1857 की क्रांन्ति
- बैरकपुर में 34 वी इनफेन्ट्री के सैनिक मंगल पाण्डे ने 29 मार्च को चर्बी वाले कारतुसों के खिलाफ विद्रोह कर दिया ।
- 8 अप्रैल को उसे फांसी दे दी गईं।
- 24 अप्रैल को मेरठ छावनी के 90 सैनिकों ने विद्रोह कर दिया ।
- 10 मई को मेरठ छावनी में कान्ति की शुरूआत होती है।
- 20 NI (Native Infantary) तथा 3 L.C. (Light cavelary) ने विद्रोह किया था ।
- विद्रोही सैनिक दिल्ली चले गये तथा 11 मई को बहादुर शाह जफर को अपना नेता बनाया ।
- बंगाल आर्मी में सर्वाधिक सैनिक अवध के होते थे इसलिए अवध को ‘बंगाल आर्मी की नर्सरी’ कहा जाता था ।
- रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया था ।
- सिधिंया ने अंग्रेजो का साथ दिया था तथा रानी लक्ष्मीबाई ग्वालियर में लडते हुये मारी गई ।
- ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मीबाई के बारे में कहा कि “भारतीय क्रान्तिकारियों में एक मात्र मर्द है”
- कैनिन ने कहा था- “सिंधिया अगर क्रान्ति में शामिल हो जाता तो हमें भारत से जाना पडता ।”
क्रान्ति के योजनाकार
- अजीमुल्ला
- रंगोजी बापू
- क्रान्ति का दिन 31 मई तय किया गया था लेकिन मेरठ में क्रान्ति 10 मई को ही शुरू हो गई थी
क्रांन्ति के प्रतीक
- कमल का फूल
- रोटी
क्रांन्ति का स्वरूप
- अंग्रेज इतिहासकार मत
- लॉरेन्स/सीले सैनिक विद्रोह
- T.R. होम्स सभ्यता व बर्बरता के बीच संघर्ष
- L.E.R. रीज धर्मान्धों एवं ईसाईयों के बीच संघर्ष
- बेंजामिन डिजरैली राष्ट्रीय विद्रोह
- भाउट्रम / टेलर भंग्रेजो के विरुद्ध हिन्दू – मुस्लिम षड्यन्त्र
भारतीय
- वीर सावरकर Book (The First War of the Indian Independence) प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तथा अशोक मेहता Book (The Great Rebelion)
- रमेश चन्द्र मंजूमदार ना पहला, ना राष्ट्रीय, ना स्वतंत्रता संग्राम (Book – The sepoy multiny & revolt of 1857).
- सुरेन्द्र नाथ सेन Book-1857 सैनिक विद्रोह से कुछ अधिक तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से थोडा कम
- 1857 कांति का तत्कालीन कारण ब्राउन बेस बंदूकों के स्थान पर नई एनफिल्ड राईफलों का प्रयोग जिनमें चर्बी लगे कारतूस होते थे । इसमें डलहौजी हडप नीति भी इसका कारण थी ।
अन्य महत्वपूर्ण जानकारी
भारतीय इतिहास में क्या था 1857 की क्रांति का कारण और क्या रहा इसका प्रभाव
- 1857 के विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी माना जाता है। यह भारतीय इतिहास की एक बड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इस लेख में हमने विद्रोह के कारणों, प्रभाव, महत्व और परिणामों के बारे में जानकारी दी है।
1857 की क्रांति और इसके प्रभाव
- 1857 का विद्रोह सशस्त्र विद्रोह के साथ-साथ शुरू हुआ था, जो कि ब्रिटिश कब्जे के खिलाफ उत्तरी और मध्य भारत में पनपना शुरू हो गया था। छावनी क्षेत्रों में आगजनी की घटनाओं से जुड़े असंतोष के छोटे-छोटे संकेत शुरुआत में ही सामने आने लगे थे।
- बाद में मई,1857 में बड़े पैमाने पर विद्रोह भड़क उठा और प्रभावित क्षेत्र में पूरी तरह से युद्ध में बदल गया। इस युद्ध से भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया था और अगले 90 वर्षों तक भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश भाग पर ब्रिटिश सरकार (ब्रिटिश राज) का सीधा शासन स्थापित हो गया था।
1857 के विद्रोह के कारण
- 1857 के विद्रोह के कारक के रूप में चर्बी वाले कारतूसों और सैन्य शिकायतों के मुद्दे पर अत्यधिक जोर दिया गया है। हालांकि, हाल के शोधों से यह निकल कर आया है कि कारतूस ही इस विद्रोह का एकमात्र कारण नहीं था। वास्तव में विद्रोह उत्पन्न करने के लिए सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक-आर्थिक जैसे कई कारणों ने मिलकर काम किया।
सामाजिक और धार्मिक कारण:
- अंग्रेजों ने भारतीयों के सामाजिक-धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप न करने की अपनी नीति को छोड़ दिया था। सती उन्मूलन (1829), हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856)। ईसाई मिशनरियों को भारत में प्रवेश करने और धर्मांतरण के अपने मिशन को आगे बढ़ाने की अनुमति दी गई। 1850 के धार्मिक अधिनियम ने पारंपरिक हिंदू कानून को संशोधित किया। इसके अनुसार, धर्म परिवर्तन से किसी बेटे को अपने बुतपरस्त(बाइबल न मानने वाला व्यक्ति) पिता की संपत्ति पाने से वंचित नहीं किया जाएगा।
आर्थिक कारण:
- ब्रिटिश शासन के कारण गांव की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई थी और कृषि का व्यावसायीकरण हुआ, जिससे किसानों पर बोझ पड़ा था। 1800 से मुक्त व्यापार साम्राज्यवाद को अपनाया गया और गैर-औद्योगिकीकरण और धन का निकास हुआ, जिसके कारण अर्थव्यवस्था में गिरावट आई।
सैन्य शिकायतें:
- भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व के विस्तार ने सिपाहियों की सेवा स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला था। उन्हें अतिरिक्त भत्ते के भुगतान के बिना अपने घरों से दूर एक क्षेत्र में सेवा करने की आवश्यकता कर दी गई थी। सैन्य असंतोष का एक महत्वपूर्ण कारण जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट एक्ट, 1856 था, जिसने आवश्यकता पड़ने पर सिपाहियों के लिए समुद्र पार करना अनिवार्य बना दिया था। 1854 के डाकघर अधिनियम ने उनके लिए निःशुल्क डाक सुविधा वापस ले ली थी।
राजनीतिक कारण:
- ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र का अंतिम बड़ा विस्तार डलहौजी के समय में हुआ। डलहौजी ने 1849 में घोषणा की कि बहादुर शाह द्वितीय के उत्तराधिकारी को लाल किला छोड़ना होगा। हालांकि, बघाट और उदयपुर का विलय रद्द कर दिया गया और उन्हें उनके शासकों के साथ घरों में बहाल कर दिया गया। जब डलहौजी ने करौली (राजपूताना) में डॉक्टराइन ऑफ लैप्स को लागू करना चाहा, तो निदेशकों की अदालत ने उसे खारिज कर दिया।
1857 के विद्रोह से जुड़े लोग
बैरकपुर | मंगल पांडे |
दिल्ली | बहादुर शाह द्वितीय, जनरल बख्त खान |
दिल्ली | हकीम अहसानुल्लाह (बहादुर शाह द्वितीय के मुख्य सलाहकार) |
लखनऊ | बेगम हज़रत महल, बिरजिस कादिर, अहमदुल्लाह (अवध के पूर्व नवाब के सलाहकार) |
कानपुर | नाना साहब, राव साहब (नाना के भतीजे), तांतिया टोपे, अजीमुल्ला खान (नाना साहब के सलाहकार) |
झांसी | रानी लक्ष्मीबाई |
बिहार (जगदीशपुर) | कुंवर सिंह, अमर सिंह |
इलाहबाद और बनारस | मौलवी लियाकत अली |
फैजाबाद | मौलवी अहमदुल्ला (उन्होंने विद्रोह को अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद घोषित किया) |
फर्रुखाबाद | तुफजल हसन खान |
बिजनौर | मोहम्मद खान |
मुरादाबाद | अब्दुल अली खान |
बरेली | खान बहादुर खान |
मंदसौर | फिरोज शाह |
ग्वालियर/कानपुर | तांतिया टोपे |
असम | कंडापरेश्वर सिंह, मणिरामा दत्ता |
ओडिसा | सुरेंद्र शाही, उज्जवल शाही |
कुल्लू | राजा प्रताप सिंह |
राजस्थान | जयदयाल सिंह और हरदयाल सिंह |
गोरखपुर | गजाधर सिंह |
मथुरा | सेवी सिंह, कदम सिंह |

