो मे संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यो की सहमति भी चाहिए।
अन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धितनहीं हैं
- लिखित संविधान अनिवार्य रूप सेलिखित रूप मे होगा क्योंकि उसमे शक्ति विभाजन का स्पषट वर्णन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित संविधान अवश्यहोगा।
- संविधान की कठोरता इसका अर्थ हैसंविधान संशोधन मे राज्य केन्द्र दोनोभाग लेंगे।
- न्यायालयो की अधिकारिता – इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून कीव्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगे।
विधि द्वारा स्थापित
- न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो केविभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे।
- न्यायालय संिधान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत मे यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है।ये पांच शर्ते किसी संविधान को संघात्मकबनाने हेतु अनिवार्य है। भारत मे ये पांचों लक्षण संविधान मे मौजूद है अत्ः यह संघात्मक हैं। परंतु भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताए भी है।
- लोकतंत्र – भारत एक स्वतंत्र देश है, किसी भी जगह से वोट देने की आजादी, संसद में अनुसूचित सामाजिक समूहों और अनुसूचितजनजातियों को विशिष्ट सीटें आरक्षित की गई है। स्थानीय निकाय चुनाव में महिला उम्मीदवारों के लिए एक निश्चित अनुपात में सीटें आरक्षित की जाती है। सभी चुनावों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का एक विधेयक लम्बित है। हांलाकि इसकीक्रियांनवयन कैसे होगा, यह निश्चित नहीं हैं। भारत का चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए जिम्मेदारहै।
- गणराज्य – राजशाही, जिसमें राज्य के प्रमुख वंशानुगत आधार पर एक जीवन भर या पदत्याग करने तक के लिए नियुक्त कियाजाता है, के विपरित एक गणतांत्रिक राष्ट्र के प्रमुख एक निश्चित अवधि के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित होते है। भारत के राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि के लिए एक चुनावी कॉलेज द्वारा चुने जाते हैं
भारतीय सविधान
संघ सरकार
उपराष्ट्रपति
महान्यायवादी
प्रधानमंत्री एवं मंत्री-परिषद
संसद
उच्चतम न्यायलय
राज्य सरकार
पंचायती राज
जिला परिषद
शहरी स्थानीय स्वशासन
चुनाव आयोग
संघ लोक सेवा आयोग
कन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण
नियन्त्रण एंव महालेखा परिक्षिक
C.B.I. ( सी.बी.आई. )
केन्द्रीय सतर्कता आयोग
लोकायुक्त
लोकपाल
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सामान्य अध्ययन
Haryana
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