धर्म एवं समाज सुधार आन्दोलन
- 19 वी सदी के प्रारम्भ में भारत में पुनर्जागरण की स्थिति आई ।
- राजा राम मोहनराय को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत एवं आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है।
राजाराम मोहनराय
उपाधियाँ :-
- आधुनिक भारत का पिता
- भारतीय पुनर्जागरण का जनक
- अतीत व भविष्य के बीच सेतु
इनके द्वारा स्थापित संगठन
- आत्मीय सभा 1815
- हिन्दु कॉलेज 1817
- वेदान्त कॉलेज 1825
- ब्रिटिश यूनिटेरियन एसोसिएशन
- ब्रह्म समाज 1828
इनकी पुस्तके
- तुहफुतुल – मुहावहिदीन or एकेश्वरवादियों के उपहार
- हिन्दु उत्तराधिकार के नियम
- Precepts of Jesus
समाचार पत्र
- मिरातुल अखबार
- संवाद कौमुदी
- ब्रह्मोनिकल मेंगजीन
अन्य सहयोगी
द्वारिका नाथ टैगोर
ताराचन्द चक्रवती
1843 में देवेन्द्र नाथ टैगोर ने बहा समाज को संभाला
इन्होंने 1839 में तत्वबोधिनी सभा की स्थापना की थी।
पत्रिका – तत्वबोधिनी
संपादक – अक्षय कुमार दत्त
देवेन्द्र नाथ टैगोर ने केशवचन्द्र सेन को ब्रह्म समाज का आचार्य नियुक्त किया ।
1865 में केशवचन्द्र सेन को ब्रह्म समाज से निकाल दिया गया तथा इन्होंने बाद में भारतीय ब्रह्मसमाज की स्थापना की ।
अतः बाद में देवेन्द्र नाथ टैगोर का ब्रह्म समाज, आदि बह्मसमाज कहलाया ।
19 में केशवचन्द्र सेन के प्रयासों से Native Marriage Act पारित हुआा तथा विवाह की न्यूनतम आयु 14 व 18 वर्ष तय की गई ।
केशवचन्द्र सेन ने अपनी नाबालिग पुत्री की शादी कूच बिहार के राजा के साथ कर दी थी इसलिए उनके समर्थकों ने अलग होकर 1878 में साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की।
साधारण ब्रह्म समाज
समर्थक
आनन्द मोहन बोस
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी
द्वारिका नाथ गांगुली
केशवचन्द्र सेन के समाचार पत्र :- Indian Mirror
केशवचन्द्र सेन के संगठन
1. मैत्री सेन (संगत सभा)
2. टेबरनिकल ऑफ न्यू डिस्पेंसन
3. इंडियन रिफॉर्म एसोसिएशन
प्रार्थना समाज (1867)
- महाराष्ट्र में केशवचन्द्र सेन के प्रयासों से स्थापना हुई
संस्थापक :-
- जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे
- आत्माराम पाण्डुरंग
- R.G. भण्डारकर
- चन्द्रावरकर
महादेव गोविन्द रानाडे
- गोखले के राजनीतिक गुरु थे
- इन्हें ‘महाराष्ट्र का सुकरात’ कहा जाता है।
संगठन
- विधवा विवाह संघ (1867)
- पूना सार्वजनिक सभा (1871)
- दक्कन एजुकेशनल सोसायटी (1884) (फर्ग्यूसन कॉलेज, पूणे)
- नेशनल सोशल कॉन्फ्रेस (1887)
- दक्कन एजुकेशनल सोसायटी बाद में फर्ग्यूसन कॉलेज कहलाई ।
- तिलक, गोखले, आगरकर तीनों इस कॉलेज से जुडे थे।
आर्य समाज, 1875 स्वामी दयानन्द सरस्वती
- भार्य समाज की स्थापना वर्ष 1875 में बम्बई में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा की गई ।
- इसका उद्देश्य वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करना । स्वामी जी ने झूठे धर्मों का खण्डन करने के लिए “पाखण्ड खण्डनी पताका” लहराई। इन्होनें “वेदों की और लौटो” का नारा दिया ।
- जन्म 1824 गुजरात के काठियावाड में
- स्वामीजी ने गौधन की रक्षा के लिए “गौरक्षणी सभा की स्थापना की तथा” गौ करुणानिधि नामक पुस्तक की रचना की।
दयानन्द सरस्वती की प्रमुख रचनायें
- सत्यार्थ प्रकाश
- पाखण्ड खण्डन
- वेद भाष्य भूमिका
- ऋग्वेद भाष्य
- अद्वैतमत का खण्डन
- पंचमहायज्ञ विधि आदि ।
रामकृष्ण मिशन, 1887
- रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1887 में कलकत्ता के समीप बारानगर में स्वामी विवेकानंद ने की।
- विवेकानन्द ने 1897 बेलूर (कलकत्ता) में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की ।
वहाबी आन्दोलन
- ईरान में अब्दुल वहाब द्वारा शुरू किया गया था ।
- भारत में सैय्यद अहमद बरेलवी ने लोकप्रिय किया था।
- उदेश्य दारूल हर्ब को दारूल इस्लाम में बदलना |
- प्रारंभ में पंजाब में सिक्खों के खिलाफ था ।
- पंजाब के विलय के बाद अंग्रेजों के खिलाफ हो गया था ।
- यह हिंसक एवं सांप्रदायिक भांदोलन था ।
- कालान्तर में पूर्वी भारत इसका मुख्य केन्द्र हो गया
- यहां के मुख्य नेता (1) हाजी करामात अली (2) शरीयत-उल्ला खां
थियोसोफिकल सोसाइटी
- स्थापना 1875 (न्यूयार्क)
- अंतर्राष्ट्रीय कार्यलय मदास
- ऐनी बेसेन्ट 1889 ने इस सोसाईटी की सदस्य बनी तथा 1907 में अध्यक्ष बनी ।
अलीगढ आन्दोलन
- यह आन्दोलन सर सैय्यद अहमद खां ने चलाया था इन्होनें मुसलमानों में आधुनिकीकरण लाने का प्रयास किया इसलिए कंबोजी शिक्षा का समर्थन किया व अंग्रेजी सरकार के साथ सहयोग किया ।
- इन्होंने कुरान की वैज्ञानिक व्याख्या की ।
- पीर – मुरीदी प्रथा का विरोध किया ।
- बाइबिल पर टीका लिखी ।
संगठन
- 1863 मुहम्मडन लिटरेरी एसोसिएशन
- 1864 साइंटिफिक सोसायटी
- 1875 एंग्लो- कोरियन्टल मोहम्मडन कॉलेज
- यही 1920 में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना ।
- 1888 देशभक्त एसोसिएशन नामक पार्टी बनाई ।
- बनारस के राजा शिवप्रसाद के साथ मिलकर बनाई थी ।
- यह कांग्रेस की विरोधी संस्था थी ।
समाचार पत्र
- तहजीब उल अखलाक
- राजभक्त मुसलमान
अहमदिया आन्दोलन
- स्थापना 1889
- स्थान गुरुदासपुर के कादिया नामक स्थान पर
- संस्थापक – मिर्जा गुलाम अहमद
- रहनुमाई मजदेसन / रहनुमा-ए-माजदा-ए-सभा
(पारसी) :-
- स्थापना वर्ष – 1851
संस्थापक सदस्य
- नौरोजी फरदीन जी, दादाभाई नौरोजी, आर. के. कामा, एस. एस. बंगाली इस संस्था ने ‘रास्त गोफ्तार’ (सत्यवादी) नामक पत्रिका का प्रकाशन किया परमहंस मण्डली की स्थापना महाराष्ट्र में गोपाल हरिदेश मुख (लोकहितवादी) ने की।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण जानकारी
सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन
सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन क्या हैं?
- 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय समाज जाति आधारित, पतनशील और प्रतिगामी था।
- यहाँ कुछ प्रथाओं का पालन किया जाता था जो मानवीय भावनाओं या मूल्यों के अनुरूप नहीं थे, लेकिन फिर भी धर्म के नाम पर उनका पालन किया जा रहा था।
- कुछ प्रबुद्ध भारतीयों जैसे– राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और कई अन्य ने समाज में सुधार लाना शुरू किया ताकि पश्चिम की चुनौतियों का सामना किया जा सके।
- सुधार आंदोलनों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- सुधारवादी आंदोलन जैसे- ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, अलीगढ़ आंदोलन।
- आर्य समाज और देवबंद आंदोलन जैसे- पुनरुत्थानवादी आंदोलन।
- सुधारवादी और पुनरुत्थानवादी आंदोलन अलग-अलग स्तर पर धर्म की खोई हुई शुद्धता की अपील पर निर्भर थे, जिसे वे सुधारना चाहते थे।
- एक-दूसरे सुधार आंदोलन के बीच एकमात्र अंतर यह था कि यह किस हद तक परंपरा या तर्क और विवेक पर निर्भर था।
वे कौन से कारक हैं जिन्होंने सुधार आंदोलनों को जन्म दिया?
- भारतीय धरती पर औपनिवेशिक सरकार की उपस्थिति: जब अंग्रेज़ भारत आए तो उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा के साथ-साथ कुछ आधुनिक विचारों को भी पेश किया।
- ये विचार स्वतंत्रता, सामाजिक और आर्थिक समानता, बंधुत्व, लोकतंत्र व न्याय थे जिनका भारतीय समाज पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा।
- धार्मिक और सामाजिक कुरीतियाँ: उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज धार्मिक अंधविश्वासों और सामाजिक रूढ़िवाद के एक दुष्चक्र में फँस गया था।
- महिलाओं की निराशाजनक स्थिति: सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति महिलाओं की थी।
- जन्म के समय कन्या शिशुओं की हत्या प्रथा प्रचलित थी।
- समाज में बाल विवाह की प्रथा थी।
- बहुविवाह की प्रथा देश के कई हिस्सों में प्रचलित थी।
- विधवा पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी और सती प्रथा बड़े पैमाने पर प्रचलित थी।
- शिक्षा का प्रसार और विश्व में जागरूकता बढ़ी: 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से कई यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने प्राचीन भारत के इतिहास, दर्शन, विज्ञान, धर्म और साहित्य का अध्ययन करना शुरू किया।
- भारत के अतीत के गौरव के प्रति बढ़ते ज्ञान ने भारतीय लोगों में अपनी सभ्यता पर गर्व की भावना पैदा की।
- इसने सभी प्रकार की अमानवीय प्रथाओं, अंधविश्वासों आदि के खिलाफ धार्मिक और सामाजिक सुधार के लिये संघर्ष में इन सुधारकों की मदद की।
- बाहरी दुनिया के बारे में जागरूकता: उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों के दौरान राष्ट्रवाद और लोकतंत्र का बढ़ता ज्वार भारतीय सामाजिक संस्थानों और धार्मिक दृष्टिकोण में सुधार के रूप में अभिव्यक्त हुआ।
- राष्ट्रवादी भावनाओं में वृद्धि, नई आर्थिक ताकतों का उदय, शिक्षा का प्रसार, आधुनिक पश्चिमी विचारों और संस्कृति के प्रभाव तथा दुनिया में बढ़ती जागरूकता जैसे- कारकों ने सुधार के संकल्प को मज़बूती प्रदान की।
ब्रह्म समाज आंदोलन क्या था?