विद्रोह से जुड़े ब्रिटिश अधिकारी
जनरल जॉन निकोलसन | 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर कब्जा कर लिया (लड़ाई के दौरान गंभीर घाव के कारण जल्द ही निकोलसन की मृत्यु हो गई)। |
मेजर हडसन | दिल्ली में बहादुर शाह के पुत्रों और पौत्रों की हत्या कर दी। |
सर ह्यू व्हीलर | 26 जून 1857 तक नाना साहब की सेना से रक्षा। ब्रिटिश सेना ने 27 तारीख को इलाहाबाद में सुरक्षित आचरण के वादे पर आत्मसमर्पण कर दिया। |
जनरल नील | जून 1857 में बनारस और इलाहाबाद पर पुनः कब्ज़ा कर लिया। कानपुर में उन्होंने नाना साहब की सेना द्वारा अंग्रेजों की हत्या का बदला लेने के लिए भारतीयों की हत्या कर दी। विद्रोहियों के विरुद्ध लड़ते हुए लखनऊ में मृत्यु हो गई। |
सर कॉलिन कैम्पबेल | 6 दिसंबर, 1857 को कानपुर की अंतिम पुनर्प्राप्ति। 21 मार्च, 1858 को लखनऊ पर अंतिम कब्जा। 5 मई, 1858 को बरेली पर पुनः कब्जा। |
हेनरी लॉरेंस | अवध के मुख्य आयुक्त, जिनकी 2 जुलाई 1857 को लखनऊ में विद्रोहियों द्वारा ब्रिटिश रेजीडेंसी पर कब्जा करने के दौरान मृत्यु हो गई। |
मेजर जनरल हैवलॉक | 17 जुलाई, 1857 को विद्रोहियों (नाना साहब की सेना) को हराया। दिसंबर 1857 में लखनऊ में निधन हो गया। |
विलियम टेलर एंड आई | अगस्त 1857 में आरा में विद्रोह का दमन किया। |
ह्यू रोज़ | झांसी में विद्रोह को दबाया और 20 जून, 1858 को ग्वालियर पर पुनः कब्जा कर लिया। सम्पूर्ण मध्य भारत और बुन्देलखण्ड को उनके द्वारा ब्रिटिश नियंत्रण में लाया गया। |
कर्नल ओन्सेल | इनके द्वारा बनारस पर कब्जा कर लिया गया था |
विद्रोह के असफलता के कारण
- कुछ स्थानीय शासकों जैसे ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, हैदराबाद के निजाम, जोधपुर के राजा, भोपाल के नवाब, पटियाला, सिंध और कश्मीर के शासकों और नेपाल के राणा ने बिट्रिश सरकार को सक्रिय समर्थन प्रदान किया।
- विद्रोहियों के सैन्य उपकरण अधिक उन्नत नहीं थे। कुशल नेतृत्व का तुलनात्मक अभाव था।
- कुछ बुद्धजीवी भारतीयों ने भी इस मुद्दे का समर्थन नहीं किया था।
विद्रोह का प्रभाव
- विद्रोह मुख्यतः सामंती चरित्र का था और इसमें कुछ राष्ट्रवादी तत्व भी थे।
- भारत सरकार अधिनियम, 1858 द्वारा भारतीय प्रशासन का नियंत्रण ब्रिटिश क्राउन को सौंप दिया गया।
- ऐसी घटना की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सेना को सावधानीपूर्वक पुनर्गठित किया गया था।
1857 का विद्रोह
1857 का भारतीय विद्रोह भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ एक व्यापक लेकिन असफल विद्रोह था जिसने ब्रिटिश राज की ओर से एक संप्रभु शक्ति के रूप में कार्य किया।
विद्रोह
- यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ संगठित प्रतिरोध की पहली अभिव्यक्ति थी।
- यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ, लेकिन जनता की भागीदारी भी इसने हासिल कर ली।
- विद्रोह को कई नामों से जाना जाता है: सिपाही विद्रोह (ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा), भारतीय विद्रोह, महान विद्रोह (भारतीय इतिहासकारों द्वारा), 1857 का विद्रोह, भारतीय विद्रोह और स्वतंत्रता का पहला युद्ध (विनायक दामोदर सावरकर द्वारा)।
विद्रोह के कारण
राजनीतिक कारण
- अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति: 1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनैतिक कारण अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति और व्यपगत का सिद्धांत था।
- बड़ी संख्या में भारतीय शासकों और प्रमुखों को हटा दिया गया, जिससे अन्य सत्तारुढ़ परिवारों के मन में भय पैदा हो गया।
- रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को झाँसी के सिंहासन पर बैठने की अनुमति नहीं थी।
- डलहौज़ी ने अपने व्यपगत के सिद्धांत का पालन करते हुए सतारा, नागपुर और झाँसी जैसी कई रियासतों को अपने अधिकार में ले लिया।
- जैतपुर, संबलपुर और उदयपुर भी हड़प लिये गए।
- लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा अवध को भी ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कर लिया गया जिससे अभिजात वर्ग के हज़ारों लोग, अधिकारी, अनुचर और सैनिक बेरोज़गार हो गए। इस कार्यवाही ने एक वफादार राज्य ‘अवध’ को असंतोष और षड्यंत्र के अड्डे के रूप में परिवर्तित कर दिया।
व्यपगत का सिद्धांतः
- वर्ष 1840 के दशक के अंत में लॉर्ड डलहौजी द्वारा पहली बार व्यपगत का सिद्धांत नामक उल्लेखनीय ब्रिटिश तकनीक का सामना किया गया था।
- इसमें अंग्रेज़ों द्वारा किसी भी शासक के नि:संतान होने पर उसे अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने का अधिकार नहीं था, अतः शासक की मृत्यु होने के बाद या सत्ता का त्याग करने पर उसके शासन पर कब्ज़ा कर लिया जाता था।
- इन समस्याओं में ब्राह्मणों के बढ़ते असंतोष को भी शामिल किया गया था, जिनमें से कई लोग राजस्व प्राप्ति के अधिकार से दूर हो गए थे या अपने लाभप्रद पदों को खो चुके थे।
सामाजिक और धार्मिक कारण
- कंपनी शासन के विस्तार के साथ-साथ अंग्रेज़ों ने भारतीयों के साथ अमानुषिक व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया।
- भारत में तेज़ी से फैल रही पश्चिमी सभ्यता के कारण आबादी का एक बड़ा वर्ग चिंतित था।
- अंग्रेज़ों के रहन-सहन, अन्य व्यवहार एवं उद्योग-अविष्कार का असर भारतीयों की सामाजिक मान्यताओं पर पड़ता था।
- 1850 में एक अधिनियम द्वारा वंशानुक्रम के हिंदू कानून को बदल दिया गया।
- ईसाई धर्म अपना लेने वाले भारतीयों की पदोन्नति कर दी जाती थी।
- भारतीय धर्म का अनुपालन करने वालों को सभी प्रकार से अपमानित किया जाता था।
- इससे लोगों को यह संदेह होने लगा कि अंग्रेज़ भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की योजना बना रहे हैं।
- सती प्रथा तथा कन्या भ्रूण हत्या जैसी प्रथाओं को समाप्त करने और विधवा-पुनर्विवाह को वैध बनाने वाले कानून को स्थापित सामाजिक संरचना के लिये खतरा माना गया।
- शिक्षा ग्रहण करने के पश्चिमी तरीके हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों की रूढ़िवादिता को सीधे चुनौती दे रहे थे।
- यहाँ तक कि रेलवे और टेलीग्राफ की शुरुआत को भी संदेह की दृष्टि से देखा गया।
आर्थिक कारण
- ग्रामीण क्षेत्रों में किसान और ज़मींदार भूमि पर भारी-भरकम लगान और कर वसूली के सख्त तौर-तरीकों से परेशान थे।
- अधिक संख्या में लोग महाजनों से लिये गए कर्ज़ को चुकाने में असमर्थ थे जिसके कारण उनकी पीढ़ियों पुरानी ज़मीने हाथ से निकलती जा रही थी।
- बड़ी संख्या में सिपाही खुद किसान वर्ग से थे और वे अपने परिवार, गाँव को छोड़कर आए थे, इसलिये किसानों का गुस्सा जल्द ही सिपाहियों में भी फैल गया।
- इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का प्रवेश भारत में हुआ जिसने विशेष रूप से भारत के कपड़ा उद्योग को बर्बाद कर दिया।
- भारतीय हस्तकला उद्योगों को ब्रिटेन के सस्ते मशीन निर्मित वस्तुओं के साथ प्रतिस्पर्द्धा करनी पड़ी।
सैन्य कारण
- 1857 का विद्रोह एक सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुआ:
- भारत में ब्रिटिश सैनिकों के बीच भारतीय सिपाहियों का प्रतिशत 87 था, लेकिन उन्हें ब्रिटिश सैनिकों से निम्न श्रेणी का माना जाता था।
- एक भारतीय सिपाही को उसी रैंक के एक यूरोपीय सिपाही से कम वेतन का भुगतान किया जाता था।
- उनसे अपने घरों से दूर क्षेत्रों में काम करने की अपेक्षा की जाती थी।
- वर्ष 1856 में लॉर्ड कैनिंग ने एक नया कानून जारी किया जिसमें कहा गया कि कोई भी व्यक्ति जो कंपनी की सेना में नौकरी करेगा तो ज़रूरत पड़ने पर उसे समुद्र पार भी जाना पड़ सकता है।
लॉर्ड कैनिंग
- चार्ल्स जॉन कैनिंग 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान भारत का राजनेता और गवर्नर जनरल था।
- वह वर्ष 1858 में भारत का पहला वायसराय बना।
- उसके कार्यकाल में हुई महत्त्वपूर्ण घटनाओं में निम्नलिखित शामिल हैं:
- वह 1857 के विद्रोह को सफलतापूर्वक दबाने में सक्षम था।
- भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 पारित करना जिसने भारत में पोर्टफोलियो प्रणाली की शुरुआत की।
- “व्यपगत के सिद्धांत” को वापस लेना जो 1857 के विद्रोह के मुख्य कारणों में से एक था।
- आपराधिक प्रक्रिया संहिता का परिचय।
- भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम का अधिनियमन।
