Share Market Concept

शेयर क्या है ?

जी बाजार (कैपिटल मार्केट) में निवेश करने के कई तरीके हैं, जैसे– शेयर, बांड्स, डिबेंचर, म्यूचुअल फंड या निवेश की अन्य प्रतिभूतियाँ (सिक्यूरिटीज) इत्यादि।

प्रत्येक प्रकार के निवेश की कुछ विशेषताएँ, लाभ तथा उद्देश्य व कारण होते हैं।

निवेश के इन विभिन्‍न तरीकों में शेयर द्वारा शेयर बाजार में किया गया निवेश सर्वाधिक लोकप्रिय व आम है । शेयर का हिंदी में अनुवाद करें तो इसका अर्थ होता है—बाँटना। वास्तव में यह प्रक्रिया बाँटने की ही है।

दरअसल शेयर किसी कंपनी में आंशिक भागीदारी (स्वामित्व) प्राप्त करने का तरीका है।

किसी कंपनी के शेयर खरीदने का तात्पर्य है कि व्यक्ति उस कंपनी का आंशिक हिस्सेदार बन रहा है। इस प्रकार के निवेश में कंपनी की हिस्सेदारी से जुड़े फायदे हैं तो कंपनी के व्यापार से जुड़े खतरे भी शामिल होते हैं ।

सरल भाषा में

शेयर (Share) को स्वामित्व की एक इकाई के रूप में संदर्भित किया जाता है जो कंपनी की पूंजी के बराबर अनुपात का प्रतिनिधित्व करता है। एक शेयर शेयरधारकों को कंपनी के लाभ और हानि पर एक समान दावे का हक देता है।

कंपनी के शेयर खरीदना तथा बेचना निवेश की गतिविधियाँ हैं।

वह निवेशक, जो किसी कंपनी का शेयर खरीद लेता है, तब वह उस कंपनी का ‘ शेयर होल्डर ‘ कहलाता है ।

दूसरे शब्दों में, शेयर की खरीदारी को ‘इक्विटी की खरीदारी ‘ भी कहा जाता है तथा शेयर होल्डर को इक्विटी होल्डर या इक्विटी शेयर होल्डर भी कहा जाता है ।

तो यदि आप शेयर की जगह ‘इक्विटी ‘ व स्क्रिप्स’ शब्द सुनें तो भ्रमित होने की जरूरत नहीं है; क्योंकि तीनों का अर्थ एक ही है शेयर को हमेशा कंपनी के साथ जोड़कर समझा जाना चाहिए।

शेयर मार्केट क्या है

शेयर बाजार वह होता है जहां शेयर की खरीद और बिक्री होती है।

शेयर उस कंपनी के स्वामित्व की एक इकाई का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ से आपने इसे खरीदा था।

उदाहरण के लिए, अगर आपने किसी कंपनी ABC का 10 शेयर 200 रुपये प्रत्येक शेयर खरीदा तो आप उस ABC कंपनी के शेयरधारक बन जाते हैं।

शेयरों में निवेश करने से आप अपने सपनों को पूरा कर सकते हैं जैसे उच्च शिक्षा, कार खरीदना, घर बनाना, आदि।

यदि आप कम उम्र में निवेश करना शुरू करते हैं और लंबे समय तक निवेशित रहते हैं, तो वापसी की दर अधिक होगी।

शेयर बाजार दो प्रकार के होते हैं:

 