- राजा राम मोहन राय ने वर्ष 1828 में ब्रह्म सभा की स्थापना की, जिसे बाद में ब्रह्म समाज का नाम दिया गया।
- इसका मुख्य उद्देश्य शाश्वत भगवान की पूजा करना था। यह पुरोहिती, कर्मकांडों और बलिदानों के विरुद्ध था।
- यह प्रार्थना, ध्यान और शास्त्रों के पढ़ने पर केंद्रित था। यह सभी धर्मों की एकता में विश्वास करता था।
- यह आधुनिक भारत में पहला बौद्धिक सुधार आंदोलन था। इससे भारत में तर्कवाद और ज्ञान का उदय हुआ जिसने परोक्ष रूप से राष्ट्रवादी आंदोलन में योगदान दिया।
- यह आधुनिक भारत के सभी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आंदोलनों का अग्रदूत बना। वर्ष 1866 में यह दो भागों में विभाजित हो गया, अर्थात् केशव चंद्र सेन के नेतृत्व में भारत का ब्रह्म समाज और देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में आदि ब्रह्म समाज।
- प्रमुख नेता: देबेंद्रनाथ टैगोर, केशव चंद्र सेन, पं. शिवनाथ शास्त्री और रवींद्रनाथ टैगोर।
- देवेंद्र नाथ टैगोर ने तत्त्वबोधिनी सभा (वर्ष 1839 में स्थापित) का नेतृत्व किया, जो बांग्ला में अपने अंग तत्त्वबोधिनी पत्रिका के तर्कसंगत दृष्टिकोण के साथ भारत के अतीत के व्यवस्थित अध्ययन और राम मोहन राय के विचारों के प्रचार के लिये समर्पित थी।
- राम मोहन राय को अपने प्रगतिशील विचारों के कारण राधाकांत देब जैसे रूढ़िवादी तत्वों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा जिन्होंने ब्रह्म समाज के प्रचार का मुकाबला करने के लिये धर्म सभा का आयोजन किया।
प्रार्थना समाज क्या था?
- तर्कसंगत पूजा और सामाजिक सुधार के उद्देश्य से वर्ष 1876 में डॉ. आत्मा राम पांडुरंग द्वारा बॉम्बे में प्रार्थना समाज की स्थापना की गई थी।
- इस समाज के दो महान सदस्य- आर.सी. भंडारकर और न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे थे।
- उन्होंने खुद को सामाजिक सुधार के काम के लिये समर्पित कर दिया जैसे कि अंतर्जातीय भोजन, अंतर्जातीय विवाह, विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं एवं दलित वर्गों की स्थिति में सुधार।
- प्रार्थना समाज का चार सूत्री सामाजिक एजेंडा था:
- जाति व्यवस्था की अस्वीकृति
- महिला शिक्षा
- विधवा पुनर्विवाह
- पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिये शादी की उम्र बढ़ाना
- महादेव गोविंद रानाडे विधवा पुनर्विवाह संघ (वर्ष 1861) और डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी के संस्थापक थे।
- उन्होंने पूना सार्वजनिक सभा की भी स्थापना की।
- रानाडे के लिये धार्मिक सुधार सामाजिक सुधार से अविभाज्य था।
- उनका यह भी मानना था कि यदि धार्मिक विचार कठोर होते तो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में कोई सफलता नहीं मिलती।
- यद्यपि प्रार्थना समाज, ब्रह्म समाज के विचारों से शक्तिशाली रूप से प्रभावित था, इसने मूर्ति पूजा के बहिष्कार और जाति व्यवस्था समाप्त करने पर अत्यधिक ज़ोर नहीं दिया।
सत्यशोधक समाज क्या था?
- ज्योतिबा फुले ने उच्च जाति के वर्चस्व और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ एक शक्तिशाली आंदोलन का आयोजन किया।
- उन्होंने वर्ष 1873 में सत्यशोधक समाज (सत्य साधक समाज) की स्थापना की।
- आंदोलन के मुख्य उद्देश्य थे:
- समाज सेवा।
- महिलाओं और निचली जाति के लोगों के बीच शिक्षा का प्रसार।
- फुले की रचनाएँ, सार्वजनिक सत्यधर्म और गुलामगिन आम जनता के लिये प्रेरणा स्रोत बने।
- फुले ने ब्राह्मणों के राम के प्रतीक के विपरीत राजा बलि के प्रतीक का इस्तेमाल किया।
- फुले का उद्देश्य जाति व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को पूरी तरह से समाप्त करना था।
- इस आंदोलन ने दलित समुदायों के बीच ब्राह्मणों को एक ऐसे वर्ग के रूप में पेश किया जिन्हें शोषक के तौर पर देखा जाता था।
आर्य समाज आंदोलन क्या था?
- पश्चिमी प्रभावों की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप आर्य समाज सुधारवादी न होकर पुनरुत्थानवादी था।
- पहली आर्य समाज इकाई औपचारिक रूप से दयानंद सरस्वती द्वारा वर्ष 1875 में बॉम्बे में स्थापित की गई थी और बाद में इसका मुख्यालय लाहौर में स्थापित किया गया था।
- आर्य समाज के मार्गदर्शक सिद्धांत हैं:
- परमेश्वर सच्चे ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है।
- ईश्वर, सर्व-सत्य, सर्व-ज्ञान, सर्वशक्तिमान, अमर, ब्रह्मांड का निर्माता, पूजा के योग्य है।
- वेद सच्चे ज्ञान के ग्रंथ हैं।
- एक आर्य को हमेशा सत्य को स्वीकार करने और असत्य को त्यागने के लिये तैयार रहना चाहिये।
- धर्म अर्थात् सही और गलत का उचित विचार, सभी कार्यों का मार्गदर्शक सिद्धांत होना चाहिये।
- समाज का मुख्य उद्देश्य भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक अर्थों में दुनिया की भलाई को बढ़ावा देना है।
- सभी के साथ प्रेम और न्याय का व्यवहार किया जाना चाहिये।
- अज्ञान को दूर करना और ज्ञान को बढ़ाना।
- स्वयं की प्रगति अन्य सभी के उत्थान पर निर्भर होनी चाहिये।
- मानव जाति के सामाजिक कल्याण को व्यक्ति की भलाई से ऊपर रखा जाना चाहिये।
- इस आंदोलन का केंद्र दयानंद एंग्लो-वैदिक (डीएवी) स्कूल था जो पहली बार वर्ष 1886 में लाहौर में स्थापित किया गया था। इसने पश्चिमी शिक्षा के महत्त्व पर जोर देने की मांग की थी।
- आर्य समाज हिंदुओं में आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास जगाने में सक्षम था जिसने गोरों की श्रेष्ठता और पश्चिमी संस्कृति के मिथक को कमज़ोर करने में मदद की।
- आर्य समाज ने ईसाई और इस्लाम में धर्मान्तरित लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाने के लिये शुद्धि आंदोलन शुरू किया।
- इससे 1920 के दशक के दौरान सामाजिक जीवन का सांप्रदायिकरण बढ़ा और बाद में यह सांप्रदायिक राजनीतिक चेतना में बदल गया।
- स्वामी दयानंद की मृत्यु के बाद उनके कार्यों को लाला हंसराज, पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद ने आगे बढ़ाया।
- स्वामी दयानंद के विचार उनकी प्रसिद्ध कृति सत्यार्थ प्रकाश (द ट्रू एक्सपोज़िशन) में प्रकाशित हुए थे।
यंग बंगाल मूवमेंट क्या था?
- यंग बंगाल मूवमेंट या युवा बंगाल आंदोलन कलकत्ता के हिंदू कॉलेज के विचारकों के नेतृत्व आयोजित आंदोलन था। इन विचारकों को डेरोजियन्स के नाम से भी जाना जाता था।
- यह नाम उन्हें उसी कॉलेज के एक शिक्षक हेनरी लुई विवियन डेरोजियो के नाम पर दिया गया था।
- डेरोजियो ने अपने शिक्षण के माध्यम से और साहित्य, दर्शन, इतिहास तथा विज्ञान पर बहस व चर्चा के लिये एक संघ का आयोजन करके अपने विचारों को बढ़ावा दिया।
- उन्होंने फ्राँसीसी क्रांति (वर्ष 1789 ई.) के आदर्शों और ब्रिटेन की उदारवादी सोच को विस्तारित करने का प्रयास किया।
- डेरोजियन्स ने भी महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा का समर्थन किया।
- उनकी सीमित सफलता का मुख्य कारण उस समय की प्रचलित सामाजिक स्थिति थी, जो इन विचारों को अपनाने के लिये परिपक्व नहीं थी।
- इसके अलावा किसी अन्य सामाजिक समूह या वर्ग से समर्थन न मिलना था।
- उदाहरण के लिये डेरोजियन्स का जनता के साथ कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था, वे किसानों के मुद्दे को उठाने में विफल रहे।
- वास्तव में उनके विचार किताबी थे लेकिन अपनी सीमाओं के बावजूद डेरोजियन्स ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सवालों पर राय की सार्वजनिक शिक्षा की परंपरा को आगे बढ़ाया।
रामकृष्ण आंदोलन क्या था?
- रामकृष्ण परमहंस एक रहस्यवादी थे जिन्होंने त्याग, ध्यान और भक्ति के पारंपरिक तरीकों से धार्मिक मुक्ति मांगी।
- वह एक ऐसे संत थे जिन्होंने सभी धर्मों की मौलिक एकता को पहचाना और इस बात पर ज़ोर दिया कि ईश्वर और मोक्ष प्राप्ति के कई रास्ते हैं तथा मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।
- रामकृष्ण परमहंस के शिक्षण ने रामकृष्ण आंदोलन का आधार निर्मित किया।
- आंदोलन के दो उद्देश्य थे:
- त्याग और व्यावहारिक आध्यात्मिक जीवन के लिये समर्पित संतों के समूह को एक साथ लाना, जिनमें शिक्षकों और कार्यकर्ताओं को रामकृष्ण के जीवन के बारे में सचित्र वेदांत के सार्वभौमिक संदेश को फैलाने के लिये भेजा जाता था।
- सामान्य शिष्यों के साथ मिलकर सभी पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को, चाहे वे किसी भी जाति, पंथ या वर्ण के हों, ईश्वर की वास्तविक अभिव्यक्ति के रूप में उपदेश, परोपकारी और धर्मार्थ कार्यों को जारी रखने के लिये।
- स्वामी विवेकानंद ने वर्ष 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जिसका नाम उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा गया। इस संस्था ने भारत में व्यापक स्तर पर शैक्षिक और परोपकारी कार्य किये।
- स्वामी विवेकानंद ने वर्ष 1893 में शिकागो (यू.एस.) में आयोजित पहली धर्म संसद में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
- उन्होंने मानवीय राहत और सामाजिक कार्यों के लिये रामकृष्ण मिशन का इस्तेमाल किया।
- मिशन अब भी धार्मिक और सामाजिक सुधार के लिये प्रतिबद्ध है। विवेकानंद ने सेवा के सिद्धांत-सभी प्राणियों की सेवा की वकालत की।
- उनका कहना था कि नर की सेवा (जीवित वस्तुओं) ही नारायण की पूजा है। जीवन ही धर्म है।
- सेवा से ही मनुष्य के भीतर परमात्मा विद्यमान रहता है। विवेकानंद मानव जाति की सेवा में प्रौद्योगिकी और आधुनिक विज्ञान के उपयोग के पक्षधर थे।
धर्म सुधार आंदोलन के कारण, महत्व और परिणाम
धर्म सुधार आंदोलन
धर्म सुधार आंदोलन की शुरुआत 16 वीं सदी के प्रारंभ में यूरोप में हुआ, जिसके नेतृत्वकर्ता मार्टिन लूथर थें। पुनर्जागरण से उपजी चेतना के परिणामस्वरूप 16वीं से 17वीं शताब्दी के यूरोप में पोप एवं रोमन कैथोलिक चर्च के बुराइयों के खिलाफ सुधार के लिए जो आंदोलन चलाया गया, उसे ही धर्म सुधार आंदोलन कहा जाता है।
प्रारम्भ में यह आंदोलन मात्र एक धार्मिक आंदोलन था परंतु कुछ ही समय में इस आन्दोलन में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि पहलु भी शामिल हो गए।
धर्म सुधार आंदोलन का उद्देश्य
धर्म सुधार आंदोलन का उद्देश्य धार्मिक तथा राजनीतिक दोनों ही था।
- धार्मिक उद्देश्य -ईसाइयों के धार्मिक तथा नैतिक जीवन में सुधार करने के साथ-साथ ईसाई धर्म में पनप रहे पाखंड को समाप्त कर उसे पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करना था।
- राजनीतिक उद्देश्य – पोप के व्यापक धार्मिक एवं राजनीतिक प्रभुता को समाप्त करना था।अतः पोप तथा चर्च के विरोध में यूरोप में जो आंदोलन चलाया गया उसे ही धर्म सुधार आंदोलन कहते हैं।
इतिहासकार “फर्डिनेण्ड शेविल” के अनुसार