- भारतीय दंड संहिता (1858)।
तात्कालिक कारण
- 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारण सैनिक थे।
- एक अफवाह यह फैल गई कि नई ‘एनफिल्ड’ राइफलों के कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता है।
- सिपाहियों को इन राइफलों को लोड करने से पहले कारतूस को मुँह से खोलना पड़ता था।
- हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाहियों ने उनका इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया।
- लॉर्ड कैनिंग ने इस गलती के लिये संशोधन करने का प्रयास किया और विवादित कारतूस वापस ले लिया गया लेकिन इसकी वजह से कई जगहों पर अशांति फैल चुकी थी।
- मार्च 1857 को नए राइफल के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पांडे ने आवाज़ उठाई और अपने वरिष्ठ अधिकारियों पर हमला कर दिया था।
- 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पांडे को फाँसी की सज़ा दे दी गई।
- 9 मई, 1857 को मेरठ में 85 भारतीय सैनिकों ने नए राइफल का प्रयोग करने से इनकार कर दिया तथा विरोध करने वाले सैनिकों को दस-दस वर्ष की सज़ा दी गई।
विद्रोह के केंद्र
- विद्रोह पटना से लेकर राजस्थान की सीमाओं तक फैला हुआ था। विद्रोह के मुख्य केंद्रों में कानपुर, लखनऊ, बरेली, झाँसी, ग्वालियर और बिहार के आरा ज़िले शामिल थे।
- लखनऊ: यह अवध की राजधानी थी। अवध के पूर्व राजा की बेगमों में से एक बेगम हज़रत महल ने विद्रोह का नेतृत्व किया।
- कानपुर: विद्रोह का नेतृत्व पेशवा बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने किया था।
- झाँसी: 22 वर्षीय रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। क्योंकि उनके पति की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने उनके दत्तक पुत्र को झाँसी के सिंहासन पर बैठाने से इनकार कर दिया।
- ग्वालियर: झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और नाना साहेब के सेनापति तात्या टोपे के साथ मिलकर उन्होंने ग्वालियर तक मार्च किया और उस पर कब्ज़ा कर लिया।
- वह ब्रिटिश सेनाओं के खिलाफ मजबूती से लड़ी, लेकिन अंतत: अंग्रेज़ों से हार गई।
- ग्वालियर पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था।
- बिहार: विद्रोह का नेतृत्व कुंवर सिंह ने किया, जो जगदीशपुर, बिहार के एक शाही घराने से थे।
दमन और विद्रोह
- 1857 का विद्रोह एक वर्ष से अधिक समय तक चला। इसे 1858 के मध्य तक दबा दिया गया था।
- मेरठ में विद्रोह भड़कने के 14 महीने बाद 8 जुलाई, 1858 को लॉर्ड कैनिंग द्वारा शांति की घोषणा की गई।
विद्रोह के स्थान | भारतीय नेता | ब्रिटिश अधिकारी जिन्होंने विद्रोह को दबा दिया |
दिल्ली | बहादुर शाह द्वितीय | जॉन निकोलसन |
लखनऊ | बेगम हजरत महल | हेनरी लारेंस |
कानपुर | नाना साहेब | सर कोलिन कैंपबेल |
झाँसी और ग्वालियर | लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे | जनरल ह्यूग रोज |
बरेली | खान बहादुर खान | सर कोलिन कैंपबेल |
इलाहाबाद और बनारस | मौलवी लियाकत अली | कर्नल ऑनसेल |
बिहार | कुँवर सिंह | विलियम टेलर |
विद्रोह की असफलता के कारण
- सीमित प्रभाव: हालाँकि विद्रोह काफी व्यापक था, लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा इससे अप्रभावित रहा।
- विद्रोह मुख्य रूप से दोआब क्षेत्र तक ही सीमित था जैसे- सिंध, राजपूताना, कश्मीर और पंजाब के अधिकांश भाग।
- बड़ी रियासतें, हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर और कश्मीर तथा राजपूताना के लोग भी विद्रोह में शामिल नहीं हुए।
- दक्षिणी प्रांतों ने भी इसमें भाग नहीं लिया।
- प्रभावी नेतृत्व नहीं: विद्रोहियों में एक प्रभावी नेता का अभाव था। हालाँकि नाना साहेब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई आदि बहादुर नेता थे, लेकिन वे समग्र रूप से आंदोलन को प्रभावी नेतृत्व प्रदान नहीं कर सके।
- सीमित संसाधन: सत्ताधारी होने के कारण रेल, डाक, तार एवं परिवहन तथा संचार के अन्य सभी साधन अंग्रेज़ों के अधीन थे। इसलिये विद्रोहियों के पास हथियारों और धन की कमी थी।
- मध्य वर्ग की भागीदारी नहीं: अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मध्यम वर्ग, बंगाल के अमीर व्यापारियों और ज़मींदारों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों की मदद की।
विद्रोह का परिणाम
- कंपनी शासन का अंत: 1857 का महान विद्रोह आधुनिक भारत के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना था।
- यह विद्रोह भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के अंत का कारण बना।
- ब्रिटिश राज का प्रत्यक्ष शासन: ब्रिटिश राज ने भारत के शासन की ज़िम्मेदारी सीधे अपने हाथों में ले ली।
- इसकी घोषणा पहले वायसराय, लॉर्ड कैनिंग ने इलाहाबाद में की थी।
- भारतीय प्रशासन को महारानी विक्टोरिया ने अपने अधिकार में ले लिया, जिसका प्रभाव ब्रिटिश संसद पर पड़ा।
- भारत का कार्यालय देश के शासन और प्रशासन को संभालने के लिये बनाया गया था।
- धार्मिक सहिष्णुता: अंग्रेज़ों ने यह वादा किया कि वे भारत के लोगों के धर्म एवं सामाजिक रीति-रिवाज़ों और परंपराओं का सम्मान करेंगे।
- प्रशासनिक परिवर्तन: भारत के गवर्नर जनरल के पद को वायसराय के पद से स्थानांतरित किया गया।
- भारतीय शासकों के अधिकारों को मान्यता दी गई थी।
- व्यपगत के सिद्धांत को समाप्त कर दिया गया था।
- अपनी रियासतों को दत्तक पुत्रों को सौंपने की छूट दे दी गई थी।
- सैन्य पुनर्गठन: सेना में भारतीय सिपाहियों का अनुपात कम करने और यूरोपीय सिपाहियों की संख्या बढ़ाने का निर्णय लिया गया लेकिन शस्त्रागार ब्रिटिश शासन के हाथों में रहा। बंगाल की सेना के प्रभुत्व को समाप्त करने के लिये यह योजना बनाई गई थी।
निष्कर्ष
- 1857 का विद्रोह भारत में ब्रिटिश शासन के इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी। इसके कारण भारतीय समाज के कई वर्ग एकजुट हुए। हालाँकि विद्रोह वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रहा लेकिन इसने भारतीय राष्ट्रवाद के बीज बो दिये।
1857 के विद्रोह पर लिखी गई पुस्तकें
- विनायक दामोदर सावरकर द्वारा द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस
- पूरन चंद जोशी द्वारा रिबेलियन, 1857 ए सिम्पोज़िअम
- जॉर्ज ब्रूस मल्लेसन द्वारा द इंडियन म्यूटिनी ऑफ 1857
- क्रिस्टोफर हिबर्ट द्वारा ग्रेट म्यूटिनी
- इकबाल हुसैन द्वारा रिलिजन एंड आइडियोलॉजी ऑफ द रिबेल ऑफ 1857
- खान मोहम्मद सादिक खान द्वारा एक्सकवेशन ऑफ ट्रूथ: अनसुंग हीरोज़ ऑफ 1857 वार ऑफ इंडिपेंडेंस
1857 के विद्रोह के कारण
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की विस्तारवादी और साम्राज्यवादी नीतियों का समाज के सभी वर्गों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा, जिसमें शासक, किसान और व्यापारी शामिल थे। 1857 की क्रांति (1857 ki kranti) केवल एक नीति या घटना से प्रेरित नहीं था; इसके बजाय, यह राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक और सामाजिक-धार्मिक कारकों के संयोजन से उत्पन्न हुआ था। इन कारणों पर नीचे संक्षेप में चर्चा की गई है:
आर्थिक कारण
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमि राजस्व नीतियों के कारण किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। उन्हें भारी करों का सामना करना पड़ रहा है और साहूकारों और व्यापारियों से उच्च ब्याज दरों पर ऋण लेना पड़ रहा है।
- भुगतान न करने पर उनकी जमीनें जब्त कर ली गईं, जिससे उनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं रहा।
- ब्रिटिशों द्वारा भारतीय राज्यों पर कब्जा कर लेने के बाद, शासक अब कारीगरों और शिल्पकारों की सहायता नहीं कर सकते थे, जिससे वे दुःख की स्थिति में पहुंच गए।
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक नीतियों का भारतीय उद्योगों और हस्तशिल्प पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा।
- उन्होंने भारतीय वस्तुओं पर भारी शुल्क लगा दिया, जिससे कपास और रेशम के निर्यात में गिरावट आई, जो अंततः उन्नीसवीं सदी के मध्य तक बंद हो गयी।
प्रशासनिक कारण
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन को अधिक दक्षता और प्रभावशीलता की आवश्यकता थी। हालाँकि सर थॉमस मुनरो ने भारतीयों को रोजगार देने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन उस संबंध में अंग्रेजों द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई। कंपनी के प्रशासन में भ्रष्टाचार व्यापक था।