    1. प्राथमिक शेयर बाजार ( Primary share market ) :
    2. प्राथमिक बाजार वह है जहां कंपनियां पहली बार जनता को नए स्टॉक और बॉन्ड बेचती हैं। एक कंपनी धन जुटाने के लिए प्राथमिक बाजार में प्रवेश करती है। कंपनी या सरकार आईपीओ की प्रक्रिया द्वारा प्राथमिक बाजार में शेयर जारी करके धन जुटाती है। प्राथमिक शेयर बाजार में मुद्दा सार्वजनिक या निजी प्लेसमेंट के माध्यम से हो सकता है। मुद्दा सार्वजनिक होता है जब शेयरों का आवंटन ((Allotment) ) 200 से अधिक व्यक्तियों को किया जाता है, मुद्दा निजी होता है जब आवंटन (Allotment) 200 से कम व्यक्तियों को किया जाता है। प्राथमिक शेयर बाजार में किसी शेयर की कीमत फिक्स्ड प्राइस या बुक बिल्डिंग इश्यू पर आधारित हो सकती है; जारीकर्ता द्वारा निश्चित मूल्य तय किया जाता है और प्रस्ताव दस्तावेज में उल्लिखित किया जाता है; बुक बिल्डिंग वह जगह है जहां निवेशकों की मांग के आधार पर किसी मुद्दे की कीमत का पता लगाया जाता है।



  1. द्वितीयक शेयर बाजार ( Secondary share market) :
  2. प्राथमिक बाजार में खरीदे गए शेयरों को द्वितीयक बाजार में बेचा जा सकता है। द्वितीयक बाजार काउंटर (OTC) और एक्सचेंज ट्रेडेड मार्केट के माध्यम से संचालित होता है। ओटीसी बाजार अनौपचारिक बाजार हैं, जिसमें दो पक्ष भविष्य में तय किए जाने वाले विशेष लेनदेन पर सहमत होते हैं । एक्सचेंज ट्रेडेड मार्केट अत्यधिक विनियमित होते हैं। इसके अलावा नीलामी बाजार के रूप में कहा जाता है जिसमें सभी लेनदेन विनिमय के माध्यम से होते हैं। इस तरह से हम कह सकते है कि द्वितीयक बाजार वह जगह है जहां निवेशक पहले से ही अपनी प्रतिभूतियों को खरीदते और बेचते हैं। यह आमतौर पर ज्यादातर लोग “स्टॉक मार्केट” के रूप में सोचते हैं, हालांकि स्टॉक को प्राथमिक बाजार पर भी बेचा जाता है जब वे पहली बार जारी किए जाते हैं।

 

शेयरों के लेन-देन की प्रक्रिया क्या है ?

शेयरों की खरीद-बिक्री दो तरीकों से की जाती है–वे कंपनियाँ, जो स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हैं, उनके शेयर स्टॉक एक्सचेंज में खरीदे या बेचे जाते हैं।

ब्रोकर के माध्यम से स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध शेयरों की खरीद तथा बिक्री कर सकता है।

 

दूसरे तरीके में निवेशक अन्य शेयर होल्डर से अथवा सीधे कंपनी से शेयरों को खरीद सकता है। जब कंपनी पहली बार अपने शेयर आम निवेशकों के समक्ष अस्तुत करती है और निवेशकों को शेयर खरीदने का मौका उपलब्ध कराती है तो उसे इनीशियल पब्लिक ऑफर ‘ कहते हैं ।

उसके बाद आने वाले सारे ऑफर पब्लिक ह्श्यू कहलाते हैं। निवेशकों को खरीदने के लिए प्रस्तुत किए जानेवाले शेयर या तो कंपनी द्वारा जारी किए गए नए शेयर हो सकते हैं या कंपनी अपने हिस्से के शेयरों का कुछ भाग पब्लिक के लिए प्रस्तुत कर सकती है।

इस प्रकार ‘शेयर’ कंपनी द्वारा आम निवेशक से पूँजी उगाहने का एक औजार है।

शेयर क्यों जारी किए जाते हैं ?