“यथार्थ में यह एक द्विउद्देशीय आन्दोलन था। एक ओर इसका उद्देश्य ईसाइयों के जीवन का मौलिक उत्थान करना था तथा दूसरी ओर पोप की सत्ता को कम करना था।”
धर्म सुधार आंदोलन के प्रमुख कारण
धार्मिक कारण
- मध्य काल के अंतिम समय में रोमन कैथोलिक चर्च के अंदर आए बुराइओं के कारण असंतोष बढ़ रहा था।
- पोप एवं अनेक पादरी जुआ, शराब एवं व्यभिचार आदि में लिप्त हो गए।
- पोप धार्मिक क्षेत्र में सर्वोपरि था इसलिए वह स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि समझता था। उसे अधिकार था कि किसी को भी धर्म से बहिष्कृत कर सकता था तथा किसी भी राजा को उसके गद्दी से हटा सकता था।
- कैथोलिक चर्च को पवित्रता एवं धार्मिक चिंतन का केंद्र माना जाता था। परन्तु पोप एवं पादरी की विलासिता और धन की अधिकता के कारण चर्च भ्रष्टाचार एवं दुराचार का केंद्र बन गया।
- चर्च के विभिन्न पदों पर नियुक्ति अब योग्यता के आधार पर न होकर धन के आधार पर होने लगी।
- चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण कोई भी व्यक्ति रिश्वत देकर कानूनी प्रतिबंधों से मुक्त हो सकता था।
आर्थिक कारण
- 16वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में यूरोप में पूंजीवादी भावना का विकास हुआ।
- नए-नए रास्तों के खोज के कारण दूसरे देशों के साथ व्यापार आसान हो गया।
- कैथोलिक चर्च के पास समस्त यूरोप के भूमि का लगभग 20% हिस्से पर कब्जा था तथा चर्च इस भूमि पर किसानों से कर वसूल करता था।
- धार्मिक संस्कारों के नाम पर व्यापारी तथा किसानों पर अनेक प्रकार के कर लगाए जाते थें। जिसके कारण व्यापारी तथा किसानों में आक्रोश उत्पन्न हुआ।
- चर्च समुद्र यात्रा, संपत्ति संग्रहण आदि की निंदा करता था, जिससे स्वतंत्र व्यापार वाणिज्य के विकास पर चोट पहुंचती थी।
- पोप के प्रति उत्तरदाई होने के कारण राजा भी व्यापारियों को सुरक्षा नहीं दे पाते थें।
- चर्च में फैले भ्रष्टाचार के कारण पोप और पादरी चर्च की संपत्ति पर अपना व्यक्तिगत अधिकार समझते थें। अतः वह चर्च की धनराशि को चर्च पर खर्च न कर अपनी विलासिता तथा शानो-शौकत पर खर्च करते थें।
- देश की आय का एक बड़ा हिस्सा रोम के चर्च के कोषागार में चला जाता था। अतः चर्च के भ्रष्टाचार का सीधा संबंध जनता के आर्थिक शोषण से था। फलतः इसके खिलाफ आवाज उठाई गयी।
राजनीतिक कारण
- मध्यकाल में चर्च राजनीतिक रूप से भी काफी शक्तिशाली हो गए थें, उनकी खुद की अपनी धार्मिक अदालतें थीं, जिसमें निर्दोष को भी सजा दे दी जाती थी।
- राजनीति में हस्तक्षेप के कारण चर्च तथा राजाओं में तनाव उत्पन्न हुआ, इससे शासकों ने भी चर्च में सुधार के लिए कदम उठाए।
- इस समय पोप की शक्ति इतनी बढ़ चुकी थी, कि वह किसी राजा को भी धर्म से बहिष्कृत कर सकता था तथा इस समय धर्म से अलग होना एक बहुत बड़ी सजा मानी जाती थी।
- कहां जाता है कि यूरोप के प्रत्येक राज्य में चर्च का एक अपना अस्तित्व होता था। अर्थात सरल शब्दों में कहें तो चर्चा ही सर्वोपरि था।
- इस समय सभी से धार्मिक कर वसूला जाता था, जिससे पोप और पादरी मुक्त रहते थें।
- पोप और पादरी चर्च में पदों का बटवारा भी अपने सगे संबंधियों के साथ करने लगें।
विचारकों की भूमिका
- नवीनतम युग में धर्म सुधार आंदोलन को लाने में अनेक विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसमें मार्टिन लूथर, काल्विन, इरास्मस, जॉन कालेट, थॉमस मूर आदि ने महत्वपूर्ण हैं।
- मार्टिन लूथर जर्मनी के विटेनबर्ग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे, इन्होनें चर्च की बुराइयों की एक लंबी सूची (95 उपदेश) को विश्वविद्यालय के दीवार पर चिपका दिया। इस सूची में चर्च के खिलाफ गंभीर सवाल उठाए गए छात्रों एवं शिक्षकों ने इसका प्रचार किया धीरे-धीरे नागरिकों के बीच भी इसका प्रसार हुआ। देखते ही देखते इस घटना ने आंदोलन का रूप ले लिया।
- फलतः धर्म सुधार के लिए एक व्यापक आंदोलन उठ खड़ा हुआ।
पुनर्जागरण का प्रभाव
धर्म सुधार आंदोलन में पुनर्जागरण का प्रभाव भी रहा। जैसे:-
- पुनर्जागरण के काल में मानवतावाद, व्यक्तिवाद, बुद्धिमान और तर्कशीलता में विकास के कारण लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ।
- इस कल के दौरान ग्रीक और रोमन साहित्य के अध्ययन पर बल दिया गया।
- 1453 में क़ुस्तुंतुनिया के पतन के कारण जैसे ही तुर्कों ने क़ुस्तुंतुनिया पर अपना अधिकार जमाया, अनेकों यूनानी एवं बुद्धिजीवी वर्ग क़ुस्तुंतुनिया छोड़कर यूरोप (इटली) चले गए। जिससे नए–नए रास्तों का खोज हुआ तथा इससे व्यापार एवं वाणिज्य में वृद्धि हुई। जैसे – कोलंबस ने अमेरिका तथा वास्कोडिगामा ने भारत की खोज की।
- पुनर्जागरण के कारण चर्च एवं पोप के बारे में सही ज्ञान प्राप्त होने से धर्म के स्थान पर मानवतावाद को बल मिला।
तात्कालिक कारण
- चर्च द्वारा खुलेआम “क्षमापत्रों” की बिक्री करना ही, धर्म सुधार आन्दोलन का तात्कालिक कारण बना।
- पोप द्वारा जनता को यह विश्वास दिलाया गया था कि, उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में चाहे कितने भी भ्रष्टाचार क्यूँ न किया हो परंतु क्षमा पत्र प्राप्त करने के पश्चात उन्हें नरक की प्राप्ति नहीं होगी बल्कि उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी अर्थात कोई भी व्यक्ति इन क्षमतापत्रों के द्वाराअपने किए गए पापों से मुक्त हो सकता था।
- इन क्षमतापत्रों का कोई मूल्य निश्चित नहीं किया गया था अतः खरीदने वाले की क्षमता पर यह निर्भर करता था कि किसके पास कितने पैसे हैं। जिसके कारण इसका काफी दुरूपयोग हुआ।
- जब इन क्षमता पत्रों की बिक्री जर्मनी के ब्रिटेनवर्ग में खुलेआम होने लगी तब “मार्टिन लूथर” ने इस प्रथा का विरोध किया। उन्होंने 95 उपदेशों की एक सूची तैयार की जिसके माध्यम से उन्होंने चर्च के खिलाफ आवाज़ उठाया, जिससे जनता में जागरूकता आई और इसने आगे चलकर धर्म सुधार आन्दोलन का रूप ले लिया।
धर्म सुधार आंदोलन का महत्व अथवा परिणाम
धर्म सुधार आंदोलन के कारण यूरोप में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक परिवर्तन आए। यहीं से यूरोप में आधुनिकीकरण की शुरुआत भी हुई। धर्म सुधार आंदोलन के फलस्वरूप यूरोप में एक नया वर्ग प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय हुआ।
- ईसाई चर्च की एकता समाप्त हुई तथा प्रोटेस्टेंट धर्म की स्थापना हुई। इसके अंतर्गत अनेक संप्रदाय काल्विनवाद, लूथरवाद और एग्लिकन चर्च आदि स्थापित हुए।
- यूरोप में धार्मिक कट्टरता तथा अत्याचारों में वृद्धि हुई। प्रत्येक संप्रदाय एक दूसरे के विरोधी थें तथा अपने विरोधियों को खत्म कर देना चाहते थें। राजाओं ने भी धार्मिक एकता के राजनीतिक एकता के लिए आवश्यक समझा।
- धार्मिक असहिष्णुता के कारण राज्यों के मध्य युद्ध हुए जैसे पहले हॉलैंड का युद्ध और बाद में 30 वर्षीय युद्ध (1618ई.-1648ई.) धार्मिक कारणों से ही हुआ।
- पोप पादरियों ने कला के विकास को काफी प्रोत्साहन दिया था परंतु प्रोटेस्टेंट देश में कला को कोई प्रोत्साहन प्राप्त नहीं हुआ। अतः यहाँ कल की अवनति होने लगी।
- धर्म सुधार आंदोलन से राजाओं की शक्ति में वृद्धि हुई क्योंकि प्रोटेस्टेंट राजा पोप की शक्ति को नहीं मानते थें। अतः कैथोलिक राजा भी निरंकुश हो गए क्योंकि पोप उनकी सहायता पर निर्भर करते थें।
- इस आंदोलन से राष्ट्रीय भावना अधिक सुदृढ़ हुई। कैथोलिक राजाओं ने यद्यपि पोप का समर्थन किया परंतु उन्होंने राष्ट्रीय हित को अधिक महत्व दिया।
- इस आंदोलन के कारण शिक्षा में व्यापक प्रसार हुआ क्योंकि कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों ही अपने धर्म का प्रसार करने के लिए शिक्षा को आवश्यक मानते थें।
सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन एवं उसके नेता
- 18 वीं शताब्दी में भारत में जिन सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों एवं उनसे सम्बंधित महापुरुषों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वे निम्नलिखित हैं-
ब्रह्मसमाज
ब्रह्मसमाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंने 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का पिता माना जाता है। राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त मध्ययुगीन बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने भी ब्रह्मसमाज को अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उन्होंने ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया था। केशवचन्द्र सेन का बहुत अधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही आगे चलकर ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना।
राजा राममोहन राय
राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई. को बंगाल के हुगली ज़िले में स्थित ‘राधा नगर’ में हुआ था। इन्हें फ़ारसी, अरबी, संस्कृत जैसे प्राच्य भाषाओं एवं लैटिन, यूनानी, फ़्राँसीसी, अंग्रेज़ी, हिब्रू जैसी पाश्चात्य भाषाओं में निपुणता प्राप्त थी। पटना तथा वाराणसी में अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होंने 1803 ई. से 1814 ई. तक कम्पनी में नौकरी की। राजा राममोहन राय ने एकेश्वरवाद में विश्वास व्यक्त करते हुए मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद का विरोध किया। इन्होंने कर्म के सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म पर कोई निश्चित मत नहीं व्यक्त किया। राजा राममोहन राय ने धर्म ग्रंथों को मानवीय अन्तरात्मा तथा तर्क के ऊपर नहीं माना। राजा राममोहन राय के उपदेशों का सार ‘सर्वधर्म समभाव’ था।
राजा राममोहन का योगदान
राजा राममोहन राय ने कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएँ भी की हैं, उनकी कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं- ‘तुहफतुल-मुवाहिद्दीन’, ‘गिफ़्ट द मोनाथेइस्ट्स’ (1809 ई. में पारसी में प्रकाशित), ‘पीसेप्टस ऑफ़ जीसस’ आदि। इन्होंने ‘संवाद कौमुदी’ का भी सम्पादन किया। राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में हिन्दू धर्म के एकेश्वरवादी मत के प्रचार हेतु आत्मीय सभा का गठन किया, जिसमें द्वारकानाथ टैगोर शामिल थे। 1815 ई. में इन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने अपने समय में भारतीय समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों में सर्वाधिक प्रखर आन्दोलन सती प्रथा के विरुद्ध चलाया। 1829 ई. में भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा सती प्रथा को प्रतिबंधित करने के लिए लगाए गए क़ानून को लागू करवाने में राजा राममोहन राय ने सरकार की मदद की। राजा राममोहन राय ने पाश्चात्य शिक्षा के प्रति अपना समर्थन जताते हुए कहा कि, ‘यह हमारे सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है।’ 1817 ई. में डेविड हेयर की सहायता से कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गई।