1857 के विद्रोह के राजनीतिक कारण
- 1840 के दशक के अंत में लॉर्ड डलहौजी ने व्यपगत सिद्धांत लागू किया।
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा लागू की गई हड़प नीति ने शासकों के दत्तक बच्चों को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित कर दिया, जिससे नाना साहिब और रानी लक्ष्मीबाई जैसे शासकों में नाराजगी पैदा हो गई।
- अंग्रेजों ने सहायक गठबंधन और प्रभावी नियंत्रण जैसी आक्रामक नीतियों को भी लागू किया, राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया, जिससे शासकों के बीच असंतोष और बढ़ गया।
- मुगल शासक फकीर-उद-दीन की मृत्यु के बाद, लॉर्ड कैनिंग ने घोषणा की कि उत्तराधिकारी राजकुमार को मुगल साम्राज्य की शाही उपाधियों और पैतृक संपत्तियों का त्याग करना होगा, जिससे भारतीय मुसलमानों की भावनाओं पर गहरा असर पड़ा।
सामाजिक-धार्मिक कारण
- विद्रोह के सामाजिक और धार्मिक कारण थे:
- भारत में तेजी से फैल रही पश्चिमी सभ्यता,
- रेलवे और टेलीग्राफ की शुरूआत, और
- सती प्रथा और कन्या भ्रूण हत्या जैसी प्रथाओं का उन्मूलन।
कई लोगों ने इन परिवर्तनों को पारंपरिक भारतीय समाज और संस्कृति के लिए खतरे के रूप में देखा।
- विद्रोह के सैन्य कारण थे:
- भारतीय सिपाहियों का कम वेतन,
- वे अपने घरों से दूर क्षेत्रों में जो ज़रूरतें पूरी करते हैं, और
- एनफील्ड राइफल की शुरूआत। इनमें ऐसे कारतूसों का इस्तेमाल किया जाता था जिनके बारे में अफ़वाह थी कि उनमें गाय और सूअर की चर्बी लगी होती थी।
इन कारकों के कारण सिपाहियों में व्यापक असंतोष फैल गया, जो भारत में ब्रिटिश सेना की रीढ़ थे।
1857 के विद्रोह के परिणाम
- ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत: ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक सदी से भी ज़्यादा समय तक भारत पर शासन किया था। 1857 के विद्रोह ने दिखा दिया कि अब वह उपनिवेश पर नियंत्रण बनाए रखने में सक्षम नहीं थी। ब्रिटिश सरकार ने कंपनी को खत्म करने और भारत पर सीधा नियंत्रण करने का फ़ैसला किया।
- प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन की स्थापना: विद्रोह के बाद, भारत पर सीधे ब्रिटिश क्राउन का शासन था। इसका मतलब था कि ब्रिटिश सरकार का भारत के प्रशासन पर अधिक नियंत्रण था। वे ईस्ट इंडिया कंपनी से परामर्श किए बिना निर्णय ले सकते थे।
- भारतीय सिविल सेवा का निर्माण: भारतीय सिविल सेवा की स्थापना 1858 में की गई थी। इसका उद्देश्य भारत पर शासन करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों का एक कैडर प्रदान करना था। आईसीएस की भर्ती एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से की जाती थी। इसे ब्रिटिश कानून और प्रशासन में प्रशिक्षित किया जाता था।
- भारतीयों में राष्ट्रवाद का उदय: 1857 के विद्रोह ने भारतीयों को दिखाया कि वे अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर अपनी आजादी के लिए लड़ सकते हैं। इससे भारतीयों में राष्ट्रवाद का उदय हुआ। इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे नए राजनीतिक संगठनों के गठन को भी जन्म दिया।
- भारतीय संस्कृति और विरासत में नई रुचि: कई भारतीयों ने अपने अतीत की ओर देखना शुरू कर दिया और अपनी परंपराओं पर गर्व महसूस किया। इससे भारतीय कला, साहित्य और संगीत का पुनरुत्थान हुआ।
- सेना का पुनर्गठन: एक और विद्रोह के जोखिम को कम करने के लिए ब्रिटिश सेना का पुनर्गठन किया गया। भारतीय सेना में ब्रिटिश सैनिकों का अनुपात बढ़ा दिया गया। भारतीय सैनिकों को अब एक ही क्षेत्र से समूहों में सेवा करने की अनुमति नहीं थी।
1857 के विद्रोह का घटनाक्रम कालानुक्रमिक क्रम में
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ भारतीय सिपाहियों के बीच पनप रहे असंतोष को चर्बी वाले कारतूसों के इस्तेमाल के आदेश ने और भी भड़का दिया। सिपाहियों ने चर्बी वाले कारतूसों का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। इसे ब्रिटिश अधिकारियों ने अवज्ञा माना और सिपाहियों के लिए कठोर दंड लागू करना शुरू कर दिया। इस तरह 1857 का विद्रोह (1857 ka vidroh in hindi) शुरू हुआ।
तारीख | घटनाक्रम |
2 फरवरी 1857 | बरहामपुर में 19वीं नेटिव इन्फैंट्री ने एनफील्ड राइफल का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद विद्रोह शुरू हो गया। जल्द ही उन्हें भंग कर दिया गया। |
8 अप्रैल 1857 | 34वीं नेटिव इन्फैंट्री के सिपाही मंगल पांडे को सार्जेंट मेजर पर गोली चलाने के कारण फांसी दे दी गई और 34वीं नेटिव इन्फैंट्री को भंग कर दिया गया। |
10 मई 1857 | विद्रोह मेरठ में शुरू हुआ। |
11 से 30 मई 1857 | बहादुर शाह जफर को भारत का सम्राट घोषित किया गया। धीरे-धीरे दिल्ली, बम्बई, अलीगढ, फिरोजपुर, बुलन्दशहर, इटावा, मोरादाबाद, बरेली, शाहजहाँपुर तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर विद्रोह भड़क उठा। |
जून 1857 | ग्वालियर, झांसी, इलाहाबाद, फैजाबाद, लखनऊ, भरतपुर आदि स्थानों पर प्रकोप। |
जुलाई और अगस्त 1857 | इंदौर, महू, नर्बुद्गा जिलों और पंजाब में कुछ स्थानों पर विद्रोह हुए। |
सितंबर 1857 | दिल्ली पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुनः कब्ज़ा कर लिया। |
नवंबर 1857 | जनरल विन्धम को कानपुर के बाहर विद्रोहियों ने पराजित कर दिया। |
दिसंबर 1857 | कानपुर का युद्ध सर कॉलिन कैम्पबेल ने जीता था। |
मार्च 1857 | लखनऊ पर अंग्रेजों ने पुनः कब्ज़ा कर लिया। |
अप्रैल 1857 | रानी लक्ष्मीबाई के विरुद्ध युद्ध करके अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया था। |
मई 1857 | बरेली, कालपी और जगदीशपुर पर अंग्रेजों ने पुनः कब्ज़ा कर लिया। |
जुलाई से दिसंबर 1857 | धीरे-धीरे भारत में ब्रिटिश सत्ता पुनः स्थापित हो गयी। |
1857 के विद्रोह के नेता
- निम्नलिखित तालिका में 1857 की क्रांति के केन्द्रों, उन केन्द्रों पर विद्रोह का नेतृत्व करने वाले नेताओं तथा विद्रोह को दबाने वाले ब्रिटिश जनरलों का विवरण दिया गया है।
विद्रोह के केंद्र | 1857 के विद्रोह के नेता | विद्रोह को दबाने वाले ब्रिटिश जनरल |
दिल्ली | जनरल बख्त खान | लेफ्टिनेंट विलोबी, जॉन निकोलसन और लेफ्टिनेंट हडसन। |
कानपुर | नाना साहब | सर ह्यू व्हीलर और सर कॉलिन कैम्पबेल। |
लखनऊ | बेगम हज़रत महल | हेनरी लॉरेंस, ब्रिगेडियर इंगलिस, हेनरी हैवलॉक, जेम्स आउट्रम और सर कॉलिन कैंपबेल। |
बरेली | खान बहादुर | जेम्स आउट्रम |
बिहार | कुंवर सिंह | सर कॉलिन कैम्पबेल |
फैजाबाद | मौलवी अहमदुल्लाह | सर कॉलिन कैम्पबेल |
झांसी | रानी लक्ष्मीबाई | सर ह्यूग रोज़ |
1857 के विद्रोह की असफलता के कारण
- विद्रोही बलों के बीच समन्वय और एकीकृत नेतृत्व का अभाव।
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की श्रेष्ठ सैन्य शक्ति और संसाधन।
- विद्रोह में शामिल विभिन्न समूहों के बीच विभाजन, जिसमें क्षेत्रीय, धार्मिक और सामाजिक विभाजन शामिल हैं।
- विद्रोही बलों के बीच अपर्याप्त संचार और सूचना का धीमा प्रसार।
- भारतीय शासकों और कुलीन वर्ग से व्यापक समर्थन का अभाव।
- विद्रोही नेताओं द्वारा की गई रणनीतिक गलतियाँ, जैसे सैन्य अभियानों की खराब योजना और क्रियान्वयन।
- विद्रोही बलों के लिए आधुनिक हथियारों और सैन्य प्रशिक्षण तक सीमित पहुंच।
- विद्रोही समूहों के भीतर आंतरिक संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता का फायदा उठाने की ब्रिटिश क्षमता।
- कुछ रियासतों सहित भारतीय समाज के प्रमुख वर्गों को जीतने या बेअसर करने में ब्रिटिशों की सफलता।
- विद्रोह के दमन के बाद ब्रिटिश नियंत्रण की बहाली और औपनिवेशिक शासन को सुदृढ़ करना।
निष्कर्ष
- 1857 का विद्रोह, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ़ लड़ा गया एक उपनिवेश-विरोधी आंदोलन, भारतीय इतिहास में घटित एक महत्वपूर्ण घटना है। हालाँकि बाद में विद्रोह को दबा दिया गया, लेकिन इसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। 1857 के विद्रोह के अंत के साथ ही, क्षेत्रीय विस्तार का युग भी समाप्त हो गया। हालाँकि, इसने भारत के आर्थिक शोषण के युग का मार्ग प्रशस्त किया।
भारतीय विद्रोह की निर्णायक घटनाएँ