चूँकि कंपनी को अपने बिजनेस के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है और यह आवश्यकता चुनिंदा लोगों द्वारा पूरी नहीं की जा सकती।

अत: कंपनी अपना बिजनेस फैलाने तथा व्यापार चलाने के लिए कॉरपोरेट स्ट्रक्चर बनाकर, बड़ी संख्या में लोगों को शामिल कर उन्हें शेयर बेचती है तथा पूँजी हासिल करके अपने उद्देश्यों को पूरा करती है।

किसी सूचीबद्ध पब्लिक लिमिटेड कंपनी के शेयरों को खरीदना निवेशक के लिए अच्छा चुनाव साबित होता है; क्योंकि इसके सदस्यों की संख्या 50 से अधिक होती है तथा इसके शेयरों की बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है ।

निवेशक अपनी इच्छा व विवेक के अनुसार किसी कंपनी के शेयर खरीदकर अच्छी कीमत आने पर बाद में उन्हें बेच सकता है।

इस प्रकार वह लाभ कमा सकता है या निवेश के किसी भी विकल्प में यह धन लगा सकता है। जब तक निवेशक शेयर होल्ड करता है, तब तक वह शेयर पर दिए गए डिविडेंड का अधिकारी होता है। शेयरों से जुड़े खतरों में यह शामिल होता है कि यदि कोई कंपनी अपना व्यापार समेटती है तो शेयरधारकों को सबसे अंत में भुगतान किया जाता है।

नियमत: ऐसी अवस्था में कंपनी अपनी सारी देनदारियाँ चुकता करने के बाद बचे हुए धन को शेयरधारकों को बाँटती है, व्यावहारिक तौर पर अधिकांश मामलों में देनदारी चुकता करने के बाद कंपनी के पास कोई धन नहीं बचता तथा तब शेयरधारकों (शेयर होल्डर्स) को कंपनी से कुछ नहीं मिलता।

किसी शेयरधारक की कंपनी में सीमित जिम्मेदारी होती है—अर्थात्‌ उसके द्वारा खरीदे गए शेयरों कौ एवज में जो धन वह कंपनी को चुकाता है, उसके अतिरिक्त किसी भी स्थिति में कंपनी उससे अतिरिक्त धन की माँग नहीं कर सकती । इस प्रकार कंपनी बंद होने की स्थिति में इक्विटी शेयर होल्डर्स को सबसे ज्यादा नुकसान होता है, क्योंकि उसे पैसा वापस नहीं मिलता ।

दैनिक निवेश तथा दैनिक शेयर व्यवसाय में दूसरे तरह की जोखिम (रिस्क) रहती है।

प्राय: यह संभव है कि जब कोई व्यक्ति किसी दर (रेट) पर कंपनी के शेयर खरीदता है, फिर यदि शेयर बाजार में गिरावट आ जाए तो उसके शेयरों की कीमत घट जाती है।

इन दरों पर शेयर बेचने पर निवेशकों को नुकसान होता है।

इसके विपरीत, शेयरों की कीमत में वृद्धि होने पर शेयर बेचे जाएँ तो लाभ होता है।

शेयर कितने प्रकार के होते हैं ?

इक्विटी शेयर को आम भाषा में केवल ‘शेयर ‘ कहा जाता है। विभिन्न प्रकार के शेयरों की अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं । अत: इनके प्रकार को समझना आवश्यक है, ताकि निवेशक अपनी जरूरत तथा विवेक के अनुसार उनका चयन कर सके।

भारत में निवेशकों को दो प्रकार के शेयर विकल्प उपलब्ध हैं-

  1. इक्विटी शेयर (Equity Shares)
  2. प्रीफरेंस शेयर (Preference Shares)

इक्विटी शेयर (Equity Shares)