राजा राममोहन राय को भारत में पत्रकारिता का अग्रदूत माना जाता है। इन्होंने समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता का समर्थन किया था। भारत की स्वतंत्रता के बारे में उनका मत था कि, भारत को तुरन्त स्वतंत्रता न लेकर प्रशासन में हिस्सेदारी लेना चाहिए। अतः राजा राममोहन राय ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। इन्होंने भारत में पूंजीवाद का समर्थन किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय के विषय में कहा कि, ‘राजा राममोहन राय अपने समय में सम्पूर्ण मानव समाज में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आधुनिक युग के महत्व को पूरी तरह समझा।’ राजा राममोहन राय ने भारतीय स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया। सन 1814 में राजाराम मोहन राय ने “आत्मीय सभा” की स्थापना की। वो 1828 में ब्राह्म समाज के नाम से जाना गया। 1821 ई. में स्पेनिश अमेरिका में क्रांति के सफल होने पर राजा जी ने एक सार्वजनिक भोज का आयोजन कर अपनी खुशी को व्यक्त किया। इन्हीं सब कारणों से राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व को एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ माना जाता है।
1850 ई. में मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय ने राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि के साथ अपने दूत के रूप में तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में भेजा। इन्हें ब्रिटिश सम्राट से मुग़ल बादशाह को मिलने वाली पेंशन की राशि को बढ़ाने की बात करनी थी। यहीं पर ब्रिस्टल में 27 सितम्बर, 1833 ई. को राजा राममोहन राय की मृत्यु हो गयी।
सुभाषचन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि से सम्मानित किया था।
राजा राममोहन राय के बाद ब्रह्मसमाज
कालान्तर में देवेन्द्रनाथ टैगोर (1818-1905 ई.) ने ब्रह्मसमाज को आगे बढ़ाया और उन्होंने तीर्थयात्रा, मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड आदि की आलोचना की। इनके द्वारा ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया गया। केशवचन्द्र सेन (1834-1884 ई.) ने अपनी वाक्पटुता एवं उदारवादी दृष्टिकोण से इस आंदोलन को बल प्रदान किया। इनके ही प्रयासों के फलस्वरूप ब्रह्मसमाज की शाखाएँ उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं मद्रास में खोली गयी। केशवचन्द्र सेन का अत्यधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही कालान्तर में ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना। 1865 ई. में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र को ब्रह्मसमाज से बाहर निकाल दिया।
तत्वबोधिनी सभा
राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज की गतिविधियों का संचालन द्वारिकानाथ टैगोर तथा पंडित रामचन्द्र विद्यावगीश ने किया। इनके बाद द्वारिकानाथ के पुत्र देवेन्द्रनाथ टैगोर ने (1818-1905 ई.) ब्रह्मसमाज की गतिविधयों को जारी रखा। ब्रह्मसमाज में शामिल होने से पहले देवेन्द्रनाथ ने कलकत्ता के जोरासांकी में ‘तत्वरंजिनी सभा’ की स्थापना की। बाद में ‘तत्वरंजिनी’ ही ‘तत्वबोधिनी सभा’ के रूप में परिवर्तित हो गयी। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने तत्वबोधिनी सभा से जुड़ी पत्रिका ‘तत्वबोधिनी’ का प्रारम्भ किया। इसके सम्पादक ‘अक्षय कुमार दत्त’ थे। 1840 ई. में तत्वबोधिनी स्कूल की स्थापना हुई, अक्षय कुमार इसके अध्यापक पद पर नियुक्त हुये। इस स्कूल के अन्य सदस्यों में राजेन्द्र लाल मित्र, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ताराचन्द्र चक्रवर्ती तथा प्यारेचन्द्र मित्र आदि थे।
संगत सभा की स्थापना
21 दिसम्बर, 1843 ई. को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की तथा उत्साह के साथ राजा राममोहन राय के विचारों को प्रचारित किया। देवेन्द्रनाथ ने अलेक्ज़ेंडर डफ़ द्वारा भारतीय संस्कृति पर किए जा रहे ईसाई धर्म के प्रचार के प्रहार के विरुद्ध संघर्ष किया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ‘ब्रह्म धर्म’ नामक धार्मिक पुस्तिका का संकलन किया तथा उपासना के ब्रह्म स्वरूप ब्रह्मेपासना की शुरुआत की। 1857 ई. में आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की। इनके उदारवादी विचारों ने ब्रह्मसमाज की लोकप्रियता को बढ़ाया। केशवचन्द्र सेन ने देवेन्द्रनाथ के साथ मिलकर तत्कालीन आध्यात्मिक तथा सामाजिक समस्याओं के विचार के उद्देश्य से ‘संगत सभा’ (मैत्री संघ) की स्थापना की।
आदि ब्रह्मसमाज का गठन
1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने ‘इण्डियन मिरर’ नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्र (मिरर) ने शीघ्र ही अपनी पहचान बना ली और अंग्रेज़ी का पहला दैनिक समाचार होने का गौरव प्राप्त किया। बाद में इण्डियन मिरर ब्रह्मसमाज का मुख पत्र बन गया। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज को एक अखिल भारतीय रूप देने के उद्देश्य से पूरे भारत का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में ‘वेद समाज’ तथा महाराष्ट्र में ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना हुई। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने महिलाओं के उद्धार, नारी शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह आदि के समर्थन में प्रचार किया तथा बाल विवाह का विरोध किया। इन अमूलकारी परिवर्तनवादी विचारों के कारण ही 1865 ई. में ब्रह्मसमाज में पहली फूट पड़ी। देवेन्द्रनाथ टैगोर के अनुयायियों ने आदि ब्रह्मसमाज का गठन किया। आदि ब्रह्मसमाज का नारा था ‘ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है।’
भारतीय ब्रह्मसमाज
1866 में केशव चन्द्र ने ‘भारतीय ब्रह्मसमाज’ की स्थापना की। इसे देखकर देवेंद्रनाथ ने अपने समाज का नाम भी आदि ब्रह्मसमाज रख दिया था। मूल ब्रह्मसमाज ‘आदि ब्रह्मसमाज’ के नाम से जाना जाने लगा और केशवबाबू का नवगठित समाज ‘भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
लन्दन की यात्रा से लौटने के बाद 1872 ई. में केशवचन्द्र सेन ने सरकार को ‘ब्रह्मविवाह अधिनियम’ को क़ानूनी दर्जा देने के लिए तैयार कर लिया। आचार्य केशव चन्द्र सेन ने पश्चिमी शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों के उद्धार तथा स्त्री शिक्षा आदि के उद्देश्य से ‘इण्डियन रिफ़ार्म एसोसिएशन‘ की स्थापना की। ब्रह्मसमाज में दूसरा विभाजन 1878 ई. में हुआ, जब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ‘ब्रह्मविवाह अधिनियम’ 1872 ई. का उल्लंघन करते हुये अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराजा से किया।
केशव चन्द्र सेन ने तत्व कौमुदी, द इंडियन मैसेंजर, द संजीवनी, द नव भारत प्रवासी आदि पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन किया।
साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना
केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने उनसे अलग होकर ‘साधारण ब्रह्मसमाज‘ की स्थापना की। साधारण ब्रह्मसमाज के अनुयायी मूर्तिपूजा और जाति प्रथा के विरोधी तथा नारी मुक्ति के समर्थक थे। साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना आनन्द मोहन बोस द्वारा तैयार की गई रूपरेखा पर हुआ था। आनन्द मोहन बोस इसके प्रथम अध्यक्ष थे। इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल द्वारिकानाथ गांगुली तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी प्रमुख थे।
प्रार्थना समाज
प्रार्थना समाज की स्थापना वर्ष 1867 ई. में बम्बई में आचार्य केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से महादेव गोविन्द रानाडे, डॉ. आत्माराम पांडुरंग, चन्द्रावरकर आदि द्वारा की गई थी। जी.आर. भण्डारकर प्रार्थना समाज के अग्रणी नेता थे। प्रार्थना समाज का मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-पुरुष विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा-विवाह, स्त्री शिक्षा आदि को प्रोत्साहन प्रदान करना था।
प्रार्थना समाज संस्था के सहयोग से कालान्तर में दलित जाति मंडल, समाज सेवा संघ तथा दक्कन शिक्षा सभा की स्थापना हुई। पंजाब में इस समाज के प्रचार-प्रसार में दयाल सिंह के प्रन्यास ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। दक्षिण भारत में विश्वनाथ मुदलियर के नेतृत्व में ‘वेद समाज’ का नाम बदल कर ‘दक्षिण भारत ब्रह्मसमाज’ रखा गया।
ब्रह्मसमाजियों के विपरीत प्रार्थना समाज के सदस्य अपने को हिन्दू मानते थे। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे |महाराष्ट्र के तुकाराम तथा गुरु रामदास जैसे महान् संतों की परम्परा के अनुयायी थे। प्रार्थना समाजियों ने अपना मुख्य ध्यान हिन्दुओं में समाज सुधार के कार्यों, जैसे सहभोज, अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, अछूतोद्धार आदि में लगाया। प्रार्थना समाज ने बहुत से समाज सुधारकों को अपनी ओर आकर्षित किया, जिसमें जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे भी थे। मुख्य रूप से जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे के प्रयत्न से प्रार्थना समाज की ओर से ‘दक्कन एजुकेशन सोसाइटी’ (दक्षिण शिक्षा समिति) जैसी लोकोपकारी संस्थाओं की स्थापना की गई।
यंग बंगाल आंदोलन एवं हेनरी विवियन डेरोजियो
- इस आंदोलन की पहल मुख्य रूप से हिंदू कालेज के एग्लो-इंडियन शिक्षक हेनरी विवियन डेरोजियो (1809-1831) ने की थी।
- यंग बंगाल नाम से विख्यात नवयुवक बंगाली बौद्धिकों की टोली द्वारा नये एवं मूलगामी विषयों का प्रचार-प्रसार होने लगा।
- उनका जन्म कलकत्ता में 1809 में पुर्तगाली-भारतीय परिवार में हुआ था। अपने विचारों से उसने कालेज के युवा विद्याथियों को बहुत आंदोलित किया।
- 22 वर्ष की अल्प आयु में ही डेरोजियो ने बंगाल में नवजागण की जो मशाल जलाई, वह अविश्वसनीय लगती है। अपने मूलगामी विचारों के कारण डेरोजियो 1831 में हिंदू कालेज से निकाल दिया गया और इसके कुछ समय बाद ही कालरा से 22 वर्ष की अल्पायु में ही उनका देहावसान हो गया।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर
- राजा राममोहन राय के पश्चात भारत में एक अन्य बड़े समाज-सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर हुए। वे संस्कृत के विद्वान थे तब भी उन्होंने पश्चिमी सभ्यता की अच्छी बातों को स्वीकार किया। 1850 में वे संस्कृत कालेज के प्रधानाचार्य बने। उन्होंने संस्कृत अध्ययन के लिए ब्राम्हणों के एकाधिकार को समाप्त किया तथा गैर-ब्राम्हणों को संस्कृत अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया।
- ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज-सुधार और मुख्यता स्त्रियों को सुधारने के लिए लगा दिया। इन्होंने विधवा-विवाह के पक्ष में आवाज खड़ी की और इसके लिए अपने नेतृत्व में एक आंदोलन को जन्म दिया। 1855 में भारत के सभी बड़े शहरों से सरकार के पास विधवा-विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए एक प्रार्थना-पत्र भेजा गया। इसका परिणाम, 1856 में विधवा-विवाह कानून का स्वीकार किया जाना था। उन्होंने स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देने हेतु अथक प्रयत्न किया। 1849 में स्थापित बेथुन स्कूल के सचिव के रूप में उन्होंने भारत में स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया।
ज्योतिबा फुले और सत्यशोधक समाज
ज्योतिबा फुले का जन्म 1828 में एक माली के घर हुआ। इन्होंने शक्तिशाली गैर-ब्राम्हण आंदोलन का संचालन किया। 1873 में उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इस समाज का मुख्य उद्देश्य-
- सामाजिक सेवा तथा
- स्त्रियों एवं निम्न जाति के लोगों के बीच शिक्षा का प्रचार करना था।
ज्योतिबा फुले ने ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ एवं ‘गुलामी’ के विरूद्ध कार्य किया। गरीबों के वे इतने अधिक पक्षधर थे कि जब यार्क के ड्यूक से मिले तो वे अभावग्रस्त भारतीय किसान के वास्तविक प्रतिनिधि के रूप में धोती पहने हुए उनक सम्मुख प्रस्तुत हुए। अपनी ब्राम्हण-विरोधी गतिविधियों के संगठित रूप में प्रसार करने के लिए उन्होंने दो आलोचनात्मक कृतियों-सार्वजनिक सत्य धर्म पुस्तक तथा गुलामगीरी की रचना की।
बालशास्त्री जाम्बेकर
एक प्रसिद्ध समाज-सुधारक थे, जिनका कार्यक्षेत्र बंबई था। इन्होंने ब्राम्हणों की सर्वोच्चता को चुनौती दी तथा हिंदुत्व को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। 1832 में उन्होंने साप्ताहिक पत्र दर्पण का प्रकाशन प्रारंभ किया।
विद्यार्थियों की शैक्षिक एवं वैज्ञानिक समितियां
इन्हें ज्ञान प्रकाश मंडलियों के नाम से भी जाना जाता है, इनकी दो प्रमुख शाखाएं थीं-प्रथम मराठी एवं दूसरी गुजराती। जिनका गठन 1848 में कुछ शिक्षित युवा भारतीयों द्वारा किया गया था। इन मंडलियों द्वारा सामाजिक प्रश्नों एवं लोकप्रिय विज्ञान पर व्याख्यानों का आयोजन किया जाता था। इनका प्रमुख उद्देश्य बालिकाओं को स्कूलों में प्रवेश लेने के लिए प्रोत्साहित करना था।
दयानंद सरस्वती और आर्य समाज
- स्वामी दयानंद का बचपन का नाम मूलशंकर था। उनका जन्म 1824 में गुजरात के एक छोटे नगर, तनकारा में एक प्रतिक्रियावादी ब्राम्हण परिवार में हुआ। 1845 में उन्होंने अपना घर-परिवार छोड़ दिया और 1861 तक वह एक संन्यासी के रूप में सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करते रहे। 1875 में बंबई में उन्होंने, सर्वप्रथम आर्य-समाज की स्थापना की। सत्यार्थ प्रकाश इस समाज का पवित्र ग्रंथ है। उनके गुरू का नाम बिरजानंद था। 1868 में दयानंद ने अपनी एकाकी संन्यास एवं आध्यात्मिक खोज का जीवन समाप्त कर दिया और सक्रिय धर्मसुधारक एवं समाज-सुधारक बन गए। उन्होंने अपने विचारों के प्रचार के लिए भारत का भ्रमण किया और विभिन्न स्थानों पर आर्य समाज की स्थापना की।
- दयानंद का विश्वास था कि स्वार्थी एवं अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों जैसे ग्रंथों के सहारे हिंदू धर्म भ्रष्ट किया है। उनके अनुसार वेद ही हिंदू धर्म का वास्तविक आधार है। हिंदू रूढ़िवदिता का विरोध करते हुए उन्होंने मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध तथा झूठे कर्मकांडों और अंधविश्वासों का विरोध किया।
- स्वामी दयानंद ने अपने जीवन के अंतिम आठ वर्ष आर्य समाज का प्रचार करने, अपने उपदेशों को प्रसारित करने, पुस्तकें लिखने तथा भारत भर में आर्य समाज को संगठित करने में व्यतीत किए। आर्य समाज के संदेशों का प्रचार-प्रसार करने का उनका उद्देश्य पंजाब में अत्यधिक सफल रहा। दयानंद सरस्वती वेदों को ‘‘भारत के आधार-स्तंभ’’ के रूप में देखते थे। उनका विश्वास था कि हिंदू धर्म और वेद, जिन पर भारत का पुरातन समाज टिका था, शाश्वत, अपरिवर्तनीय, धर्मातीत और दैवीय हैं। इसीलिए उन्होंने ‘‘वेदों की ओर वापस चलो’’ तथा ‘‘वेद ही समग्र ज्ञान के स्रोत हैं’’ का नारा दिया।
वेद समाज
- केशवचंद्र सेन ने मद्रास यात्रा के दौरान वेद समाज की स्थापना के लिए प्रेरणा दी। इस संगठन के संस्थापक के. श्रीधरालु नायडु थे। इन्होंने ब्रम्ह समाज के आंदोलन का अध्ययन करने के लिए कलकत्ता की यात्रा की तथा मद्रास आकर 1871 में वेद समाज को दक्षिण भारत के ब्रम्ह समाज के रूप में परिवर्तित कर दिया। 1874 में एक दुर्घटना में श्री नायडू की असामयिक मृत्यु के कारण इस समाज में फूट पड़ गई।
रहनुमाई मजदायन सभा
- बंबई के पारसियों की यह प्रतिनिधि संस्था थी, जिसकी स्थापना 1851 में नौरोजी फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी तथा एम.एस. बंगाली आदि ने की थी। स्त्री-शिक्षा के प्रोत्साहन जैसे मुद्दों के अतिरिक्त पारसियों के सामाजिक विधान में एकरूपता लाना इसका प्रमुख उद्देश्य था।
बहावी आंदोलन
- मुसलमानों की पाश्चात्य प्रभावों के विरूद्ध सर्वप्रथम जो प्रतिक्रिया हुई, उसे ही बहावी आंदोलन या वलीउल्लाह आंदोलन के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह एक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। शाह वलीउल्लाह (1702-62) अठारवीं सदी में मुसलमानों के वह प्रथम नेता थे, जिन्होंने भारतीय मुसलमानों में हुई गिरावट में चिंता प्रकट की। उन्होंने भारतीय मुसलमानों के रीति-रिवाज तथा मान्यताओं में व्याप्त कुरीतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया।
- इसके पश्चात शाह अब्दुल्ला अजीज तथा सैय्यद अहमद बरेलवी (1786-1831) ने वलीउल्लाह के विचारों को लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया। शाह अब्दुल अजीज ने हिंदुस्तान को दारूल-हर्ब (काफिरों का देश) से दारूल-इस्लाम बनाने का आह्वान किया। प्रारंभ में यह अभियान सिख सरकार के खिलाफ था परंतु 1849 में अंग्रेजों द्वारा पंजाब का विलय करने पर यह अंग्रेजों के विरूद्ध हो गया। यह आंदोलन 1870 तक चलता रहा जब तक कि इसे सैन्य बल द्वारा समाप्त नहीं कर दिया गया। सैय्यद अहमद का यह दल उग्र था। इसका केंद्र पटना था।
टीटू मीर का आंदोलन
- वहाबी आंदोलन के संस्थापक सैय्यद अहमद बरेलववी के शिष्य, मीर निथार अली, जिन्हें टीटू मीर क नाम से भी जाना जाता था, ने इस आंदोलन का प्रवर्तन किया। टीटू मीर ने बंगाल के मुसलमान किसानों को हिन्दू जमींदारों एवं अंग्रेज नील सौदागरों के विरूद्ध संगठित किया। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को आतंकवादी या हिंसक नही माना किंतु आंदोलन के अंतिम वर्षों विशेषकर उस वर्ष जब टीटू मीर का निधन हुआ इसके कार्यकर्ताओं एवं पुलिस में अनेक झड़पे हुईं। 1831 में इसी प्रकार की एक मुठभेंड़ में टीटू मीर का निधन हो गया।
फराजी आंदोलन
- इस आंदोलन की शुरूआत हाजी शरियत-अल्लाह ने की थी। इस आंदोलन को ‘फराइदी आंदोलन’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसका मुख्य जोर इस्लाम धर्म की सच्चाई पर था। इस आंदोलन का कार्य क्षेत्र मुख्यतयाः पूर्वी बंगाल था तथा इसका मुख्य उद्देश्य इस क्षेत्र की मुस्लिम आबादी को सामाजिक भेदभाव एवं शोषण से बचाना था। हाजी शरियत अल्लाह के पुत्र दूदू मियां के नेतृत्व में 1840 के पश्चात आंदोलन ने क्रांतिकारी रूख अख्तियार कर लिया। दूदू मियां ने आंदोलन को एक नया स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने इसे गांव से लेकर प्रांतीय स्तर तक संगठित किया। उन्होंने संगठन के प्रत्येक स्तर पर एक प्रमुख नियुक्त किया। इस आंदोलन ने सशस्त्र कार्यकर्ताओं का एक दल तैयार किया जिसका कार्य हिंदू जमींदारों एवं पुलिस के विरूद्ध संघर्ष करना था।
- दूदू मियां को अनेक बार पुलिस ने गिरफ्तार किया किंतु 1847 में दूदू मियां की लंबी गिरफ्तारी के पश्चात आंदोलन कमजोर हो गया। 1862 दूदू मियां की मृत्यु के बाद भी आंदोलन चलता रहा किंतु किसी बड़े राजनैतिक प्रश्रय के अभाव में इसकी पहचान एक क्षेत्रीय धार्मिक आंदोलन के रूप में सिमट कर रह गयी।
अहमदिया आंदोलन
- 19वीं शताब्दी में मुस्लिम समाज और धर्म सुधार के लिए एक और आंदोलन चला, जिसे अहमदिया आंदोलन कहते हैं। वर्ष 1889 में मिर्जा गुलाम अहमद ने इस आंदोलन की शुरूआत की। यह आंदोलन उदार सिद्धांतों पर आधारित था। इसके नेता अपने को हजरत मुहम्मद की तरह का अवतार मानते थे। आंदोलन, मुस्लिम समाज में सुधार लाने एवं उसमें व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के कार्य को अपना सर्वप्रमुख उद्देश्य मानता था। इसने गैर-मुसलमानों के प्रति युद्ध ‘जेहाद’ को बंद किये जाने की मांग की। आंदोलन ने भारतीय मुसलमानों के मध्य पाश्चात्य उदारवादी शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा दिया। यह आंदोलन पंजाब के गुरूदासपुर जिले के ‘कादिया नगर’ से प्रारंभ हुआ था। मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने सिद्धांतों की व्याख्या अपनी पुस्तक बराहीन-ए-अहमदिया में की है।
सर सैय्यद अहमद खान एवं अलीगढ़ आंदोलन
- 1857 के विद्रोह के पश्चात अंग्रेजी सरकार यह मानने लगी कि इस विद्रोह में मुख्य षड्यंत्रकर्ता मुसलमान थे। कालांतर में बहावी आंदोलन के प्रति सरकार विरोधी रूख से यह धारणा और बलवती हो गयी। किंतु बाद में ब्रिटिश सरकार यह महसूस करने लगी कि उस समय राष्ट्रवादी आंदोलन की गति जिस तरह से जोर पकड़ने लगी थी उसका सामना करने के लिए शीघ्र ही कोई कदम उठाना अपरिहार्य हो गया था। इन्हीं परिस्थितियों में बढ़ते हुए राष्ट्रवाद का मुकाबला करने के लिए सरकार ने मुसलमानों को सहयोगी के रूप में इस्तेमाल करने का निश्चय किया। लेकिन यह सहयोग तभी प्राप्त किया जा सकता था जब मुसलमानों को सशक्त बौद्धिक विचारों से प्रभावित किया जाये। इस समय मुसलमानों का एक वर्ग, जिसका नेतृत्व सर सैय्यद अहमद खान कर रहे थे, सरकारी संरक्षण एवं सहयोग प्राप्त करने के पक्ष में था, जिससे मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार कर रोजगार वृद्धि की जाये, ताकि मुस्लिम समाज की दशा में सुधार हो सके।