विद्रोह के केंद्र
- मई 1857 में मेरठ में भारतीय विद्रोह के भड़कने के बाद, उत्तरी और मध्य भारत में विद्रोह हुए। विद्रोह के मुख्य केंद्र दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झांसी और ग्वालियर थे।
- एक वर्ष से अधिक समय तक ब्रिटिशों ने खूनी और अक्सर क्रूर अभियान के दौरान अपना शासन बनाए रखने के लिए संघर्ष किया, जिसमें दोनों पक्षों की ओर से अत्याचार हुए।
दिल्ली
- दिल्ली शहर विद्रोह का केंद्र बन गया। यह बहादुर शाह ज़फ़र की गद्दी थी, जो बूढ़े और काफी हद तक शक्तिहीन मुगल सम्राट थे। मेरठ से विद्रोही तुरंत वहाँ पहुँच गए और उनसे समर्थन और नेतृत्व माँगा, जो उन्होंने अनिच्छा से दिया।
- दिल्ली कलकत्ता और पंजाब के नए क्षेत्रों के बीच एक महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थान पर स्थित थी। इसे पुनः प्राप्त करना अंग्रेजों की प्राथमिकता थी।

1857 में दिल्ली रिज पर विद्रोही अभियान को पीछे धकेलना
11 मई 1857
- बाजार से आई भीड़ की सहायता से विद्रोहियों ने यूरोपीय और भारतीय ईसाइयों की हत्या कर दी।
7 जून 1857
- जल्दबाजी में गठित 4,000 सैनिकों की सेना दिल्ली के ऊपर स्थित एक पहाड़ी पर कब्जा करने में सफल रही, लेकिन शहर को पुनः अपने कब्जे में लेने के लिए वह बहुत कमजोर थी।
जुलाई-अगस्त 1857
- 30,000 से ज़्यादा विद्रोहियों का सामना करने के बाद अंग्रेज़ों पर दबाव बढ़ता गया। हैजा के कारण सेना को नुकसान उठाना पड़ा। भीषण गर्मी में, अंग्रेजों ने रिज पर कब्ज़ा करने के विद्रोही प्रयासों को रोक दिया।
14 अगस्त 1857
- पंजाब से ब्रिगेडियर-जनरल जॉन निकोलसन के नेतृत्व में 32 तोपों और 2,000 सैनिकों की घेराबंदी ट्रेन सहित सुदृढीकरण आ गया। रास्ते में निकोलसन ने सैकड़ों विद्रोहियों और निर्दोष नागरिकों को बिना किसी मुकदमे के मौत के घाट उतार दिया था।
14 सितम्बर 1857
- सितंबर तक दिल्ली के सामने अंग्रेजों के 9,000 सैनिक थे। एक तिहाई अंग्रेज थे, बाकी सिख, पंजाबी मुसलमान और गोरखा थे। उनका हमला तब शुरू हुआ जब तोपों ने दीवारों को तोड़ दिया और कश्मीर गेट को उड़ा दिया।
14-21 सितम्बर 1857
- दिल्ली पर कब्ज़ा करने से पहले एक हफ़्ते तक सड़कों पर भयंकर लड़ाई चली। उसके बाद लूटपाट और हत्याओं का तांडव मचा। लेकिन दिल्ली पर फिर से कब्ज़ा करना विद्रोह को दबाने में निर्णायक कारक साबित हुआ।