- सर सैय्यद अहमद खान का जन्म 1817 में दिल्ली में एक प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में हुआ था। वे ब्रिटिश शासन के अधीन न्यायिक सेवा के एक अंग्रेज भक्त नौकरशाह थे। 1876 में सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होने के पश्चात 1878 में वे ‘इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ के सदस्य बने। अंग्रेजों के प्रति उनके समर्पण से प्रसन्न होकर 1888 में अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि प्रदान की। उन्होंने अपील की कि कुरान की शिक्षाओं की व्याख्या पाश्चात्य वैज्ञानिक शिक्षा के दृष्टिकोण से की जाये। उन्होंने घोषित किया कि कुरान ही मुसलमानों की एकमात्र धार्मिक कृति है और सभी अन्य इस्लामिक रचनायें इसके समक्ष गौण हैं। उन्होंने कुरान की व्याख्या समसामयिक बौद्धिक तर्कों और ज्ञान के प्रकाश में की। उनके मतानुसार पवित्र कुरान की कोई भी व्याख्या जो मानवीय तर्क बुद्धि से मेल नहीं खाती वह वस्तुतः गलत व्याख्या है। उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि वे गलत रीति-रिवाजों का अनुसरण न करें। उनके अनुसार कोई भी धर्म ग्रहण करने के योग्य होना चाहिए अन्यथा यह समाप्ज हो जाता है। उन्होंने धार्मिक रीति-रिवाजों का अंध रूप में अनुसरण करने को गलत बताया।
- सैय्यद अहमद खान एक उत्साही शिक्षाविद् थे। उन्होंने कस्बों में स्कूल खोले तथा अनेक पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया। 1875 में अलीगढ़ में उन्होंने ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कालेज’ की स्थापना की। उन्होंने स्त्रियों की साक्षरता बढ़ाने एवं उन्हें शिक्षित करने के क्षेत्र में भी अथक परिश्रम किया। मुसलमानों में पर्दा प्रथा तथा बहुपत्नी प्रथा के घोर विरोधी थे। उन्होंने तलाक में स्त्रियों की भी सहमति लेने की मांग की तथा ‘पीरी’ एवं ‘मुरीदी’ की प्रथा की कड़े शब्दों में निंदा की। वे हिन्दू एवं मुसलमान दोनों धर्मों में एकता के समर्थक थे। उन्होंने कहा हिंदू एवं मुसलमान दोनों ही एक देश के हैं और एक राष्ट्र हैं। देश की प्रगति और भलाई हमारी एकता और प्रेम पर निर्भर है।
- उन्होंने तर्क दिया कि मुसलमानों को सर्वप्रथम शिक्षा प्राप्त कर नौकरियां प्राप्त करना चाहिए, जिससे वे हिन्दुओं की बराबरी कर सकें जो पहले से शिक्षित होकर विभिन्न अवसरों का लाभ उठा रहे हैं। एक सक्रिय राजनीतिज्ञ के रूप में उनका विश्वास था कि मुसलमानों को अंग्रेजों से अपने संबंध सुधारने चाहिए, तभी उनके हितों की पूर्ति हो सकती है। इसीलिये उन्होंने मुसलमानों की ऐसी किसी भी राजनीतिक गतिविधि का विरोध किया, जो अंग्रेजों के विरूद्ध हो। दुर्भाग्यवश मुसलमानों में शिक्षा के प्रसार एवं रोजगार के मुद्दे को लेकर, वे अंग्रेजी शासन के इतने वशीभूत हो गये कि उन्होंने अंग्रेजों की फूट डालो एवं राज करो जैसी नीति का भी समर्थन प्रारंभ कर दिया। बाद के वर्षों में तो उनके साम्प्रदायिक रूख में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया। कभी हिन्दुओं और मुसलमानों को भारत की दो सुंदर आंखों की संज्ञा देने वाले सर सैय्यद अहमद खान हिंदुओं के बिल्कुल विरूद्ध हो गये तथा उन्होंने हिन्दुओं की निंदा प्रारंभ कर दी। उन्होंने यहां तक कहा कि हिन्दुओं के अधीन मुसलमानों का उत्थान कभी नहीं हो सकता।
- उन्होंने अपने विचारों का प्रचार ‘तहजीब-उल-अखलाक’ नामक पत्रिका में किया।
- अलीगढ़-आंदोलन ने शिक्षित मुसलमानों के बीच उदार एवं आधुनिक पद्धति का विकास किया, जो कि मोहम्डन एंग्लो-ओरिएंटल कालेज अलीगढ़ पर आधारित था। इसके मुख्य उद्देश्यों में- (i) इस्लाम के दायरे में रहकर भारतीय मुसलमानों के बीच आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना तथा (ii) मुस्लिम समाज के विभिन्न क्षेत्रों जैसे-पर्दा प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा, दास प्रथा, तलाक इत्यादि के क्षेत्र में सुधार लाना था।
- इस आंदोलन के समर्थकों की विचारधारा कुरान की उदार व्याख्या पर आधारित थी। इन्होंने मुस्लिम समाज में आधुनिक एवं उदार संस्कृति को प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया। वे आधुनिक पथ पर चलकर इस्लामिक समाज का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। इस प्रकार अलीगढ़ आंदोलन तत्कालीन समय में मुस्लिम सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केंद्र बन गया।
देवबंद स्कूल
- यह भी एक प्रकार का मुस्लिम धार्मिक आंदोलन था जिसे मुस्लिम धर्म के रूढ़िवादी उलेमाओं द्वारा प्रारंभ किया था। इस आंदोलन के दो मुख्य उद्देश्य थे-
- कुरान एवं हदीस की शिक्षाओं का मुसलमानों के मध्य प्रचार-प्रसार करना एवं
- विदेशी आक्रांताओं एवं गैर-मुसलमानों के विरूद्ध धार्मिक युद्ध ‘जेहाद’ को प्रारंभ रखना।
- देवबंद स्कूल की स्थापना, तत्कालीन संयुक्त प्रांत के सहारनपुर जिले में देवबंद नामक स्थान में 1866 में मोहम्मद कासिम नानोतवी (1832-80) एवं राशिद अहमद गंगोही (1828-1905) ने संयुक्त रूप से की थी। ये दोनों मुस्लिम समुदाय के धार्मिक नेता थे। यह आंदोलन, अलीगढ़ आंदोलन के विरूद्ध था। इसने अलीगढ़ आंदोलन द्वारा मुस्लिम समाज का पाश्चात्यीकरण करने एवं उदार रूख अपनाने के रवैये का कड़ा विरोध किया तथा मुस्लिम समुदाय का नैतिक एवं धार्मिक उत्थान करने की वकालत की। इसने अलीगढ़ आंदोलन के अनुयायियों द्वारा अंग्रेज सरकार का समर्थन करने के कार्य की भी निंदा की।
- राजनीतिक मोर्चे पर देवबंद स्कूल ने 1888 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन का स्वागत किया तथा सर सैय्यद अहमद खान के संगठन, संयुक्त राष्ट्रवादी संघ एवं मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल एसोसिएशन के खिलाफ फतवा जारी किया। यह आंदोलन सर सैय्यद अहमद खान द्वारा मुस्लिम समाज सुधार हेतु किये जा रहे कार्यों का कड़ा विरोधी था तथा इसने सैय्यद अहमद के प्रयासों को मुस्लिम समाज के लिए आत्मघाती बताया।
- मुहम्मद-उल-हसन ने अपने नेतृत्व में देवबंद स्कूल के धार्मिक विचारों को नया राजनीतिक एवं बौद्धिक स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने इस्लामिक सिद्धांतों एवं राष्ट्रवादी प्रेरणा के समन्वय हेतु सराहनीय प्रयास किये। बाद में जमात-उल-उलेमा ने हसन के विचारों को नये स्वरूप में ढाला, जिससे कि राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रवादी उद्देश्यों को क्षति पहुंचाये बिना मुसलमानों के धार्मिक एवं राजनीतिक हितों की रक्षा हो सके।
- देवबंद स्कूल के एक अन्य समर्थक शिबली नुमानी का मत था कि शिक्षा की पद्धति में अंग्रेजी एवं यूरोपीय विज्ञान का भी सम्मिलन किया जाये। उन्होंने 1894-96 में लखनऊ में नदवाताल उलम एवं दारूल उलम की स्थापना की। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आदर्शों में विश्वास करते थे तथा हिंदू एवं मुस्लिम एकता के समर्थक थे। उनका मत था कि दोनों धर्मों में एकता से ही राष्ट्र में दोनों समुदाय के लोग आपसी सद्भाव से रह सकते हैं तथा प्रगति कर सकते हैं।
पारसी सुधार आंदोलन
- अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त पारसियों के एक समुदाय ने 1851 में ‘रहनुमाई माजदायसन सभा’ गठित की। इसका उद्देश्य पारसी समाज का पुर्नरूद्धार तथा पारसी धर्म की प्राचीन सभ्यता को पुर्नःस्थापित करना था। इस आंदोलन के नेताओं में नौरोजी फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी, के.आर. कामा एवं एस.एस. बंगाली प्रमुख थे। इस सभा के संदेशों को पारसियों तक पहुंचाने के लिए एक पत्रिका रास्त गोफ्तार प्रारंभ की गई।
- पारसी धर्म की मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों में इस सभा ने अनेक परिवर्तन एवं सुधार किये। इसने पारसी महिलाओं की स्थिति सुधारने का भी प्रयास किया तथा विभिन्न बुराइयों जैसे-पर्दा प्रथा इत्यादि का विरोध किया। स्त्रियों के विवाह की आयु में वृद्धि तथा स्त्रियों में शिक्षा को बढ़ावा देने की पक्षधर थी। कुछ समय पश्चात भारतीय समाज में पारसी एक नये पाश्चात्य सभ्यता से ओत-प्रोत कारक के रूप में सामने आये।
सिख सुधार आंदोलन
- 19वीं शताब्दी में भारत में चल रहे विभिन्न धर्म एवं समाज सुधार आंदोलनों से सिख समुदाय भी अछूता न रहा सका तथा इसमें भी विभिन्न समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन प्रारंभ हुये। 1873 में अमृतसर में सिंह सभा आंदोलन प्रारंभ हुआ। इसके मुख्य दो उद्देश्य थे-
- सिखों के लिए आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चित करना तथा
- सिख धर्म के हितों को नुकसान पहुंचाने वाली ईसाई मिशनरियों एवं हिंदू रूढ़िवादियों के विरूद्ध संघर्ष करना।
- अपने प्रथम उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभा ने पूरे पंजाब में खालसा स्कूलों की स्थापना की। लेकिन सिंह सभा के प्रयासों में गतिशीलता तब आयी जब अकाली आंदोलन प्रारंभ हुआ। अकाली आंदोलन, सिंह सभा की ही शाखा थी। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरूद्वारों का प्रबंध सुधारना था। वे गुरूद्वारों को उन भ्रष्ट उदासी महन्तों से मुक्त कराना चाहते थे, जो सरकारी-संरक्षण की आड़ में विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट कार्यों में लिप्त थे। 1921 में अकालियों ने एक नया असहयोग एवं अहिंसक आंदोलन प्रारंभ किया। लेकिन अकालियों को प्रमुख सफलता तब मिली जब 1922 में (1925 में संशोधित) बहुप्रतीक्षित एवं लोकप्रिय ‘सिख गुरूद्वारा एक्ट’ पास हुआ। इस एक्ट द्वारा गुरूद्वारों का प्रबंध सिखों की शीर्ष संस्था ‘शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी’ को सौंप दिया गया।
- अकाली आंदोलन एक क्षेत्रीय आंदोलन था लेकिन यह साम्प्रदायिक नहीं था। कालांतर में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी समय-समय पर अकाली नेताओं ने ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध आवाज उठायी तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में सराहनीय भूमिका अदा की।
थियोसोफिकल आंदोलन
- इस आंदोलन की शुरूआत दो पाश्चात्य बुद्धिजीवियों मैडम एच.पी. ब्लावैटस्की (1831-1891) एवं कर्नल एम.एस. अलकाट ने की। ये दोनों भारतीय विचारों एवं भारतीय संस्कृति से गहरे प्रभावित थे। 1875 में अमेरिका में इन्होंने ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की स्थापना की। किन्तु 1882 में इन्होंने सोसायटी का मुख्यालय मद्रास के निकट अडयार नामक स्थान में परिवर्तित कर दिया।
- इसके अनुयायी ईश्वरीय ज्ञान को आत्मिक हर्षाेन्माद एवं अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त करने की कोशिश करते थे। उनका मानना था कि ध्यान, योग एवं चिंतन जैसे माध्यमों द्वारा व्यक्ति की आत्मा को परमात्मा से जोड़ा जा सकता है। वे हिन्दु धर्म के पुर्नजन्म एवं कर्म के सिद्धांत पर भी विश्वास करते थे। उन्होंने उपनिषद, सांख्य, योग एवं वेदांत के विचारों को अति महत्वपूर्ण बताया। सोसायटी का उद्देश्य प्रजाति, नस्ल, लिंग, जाति एवं रंग में भेदभाव किये बिना सभी लोगों के कल्याण के लिए प्रयत्न करना था।
- इसने प्रकृति एवं मानव शक्ति के अनसुलझे रहस्यों की भी व्याख्या करने का प्रयास किया। सोसायटी ने मुख्यता हिन्दू धर्म की प्राचीन विरासत एवं पहचान को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।
- 1907 में कर्नल अलकाट की मृत्यु के पश्चात एनी बेसेंट (1847-1933) इसकी अध्यक्ष चुनी गयीं। एनी बेसेंट की अध्यक्षता में सोसायटी की लोकप्रियता में और ज्यादा वृद्धि हुई। एनी बेसेंट 1893 में भारत आयी। अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एनी बेसेंट ने बनारस में ‘सेंट्रल हिन्दू स्कूल’ की आधारशिला रखी और उसकी प्रगति के लिए भरसक प्रयत्न किया।
- इस स्कूल में हिन्दू धर्म एवं पाश्चात्य वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यही स्कूल आगे चलकर कालेज और अंततः 1915 में ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ में परणित हो गया। एनी बेसेंट ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया।
- थियोसोफिकल सोसायटी ने विभिन्न धर्मों को मजबूत करने की वकालत की तथा शिक्षित हिन्दुओं को हिन्दू धर्म की प्राचीन समृद्ध विरासत से अवगत कराया। किन्तु अपने अर्थपूर्ण उद्देश्यों एवं सराहनीय प्रयत्नों के पश्चात भी थियोसोफिकल सोसायटी किसी ऐसे कार्यक्रम या आंदोलन को जन्म देने में असफल रही, जिसके कि हिन्दू धर्म या समाज में दूरगामी प्रभाव हों।
- यह किसी बड़े परिवर्तन को अंजाम देने में भी असफल रही। सोसायटी के अनुयायी भी पाश्चात्य वर्ग के रूप में समाज का छोटा हिस्सा ही थे। धार्मिक परिवर्तनवादी के रूप में भी थियोसोफिकल समर्थकों को ज्यादा सफलता हाथ नहीं लगी। लेकिन हिन्दू धर्म की समृद्ध विरासत से लोगों को अगवत कराकर तथा प्राचीन धर्म, दर्शन और विज्ञान की महत्ता प्रतिपादित कर सोसायटी के लोगों के मन में राष्ट्रवाद की प्रेरणा जागृत की। इस प्रेरणा ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध आंदोलन करने की चेतना भारतीयों में जागृत की। दूसरे दृष्टिकोण से यह भी माना जाता है कि थियोसोफिकल सोसायटी ने भारतीयों को उनकी परंपरागत रीतिरिवाजों एवं दर्शन में बांधे रखा तथा उनकी समृद्धता का गुणगान करके उनमें मिथ्या गर्व का भाव भर दिया।
धर्म सुधार आंदोलन (Reformation Movement)
धर्म सुधार आंदोलन
- धर्म सुधार आंदोलन शब्द यूरोप के इतिहास में पुनर्जागरण के उत्तरकाल में हुए दो प्रमुख परिवर्तनों के लिए प्रयुक्त होता है। इनमें प्रथम था-प्रोटेस्टेंट धर्म सुधार, इसके कारण ईसाई धर्म में फूट पैदा हुई, अनेक राष्ट्र रोमन कैथोलिक चर्च से अलग हो गए और उन देशों में सामान्यतया राष्ट्रीय स्तर पर पृथक चर्चों की स्थापना हुई ।
- दूसरा परिवर्तन रोमन कैथोलिक चर्च के भीतर हुए उन सुधारों से संबंधित था जिन्हें आमतौर पर कैथोलिक धर्म सुधार या प्रति धर्म सुधार के नाम से जाना जाता है।
धर्म सुधार आंदोलन के कारण
- पुनर्जागरण ने धर्म सुधार आंदोलन को प्रभावित किया, क्योंकि पुनर्जागरण से संपूर्ण यूरोप को एक नई दिशा मिली। लोगों के अंदर तार्किक दृष्टिकोण में वृद्धि हुई ।
- व्यापारी वर्ग धार्मिक कानूनों से परेशान था। सोलहवीं सदी तक अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर व्यापार होने लगा था । व्यापार-व्यवसाय के लिए पूँजी की आवश्यकता थी । व्यापारी या सेठ साहूकार ब्याज पर पूँजी लगाना पसन्द करते थे। लेकिन, चर्च सूदखोरी का विरोधी था।
- ‘महान पाश्चात्य विभाजन’-दो पोप का निर्वाचन हुआ, एक फ्रांस का प्रतिनिधित्व कर रहा था एवं दूसरा इटली का प्रतिनिधित्व कर रहा था। परिणामस्वरूप संघर्ष आरंम्भ हो गया और कुछ ने परस्पर सशस्त्र युद्ध आरंभ कर दिया । अतः जनसमुदाय में गिरजाघर के प्रति आदर और सम्मान की भावना समाप्त हो गई।
धर्म सुधार आंदोलन के परिणाम
- धर्म सुधार आंदोलन ने राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ाया । केवल फ्रांस और स्पेन को छोड़कर यूरोप के अधिकांश देशों में प्रोटेस्टेंट धर्म की स्थापना हुई। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच धर्म के नाम पर युद्ध हुआ जिसे तीस वर्षीय युद्ध (1618-48 ई०) कहते हैं। युद्ध का केन्द्र जर्मनी था।
- ईसाई सम्प्रदाय की एकता खंडित हो गई । ईसाई सम्प्रदाय कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट दो प्रमुख सम्प्रदायों में विभाजित हो गया । सार्वभौमिक गिरजाघर के स्थान पर राष्ट्रीय गिरजाघर स्थापित किए गए।
- ईसाई धर्म कई सम्प्रदायों में बँट गया। लूथर ने जिस धर्म को चलाया, वह लूथेरियन कहा गया । ज्विगली ने जिस सम्प्रदाय को चलाया, वह ज्विगली सम्प्रदाय कहलाया एवं काल्विन ने प्रेसबिटेरियन सम्प्रदाय को जन्म दिया ।
- यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना के साथ ही राष्ट्रीय भाषाओं का विकास हुआ । अब तक लैटिन भाषा ही ईसाई जगत की भाषा समझी जाती थी । लेकिन धर्म सुधार के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं । स्वयं सुधार के स्तंभ मार्टिन लूथर ने बाइबिल का अनुवाद जर्मन भाषा में किया । लैटिन का महत्त्व जाता रहा । धर्म संबंधी सभी साहित्य राष्ट्रीय भाषाओं में अनुवादित एवं प्रकाशित होने लगे।
ईसाई धर्म के सम्प्रदाय- प्रोटेस्टेण्ड, कैथोलिक, लूथेरियन, ज्विंगली, प्रेसबिटेरियन।
धर्म सुधार आंदोलन की विशेषताएँ
धर्म सुधार आंदोलन की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- मार्टिन लुथर: मार्टिन लुथर, एक जर्मन संत और थियोलॉजियन, ने रिफॉर्मेशन में केंद्रीय भूमिका निभाई। 1517 में, उन्होंने अपने नाइंटी-फाइव थीसिस को विटेनबर्ग कैसल चर्च के दरवाजे पर चढ़ाया, जिसमें उन्होंने इंडल्जेंस के बेचने और पोप की अधिकारिता पर सवाल उठाया।
- कैथोलिक चर्च की आलोचना: लुथर, जॉन कैल्विन, और अन्यों जैसे रिफॉर्मर्स ने कैथोलिक चर्च के अभ्यासों की आलोचना की, जिसमें इंडल्जेंस के बिक्री, क्लर्जी के बीच की भ्रष्टाचार, और हायरार्की की अत्यधिक धन और शक्ति को शामिल हैं।
- बाइबिल का अनुवाद: रिफॉर्मेशन के हिस्से के रूप में, बाइबिल को सामान्य लोगों के लिए पहुंचाने के लिए पुनर्निर्मित करने पर नया जोर दिया गया। बाइबिल को वर्नाक्यूलर भाषाओं में अनुवाद करने से व्यक्तियों को स्वयं पढ़ने और विचार करने की अनुमति मिली।
- प्रोटेस्टेंटिज्म: रिफॉर्मेशन ने प्रोटेस्टेंटिज्म की उत्पत्ति की, जो कैथोलिक चर्च से अलग एक शाखा है। विभिन्न प्रोटेस्टेंट धर्म-प्रवृत्तियों, जैसे कि लुथेरान, कैल्विनिस्ट, और एंग्लिकनिज्म, विभिन्न धाराओं पर आधारित हैं।
- रिफॉर्मेशन विचारों का प्रसार: रिफॉर्मेशन के विचार छपाकर इनका विस्तार हुआ। पैम्फलेट, किताबें, और बाइबिल के अनुवाद व्यापक रूप से फैले, जिससे सुधारवादी विचारों का प्रसार हुआ।
- ट्रेंट सभा: रिफॉर्मेशन का प्रतिसाद के रूप में, कैथोलिक चर्च ने ट्रेंट सभा (1545–1563) का आयोजन किया। इस सभा ने सोम्यांतर विचारों का पतन करने के लिए कुछ उत्तरदाता समझा और कुछ कैथोलिक सिद्धांतों और अभ्यासों की पुनरादान की।
- धर्मिक युद्ध: रिफॉर्मेशन ने धार्मिक संघर्षों और युद्धों की शुरुआत की, जैसे कि जर्मन पीसेंट्स वॉर और तीस वर्षीय युद्ध। इन संघर्षों में धार्मिक और राजनीतिक आयाम दोनों शामिल थे।
- शिक्षा पर प्रभाव: प्रोटेस्टेंटिज्म ने सभी के लिए शिक्षा के महत्व को जोर दिया। लोगों को पढ़ाई के लिए स्कूल स्थापित की गई और शिक्षा सामान्य जनता के लिए अधिक पहुंचने का साधन बन गई।
- धार्मिकता का कमी: रिफॉर्मेशन ने धार्मिकता के कमी की प्रक्रिया में योगदान किया, क्योंकि धार्मिक प्राधिकृति कम हुई और राजनीतिक नेताओं को चर्च से अधिक स्वतंत्रता मिली।
- विरासत: रिफॉर्मेशन मूवमेंट ने यूरोप के धार्मिक और सांस्कृतिक कपड़े को गहरे रूप से परिवर्तित किया। इसने विभिन्न प्रोटेस्टेंट धर्म-प्रवृत्तियों की विकास की बुनियाद रखी और ईसा धर्म और चर्च के बीच संबंध को स्थायी रूप से परिवर्तित किया।
धर्म सुधार आंदोलन के प्रभाव
- धर्म सुधार आंदोलन के प्रभाव कुछ महत्वपूर्ण रूप से बदले गए थे, जो समाज, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में हुए। यहां इस आंदोलन के प्रमुख प्रभावों की कुछ कुंजी बिंदुएं हैं:
- धार्मिक बदलाव: धर्म सुधार आंदोलन ने धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा पद्धतियों और पारंपरिक धार्मिक प्रथाओं में सुधार की प्रेरणा दी। यह साधु-संतों और समाज के साथियों द्वारा प्रेरित बदलावों की एक धारा शुरू कर दी, जिसने सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में कदम बढ़ाया।
- सामाजिक सुधार: धर्म सुधार आंदोलन ने समाज में विभिन्न असमानताओं और अद्यतित बुराइयों के खिलाफ उत्कृष्ट विरोध पैदा किया। सती प्रथा, बाल विवाह, और जातिवाद के खिलाफ आंदोलनें हुईं जिनमें सामाजिक सुधार का महत्वपूर्ण योगदान था।
- शिक्षा में सुधार: आंदोलन ने शिक्षा के क्षेत्र में भी सुधार को प्रोत्साहित किया। सामाजिक रूप से बंधनबद्ध वर्गों के लिए शिक्षा का सुधार हुआ और लोगों को सामाजिक जागरूकता बढ़ाने के लिए शिक्षा का महत्वपूर्ण रूप से बढ़ावा मिला।
- साहित्यिक और कला में सुधार: धर्म सुधार ने साहित्य, कला, और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। नए और आधुनिक धाराएं, लेखन, पेंटिंग, और संगीत में नए आयाम स्थापित हुए, जिससे समृद्धि हुई और सांस्कृतिक सामर्थ्य बढ़ा।
- राजनीतिक प्रभाव: धर्म सुधार ने राजनीतिक संरचना में भी परिवर्तन की चेष्टा की। सामाजिक न्याय, सामाजिक समरसता, और सभी वर्गों के लिए समान अधिकार की मांग ने राजनीतिक विचार धारा में भी सुधार को प्रेरित किया।
- प्रतिक्रियाशीलता: धर्म सुधार आंदोलन ने धार्मिक प्रणाली में सुधार की मांग को बढ़ावा दिया और लोगों को अपने धार्मिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया।
- सांस्कृतिक एकता: आंदोलन ने विभिन्न सामाजिक वर्गों और समुदायों को एक सामाजिक प्लेटफ़ॉर्म पर आने के लिए प्रोत्साहित किया और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया।
- सही और गलत में विवेक: आंदोलन ने लोगों को सही और गलत के बीच विवेकपूर्ण निर्णय लेने के लिए प्रेरित किया। यह एक व्यक्ति की आत्म-निर्धारण और अधिकार की महत्वपूर्णता को बढ़ाता है।
- धर्म सुधार आंदोलन ने समाज को बदलने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक प्रदर्शनों को प्रभावित किया।
Socio-Religious Reform Movements
What are Social Religious Reform Movements?