कानपुर
- कानपुर गंगा नदी पर एक प्रमुख क्रॉसिंग पॉइंट था, और एक महत्वपूर्ण जंक्शन था, जहाँ ग्रांड ट्रंक रोड और झांसी से लखनऊ जाने वाली सड़क मिलती थी। जून 1857 में वहाँ के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और मेजर-जनरल सर ह्यूग व्हीलर की छावनी को घेर लिया।
- व्हीलर शहर के बाहर एक किले में जाकर छिप गया था। स्थानीय शासक नाना साहिब, जो अपनी संपत्ति पर ब्रिटिश कब्जे से पीड़ित थे, ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। लगभग तीन सप्ताह तक, लगातार गोलीबारी और तपती धूप में, 1,000 ब्रिटिश नागरिक बचाव का इंतजार कर रहे थे।

25 जून 1857
- नाना साहब को पता चला कि ब्रिटिश राहत बल आ रहा है और उन्होंने गैरीसन को इलाहाबाद तक सुरक्षित मार्ग की पेशकश की। अंग्रेज प्रतीक्षारत नावों पर चढ़ गए और फिर उन पर गोलियाँ चलाई गईं। घात लगाकर हमला करने वाले जो भी लोग बच गए, उन्हें तुरंत मार दिया गया।
15 जुलाई 1857
- बचे हुए 120 महिलाओं और बच्चों को कैद कर लिया गया। जब यह खबर फैली कि अंग्रेज़ निकट आ गए हैं, तो उनकी हत्या कर दी गई और उनके शवों को एक कुएं में फेंक दिया गया।
16 जुलाई 1857
- मेजर जनरल सर हेनरी हैवलॉक की राहत टुकड़ी एक दिन बाद कानपुर पहुँची। दोषी और निर्दोष दोनों के खिलाफ़ अंधाधुंध प्रतिशोध करने के बाद, हैवलॉक उत्तर की ओर लखनऊ की ओर बढ़ा, लेकिन उसे वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ा।
नवंबर 1857
- जुलाई से नवंबर तक कानपुर पर कब्ज़ा रहा, जब लेफ्टिनेंट जनरल सर कॉलिन कैंपबेल ने अपनी सेना के ज़्यादातर जवानों को लखनऊ भेज दिया। उन्होंने ब्रिगेडियर चार्ल्स विंडहैम के नेतृत्व में एक छोटी टुकड़ी को पीछे छोड़ दिया।
26 नवंबर 1857
- नाना साहब के सेनापति तात्या टोपे ने शहर पर फिर से कब्ज़ा करने के लिए सेना इकट्ठी की थी। 26 नवंबर को विंडहैम ने तात्या के अग्रिम गार्ड को खदेड़ दिया, लेकिन उसे व्हीलर की पुरानी लाइन में वापस जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। कैम्पबेल फिर लखनऊ से लौटा और उसने पाया कि विंडहैम को घेर लिया गया है और कानपुर विद्रोहियों के हाथों में है।
6 दिसंबर 1857
- विंडहैम की शुरुआती बमबारी ने विद्रोहियों को धोखा दिया कि कैंपबेल उनके बाईं ओर हमला करने वाला था। उसका असली हमला दाईं ओर हुआ। कैंपबेल की भारी नौसैनिक तोपें निर्णायक कारक थीं। जैसे ही तांत्या की सेना टूट गई और भाग गई, नाना साहिब के लोग शहर के उत्तर में हार गए।



‘यह जगह सचमुच घुटनों तक खून से लथपथ थी, महिलाओं के सिर से फटे बाल फर्श पर बिखरे पड़े थे; बेचारे बच्चों के जूते इधर-उधर पड़े थे, इन बेचारे जीवों के गाउन, फ्रॉक और बोनट हर जगह बिखरे पड़े थे। लेकिन सबसे भयावह बात यह थी कि उन्हें मारने के बाद, और उनमें से कुछ को जिंदा भी, सभी को परिसर में एक गहरे कुएं में फेंक दिया गया था। मैंने नीचे देखा और उन्हें ढेर में पड़ा हुआ देखा। मुझे बहुत डर है कि इस सबसे जघन्य हत्या में मेरे कुछ दोस्त भी शामिल हैं।’मेजर जॉर्ज बिंगहैम कानपुर में – 1857
शैतान की हवा
- कानपुर हत्याकांड ने अंग्रेजों की भावनाओं को भड़का दिया। उन्होंने नए आए सैनिकों को याद दिलाने के लिए इस जगह को अछूता छोड़ दिया। इस अत्याचार और अन्य जगहों पर इसी तरह की अन्य घटनाओं की खबरों ने बदला लेने की इच्छा पैदा कर दी। अंग्रेजों की वापसी के शुरुआती महीनों में कुछ विद्रोही जीवित पकड़े गए। हजारों लोगों को अंधाधुंध तरीके से फांसी पर लटका दिया गया और कई निर्दोष नागरिकों को मार दिया गया।
- जब मुकदमे चलाए जाते थे, तो विद्रोह के दोषी लोगों को तोप से उड़ा दिया जाता था। यह धार्मिक आयाम वाली क्रूर सज़ा थी। शरीर को टुकड़े-टुकड़े करके उड़ा देने से पीड़ित व्यक्ति स्वर्ग में जाने की उम्मीद खो देता था। उत्तर भारत के लोग प्रतिशोध की लंबी अवधि को ‘शैतान की हवा’ कहते थे।


अवध की स्थिति
- जब विद्रोह की खबर अवध के मुख्य आयुक्त सर हेनरी लॉरेंस तक पहुंची, तो उन्होंने अपनी लखनऊ रेजीडेंसी को मजबूत किया, और घेराबंदी के लिए आपूर्ति का भंडार तैयार किया।
- लखनऊ अवध की राजधानी थी, जिसे एक साल पहले ही एक ऐसे कदम के तहत अपने साथ मिला लिया गया था जिससे काफी नाराजगी हुई थी। 30 मई 1857 को सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और इसके बाद शहर में दंगे भड़क उठे।

- सर्जन एंथनी डिक्सन होम और विलियम ब्रैडशॉ हैवलॉक के राहत स्तंभ के साथ वी.सी. जीतते हुए, 26 सितंबर 1857
30 जून 1857
- लॉरेंस के विद्रोहियों के खिलाफ़ चिनहुत में किए गए शुरुआती अभियान को हार का सामना करना पड़ा और उसके सैनिक अव्यवस्था में पीछे हट गए। विद्रोहियों ने अब रेजीडेंसी को घेर लिया। लॉरेंस के पास परिसर की रक्षा के लिए लगभग 1,600 सैनिक थे, जिनमें से आधे वफ़ादार सिपाही थे, और इतनी ही संख्या में नागरिकों की रक्षा करनी थी।
4 जुलाई 1857
- लॉरेंस की मृत्यु तब हुई जब उनके कमरे में एक गोला फटा। कमान 32वीं रेजिमेंट के कर्नल जॉन इंगलिस को सौंपी गई।
26 सितम्बर 1857
- मेजर जनरल सर हेनरी हैवलॉक के नेतृत्व में 2,500 सैनिकों का एक राहत दल कानपुर से निकला और लखनऊ में घुसने के लिए लड़ाई लड़ी, लेकिन भारी क्षति होने के कारण यह दल रक्षकों को निकालने में असमर्थ था।
16 नवंबर 1857
- सर कॉलिन कैंपबेल की 4,500 सैनिकों वाली राहत टुकड़ी पहुंची। उन्होंने सिकंदरा बाग पर हमला किया, जो एक दीवार से घिरा हुआ घेरा था, जो रेजीडेंसी के रास्ते को रोकता था। ब्रिटिश तोपखाने ने एक दरार खोली और पैदल सेना अंदर घुस गई। भीषण लड़ाई में उन्होंने करीब 2,500 विद्रोहियों को मार गिराया।
22 नवंबर 1857
- कैंपबेल आखिरकार रेजीडेंसी खाली करने में सफल हो गए। उन्होंने शहर के बाहर एक बड़े घेरे, अलुमबाग में सर जेम्स आउट्रम के नेतृत्व में एक छोटी सी सेना छोड़ दी, ताकि विद्रोहियों को आक्रामक अभियान चलाने से रोका जा सके।
1 मार्च 1858
- कैम्पबेल लखनऊ लौट आया और उसकी सुदृढ़ सेना आउट्रम के 4,000 सैनिकों में शामिल हो गयी।
5 मार्च 1858
- कैंपबेल ने लखनऊ पर हमला किया, एक स्थान से दूसरे स्थान पर आगे बढ़ते हुए, जब उनके इंजीनियरों ने गुमटी नदी पर पुल बना लिए थे। अगले कुछ दिनों में, उनके तोपची शहर की इमारतों में घुस गए, जबकि पैदल सेना भयंकर हाथापाई में लगी रही।
14 मार्च 1858
- अवध के नवाब के महल पर कब्ज़ा कर लिया गया और उसे लूट लिया गया, लेकिन उसके कई रक्षक लड़ने के लिए ग्रामीण इलाकों में भाग गए। दो दिन बाद रेजीडेंसी पर कब्ज़ा कर लिया गया और कैंपबेल ने आलमबाग और गुमटी के उत्तर में अपने ठिकानों पर जवाबी हमलों को विफल कर दिया।