- The Indian society in the first half of the 19th century was caste ridden, decadent and rigid.
- It followed certain practices which are not in keeping with humanitarian feelings or values but were still being followed in the name of religion.
- Some enlightened Indians like Raja Ram Mohan Roy, Ishwar Chand Vidyasagar, Dayanand Saraswati and many others started to bring in reforms in society so that it could face the challenges of the West.
- The reform movements could broadly be classified into two categories:
- Reformist movements like the Brahmo Samaj, the Prarthana Samaj, the Aligarh Movement.
- Revivalist movements like Arya Samaj and the Deoband movement.
- The reformist as well as the revivalist movement depended, to varying degrees, on an appeal to the lost purity of the religion they sought to reform.
- The only difference between one reform movement and the other lay in the degree to which it relied on tradition or on reason and conscience.
What are the Factors which gave Rise to Reform Movements?
- Presence of colonial government on Indian soil: When the British came to India they introduced the English language as well as certain modern ideas.
- These ideas were those of liberty, social and economic equality, fraternity, democracy and justice which had a tremendous impact on Indian society.
- Religious and Social Ills: Indian society in the nineteenth century was caught in a vicious web created by religious superstitions and social obscurantism.
- Depressing Position of Women: The most distressing was the position of women.
- The killing of female infants at birth was prevalent.
- Child marriage was practiced in society.
- The practice of polygamy prevailed in many parts of country.
- The widow remarriage was not allowed and the sati pratha was prevalent on a large scale.
- Spread of Education and Increased Awareness of the World: From the late 19th century a number of European and Indian scholars started the study of ancient India’s history, philosophy, science, religions and literature.
- This growing knowledge of India’s past glory provided to the Indian people a sense of pride in their civilization.
- It also helped the reformers in their work of religious and social reform for their struggle against all types of inhuman practices, superstitions etc.
- Awareness of the Outside World: During the last decades of the nineteenth century, the rising tide of nationalism and democracy also found expression in movements to reform and democratise the social institutions and religious outlook of the Indian people.
- Factors such as growth of nationalist sentiments, emergence of new economic forces, spread of education, impact of modern Western ideas and culture and increased awareness of the world strengthened the resolve to reform.
What was the Brahmo Samaj Movement?
- Raja Ram Mohan Roy founded Brahmo Sabha in 1828, which was later renamed as Brahmo Samaj.
- Its chief aim was the worship of the eternal God. It was against priesthood, rituals and sacrifices.
- It focused on prayers, meditation and reading of the scriptures. It believed in the unity of all religions.
- It was the first intellectual reform movement in modern India. It led to the emergence of rationalism and enlightenment in India which indirectly contributed to the nationalist movement.
- It was the forerunner of all social, religious and political movements of modern India. It split into two in 1866, namely Brahmo Samaj of India led by Keshub Chandra Sen and Adi Brahmo Samaj led by Debendranath Tagore.
- Prominent Leaders: Debendranath Tagore, Keshub Chandra Sen, Pt. Sivnath Shastri, and Rabindranath Tagore.
- Debendra Nath Tagor headed the Tattvabodhini Sabha (founded in 1839) which, along with its organ Tattvabodhini Patrika in Bengali, was devoted to the systematic study of India’s past with a rational outlook and to the propagation of Rammohan’s ideas.
- Rammohan Roy progressive ideas met with strong opposition from orthodox elements like Raja Radhakant Deb who organised the Dharma Sabha to counter Brahmo Samaj propaganda.
What was the Prarthana Samaj?
- The Prarthana Samaj was established in Bombay by Dr. Atma Ram Pandurang in 1876 with the objective of rational worship and social reform.
- The two great members of this Samaj were R.C. Bhandarkar and Justice Mahadev Govind Ranade.
- They devoted themselves to the work of social reform such as inter-caste dining, inter-caste marriage, widow remarriage and improvement of the lot of women and depressed classes.
- The four point social agenda of Prarthana Samaj were
- Disapproval of caste system
- Women education
- Widow remarriage
- Raising the age of marriage for both males and females
- Mahavdev Govind Ranade was the founder of the Widow Remarriage Association (1861) and the Deccan Education Society.
- He established the Poona Sarvajanik Sabha as well.
- To Ranade, religious reform was inseparable from social reform.
- He also believed that if religious ideas were rigid there would be no success in social, economic and political spheres.
- Although Prarthana Samaj was powerfully influenced by the ideas of Brahmo Samaj, it did not insist upon a rigid exclusion of idol worship and a definite break from the caste system.
What was the Satyashodhak Samaj?
- Jyotiba Phule organized a powerful movement against upper caste domination and brahminical supremacy.
- He founded the SatyashodhakSamaj (Truth Seekers’ Society) in 1873.
- The main aims of the movement were:
- Social service
- Spread of education among women and lower caste people
- Phule’s works, Sarvajanik Satyadharma and Gulamgiri, became a source of inspiration for the common masses.
- Phule used the symbol of Rajah Bali as opposed to the brahmins’ symbol of Rama.
- Phule aimed at the complete abolition of the caste system and socio-economic inequalities.
- This movement gave a sense of identity to the depressed communities as a class against the Brahmins, who were seen as the exploiters.
What was the Arya Samaj Movement?
- The Arya Samaj Movement was revivalist in form though not in content, as the result of a reaction to Western influences.
- The first Arya Samaj unit was formally set up by Dayananda Saraswati at Bombay in 1875 and later the headquarters of the Samaj were established at Lahore.
- Guiding principles of the Arya Samaj are:
- God is the primary source of all true knowledge;
- God, as all-truth, all-knowledge, almighty, immortal, creator of Universe, is alone worthy of worship;
- The Vedas are the books of true knowledge;
- An Arya should always be ready to accept truth and abandon untruth;
- Dharma, that is, due consideration of right and wrong, should be the guiding principle of all actions;
- The principal aim of the Samaj is to promote world’s well-being in the material, spiritual and social sense;
- Everybody should be treated with love and justice;
- Ignorance is to be dispelled and knowledge increased;
- One’s own progress should depend on the uplift of all others;
- Social well-being of mankind is to be placed above an individual’s well-being.
- The nucleus for this movement was provided by the Dayanand Anglo-Vedic (D.A.V.) schools, established first at Lahore in 1886, which sought to emphasise the importance of Western education.
- The Arya Samaj was able to give self-respect and self confidence to the Hindus which helped to undermine the myth of superiority of whites and the Western culture.
- The Arya Samaj started the shuddhi (purification) movement to reconvert to the Hindu fold the converts to Christianity and Islam.
- This led to increasing communalisation of social life during the 1920s and later snowballed into communal political consciousness.
- The work of the Swami after his death was carried forward by Lala Hansraj, Pandit Gurudutt, Lala Lajpat Rai and Swami Shraddhanand, among others.
- Dayananda’s views were published in his famous work, Satyarth Prakash (The True Exposition).
What was the Young Bengal Movement?
- The young Bengal movement was a movement led by thinkers of the Hindu College of Calcutta. These thinkers were also known by the name Derozians.
- This name was given to them after one teacher of the same college, Henry Louis Vivian Derozio.
- Derozio promoted radical ideas through his teaching and by organizing an association for debate and discussions on literature, philosophy, history and science.
- They cherished the ideals of the French Revolution (1789 A.D.) and the liberal thinking of Britain.
- The Derozians also supported women’s rights and education.
- The main reason for their limited success was the prevailing social condition at that time, which was not ripe for the adoption of radical ideas.
- Further, support from any other social group or class was absent.
- The Derozians lacked any real link with the masses, for instance, they failed to take up the peasants’ cause.
- In fact their radicalism was bookish in character. But, despite their limitations, the Derozians carried forward Roy’s tradition of public education on social, economic, and political questions.
What was the Ramakrishna Movement?
- Ramakrishna Paramhansa was a mystic who sought religious salvation in the traditional ways of renunciation, meditation and devotion.
- He was a saintly person who recognized the fundamental oneness of all religions and emphasized that there were many roads to God and salvation and the service of man is the service of God.
- The teaching of Ramakrishna Paramhansa formed the basis of the Ramakrishna Movement.
- The two objectives of the movements were:
- To bring into existence a band of monks dedicated to a life of renunciation and practical spirituality, from among whom teachers and workers would be sent out to spread the Universal message of Vedanta as illustrated in the life of Ramakrishna.
- In conjunction with lay disciples to carry on preaching, philanthropic and charitable works, looking upon all men, women and children, irrespective of caste, creed or color, as veritable manifestations of the Divine.
- Swami Vivekananda established Ramakrishna Mission in 1897, named after his Guru Swami Ramakrishna Paramhansa. The institution did extensive educational and philanthropic work in India.
- He also represented India in the first Parliament of Religion held in Chicago (U.S.) in 1893.
- He used the Ramakrishna Mission for humanitarian relief and social work.
- The mission stands for religious and social reform. Vivekananda advocated the doctrine of service- the service of all beings.
- The service of jiva( living objects) is the worship of Shiva. Life itself is religion.
- By service, the Divine exists within man. Vivekananda was for using technology and modern science in the service of mankind.
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