सर हेनरी हैवलॉक इस दूरबीन को अपने साथ लेकर गए थे जब उनकी राहत सेना ने सितंबर 1857 में लखनऊ रेजीडेंसी में प्रवेश किया था।


93वें हाईलैंडर्स ने सिकंदरा बाग, लखनऊ पर धावा बोला, 16 नवंबर 1857
‘इंच-दर-इंच उन्हें वापस पवेलियन की ओर धकेला गया… जहाँ उन सभी को गोली मार दी गई या संगीन से घायल कर दिया गया। वहाँ वे मेरे सिर के बराबर ऊँचाई पर ढेर में पड़े थे, मृतकों और मरने वालों का एक भारी समूह जो एक दूसरे से अविभाज्य रूप से उलझा हुआ था। यह एक घिनौना दृश्य था, ऐसा दृश्य जो युद्ध के उत्साह और जीत की खुशी में भी, किसी को दृढ़ता से महसूस कराता है कि युद्ध का एक भयानक पक्ष भी है। घायल अपने मृत साथियों से दूर नहीं जा सकते थे, चाहे उनका संघर्ष कितना भी बड़ा क्यों न हो… और वे अपने क्रोध और दृढ़ संकल्प को हर उस ब्रिटिश अधिकारी पर उतारते थे जो उनके पास आता था, उसे सबसे भद्दे तरीके से गालियाँ देते हुए।’फील्ड मार्शल लॉर्ड रॉबर्ट्स सिकंदरा बाग पर हमले को याद करते हुए — 1897
मध्य भारत
- मध्य भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण का विरोध झांसी पर केंद्रित था, जहाँ रानी लक्ष्मी बाई ने अपने राज्य के विलय का विरोध किया था। जून 1857 में मध्य भारत में तैनात बंगाल आर्मी रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया। ग्वालियर टुकड़ी, जो ब्रिटिश समर्थक महाराजा सिंधिया की सेवा में थी, उनके साथ शामिल हो गई।
- 5 जून को झांसी किले में शरण लिए हुए ब्रिटिश अधिकारियों, नागरिकों और भारतीय नौकरों को रानी के आदमियों ने मार डाला। विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण करने पर अपनी जान बख्शने की पेशकश की थी और ऐसा माना जाता था कि रानी ने उनकी सुरक्षा की गारंटी दी थी।

मेन्स हॉर्स ग्वालियर में विद्रोहियों पर हमला करता हुआ, 1858
दिसंबर 1857
- मेजर जनरल सर ह्यू रोज़ की सेंट्रल इंडिया फील्ड फोर्स बम्बई से आगे बढ़ी।
5 फरवरी 1858
- रोज़ ने सागर को मुक्त कराया, जहां एक छोटी यूरोपीय सेना ने घेराव कर रखा था, और फिर झांसी की ओर बढ़े।
24 मार्च 1858
- एक सप्ताह बाद रोजा की सेना ने तांत्या टोपे की सहायता सेना को पराजित करने से पहले झांसी की घेराबंदी की।
3 अप्रैल 1858
- झांसी पर आक्रमण कर लूटपाट की गई। कम से कम 5,000 रक्षक मारे गए, लेकिन व्यक्तिगत रूप से जवाबी हमले का नेतृत्व करने के बाद रानी बच निकलीं।
मई 1858
- इसके बाद रोज़ ने कालपी पर आक्रमण किया और 1 मई को कुंच की लड़ाई जीत ली तथा 16 मई को कालपी पर भी विजय प्राप्त कर ली।
जून 1858
- विद्रोहियों ने अपनी बची हुई सेना को ग्वालियर में ले जाकर उसके ब्रिटिश समर्थक शासक को हराने की उम्मीद की। 1 जून को ग्वालियर के पूर्व में मोरार में, सिंधिया की सेना विद्रोहियों के साथ मिल गई।
17 जून 1858
- कालपी छोड़कर रोज़ ने भीषण गर्मी में ग्वालियर की ओर कूच किया। उन्होंने मोरार पर फिर से कब्ज़ा किया और फिर 17 जून को कोताह-के-सराय में विद्रोहियों को हराया। इस लड़ाई में रानी की मृत्यु हो गई।
19 जून 1858
- दो दिन बाद अंग्रेजों ने ग्वालियर पर फिर से कब्ज़ा कर लिया। ज़्यादातर विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया या छिप गए, लेकिन टंट्या अप्रैल 1859 तक अंग्रेजों को चकमा देने में कामयाब रहा, जब उसे धोखा दिया गया और फिर उसे फांसी पर लटका दिया गया।

ब्रिटिश अधीक्षक, कैप्टन अलेक्जेंडर स्कीन और उनकी पत्नी, झांसी के टॉवर में शरण लेते हुए, 1857

तांत्या टोपे के बालों का एक गुच्छा युक्त स्नफ़-बॉक्स, जिसे 1859 में उनकी फांसी के बाद हटा दिया गया था

1858 में एक हाथी ब्रिटिश फील्ड गन को खींचता हुआ
राजनीतिक परिवर्तन
- ग्वालियर में विद्रोहियों की हार ने विद्रोह को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया। अंग्रेजों ने आगे किसी भी अशांति को रोकने के लिए तुरंत कदम उठाए।
- कंपनी को समाप्त कर दिया गया और भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन को सौंप दिया गया। भारत के लिए एक सचिव नियुक्त किया गया और क्राउन का वायसराय सरकार का प्रमुख बन गया।
- बहादुर शाह पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और बर्मा में निर्वासन की सजा सुनाई गई। 1862 में उनकी मृत्यु हो गई, जिससे मुगल वंश का अंत हो गया। 1877 में उनकी जगह महारानी विक्टोरिया को भारत की महारानी का ताज पहनाया गया।
- अंग्रेजों ने सरकार में उच्च जाति के भारतीयों और शासकों को भी नियुक्त करना शुरू कर दिया। अधिक भारतीयों को सिविल सेवा में भर्ती किया गया। अंग्रेजों ने शासकों की ज़मीनें लेना भी बंद कर दिया और धर्म में भी हस्तक्षेप नहीं किया।

दिल्ली विधानसभा में वायसराय के दूतों द्वारा पहना गया कोट जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत की महारानी घोषित किया गया था
सैन्य सुधार
- ब्रिटिश शासन की रक्षा के लिए, ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों का अनुपात बढ़ाया गया। सेना को पुनर्गठित किया गया ताकि उसे प्रभावी ढंग से काम करने के लिए ब्रिटिश घटकों की आवश्यकता हो।
- भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में घटिया राइफलें दी गईं और उन्हें सीमित रसद सहायता दी गई। विद्रोह के परिणाम के लिए महत्वपूर्ण तोपखाने का नियंत्रण ब्रिटिश हाथों में रहा। प्रभावी रूप से सिपाही ब्रिटिश सैनिकों के सहायक बन गए।
- भर्ती में भी बदलाव आया, पंजाबी मुसलमानों, सिखों, गोरखाओं, बलूचियों और पठानों ने गंगा घाटी के उच्च जाति के हिंदुओं की जगह ले ली – जो अब विद्रोह में उनकी भूमिका के कारण अविश्वास के पात्र हैं। अधिक विविधतापूर्ण सेना के एकजुट होने और विद्रोह करने की संभावना कम होगी।

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