प्राइमरी तथा सेकंडरी मार्केट से निवेशक जो शेयर हासिल करता है, वह ‘ साधारण शेयर ‘ कहलाता है। इस प्रकार का शेयरधारक कंपनी का आंशिक हिस्सेदार होता है तथा कंपनी के नफे-नुकसान से जुड़ा रहता है । साधारण शेयरधारक ही इक्विटी शेयर होल्डर होते हैं । शेयरों की संख्या के अनुपात में कंपनी पर इनका मालिकाना अधिकार होता है। कंपनी की नीति बनानेवाली जनरल मीटिंग में इन्हें वोट देने का अधिकार होता है। इसी प्रकार, ये कंपनी से जुड़े रिस्क तथा नफा-नुकसान के हिस्सेदार भी होते हैं। यदि कंपनी अपना व्यवसाय पूर्ण रूप से समाप्त करती है, तब कंपनी अपनी सारी देनदारी चुकता करने के बाद बची हुई पूँजी संपत्ति को इन साधारण शेयरधारकों को उनकी शेयर संख्या के अनुपात से वितरित करती है।

प्रीफरेंस शेयर (Preference Shares)

साधारण शेयर के विपरीत कंपनी चुनिंदा निवेशकों, प्रोमोटरों तथा दोस्ताना निवेशकों को नीतिगत रूप से प्रिफरेंस शेयर (तरजीह आधार पर) जारी करती है। इन प्रिफरेंस शेयरों की कीमत साधारण शेयर की मौजूदा कीमत से अलग भी हो सकती है। साधारण शेयर के विपरीत प्रिफरेंस शेयरधारकों को वोट देने का अधिकार नहीं होता। प्रिफरेंस शेयरधारकों को प्रतिवर्ष निश्चित मात्रा में लाभांश (डिविडेंड) मिलता है। प्रिफरेंस शेयरधारक साधारण शेयरधारक की अपेक्षा अधिक सुरक्षित होते हैं, क्योंकि जब कभी कंपनी बंद करने की स्थिति आती है तो पूँजी चुकाने के मामले में प्रिफरेंस

शेयरधारकों को साधारण शेयरधारकों से अधिक तरजीह दी जाती है। कंपनी अपनी नीति के अनुसार प्रिफरेंस शेयरों को आंशिक अथवा पूर्ण रूप से साधारण शेयर में परिवर्तित भी कर सकती है। जब कोई कंपनी बहुत अच्छा बिजनेस कर रही है तो उसके साधारण शेयरधारक को ज्यादा फायदा होता है।

प्रिफरेंस शेयरधारक को लाभ में से सबसे पहले हिस्सा मिलता है; लेकिन इन्हें कंपनी का हिस्सेदार नहीं माना जाता है। लाभ के आधार पर प्रिफरेंस शेयर चार तरह के होते हैं-

    • नॉन क्यूमुलेटिव प्रिफरेंस शेयर ( असंचयी अधिमानित शेयर ) – यदि कंपनी किसी कारणवश पहले वर्ष लाभ नहीं कमाती है और इसकी जगह दूसरे वर्ष में लाभ कमाती है तो इस स्थिति में निवेशक दोनों वर्ष में लाभ प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकता है।

 

    • क्यूमुलेटिव प्रिफरेंस शेयर ( संचयी अधिमानित शेयर ) – यदि कंपनी किसी वजह से पहले वर्ष लाभ नहीं कमाती और दूसरे वर्ष में लाभ की स्थिति में आती है तो इस स्थिति में निवेशक दोनों वर्ष लाभ प्राप्त करने का दावा कर सकता है।

 

    • रिडीम्ड क्यूमुलेटिव प्रिफरेंस शेयर ( विमोचनशील अधिमानित शेयर ) – इस तरह के शेयरधारक को उसकी पूँजी निश्चित समय के बाद लाभांश (डिविडेंड) के साथ लौटा दी जाती है। इस प्रकार के शेयरधारक का कंपनी से जुड़ाव पूरी तरह अल्पकालिक होता है और कंपनी की इच्छा पर निर्भर करता है।

 

  • कन्वर्टिबल प्रिफरेंस शेयर ( परिवर्तनशील अधिमानित शेयर ) – इस प्रकार के शेयर निश्चित अवधि के पश्चात्‌ इसी कंपनी के किसी अन्य वित्तीय इंट्मेंट में बदल दिए जाते हैं।

शेयरों का संचालन कैसे होता ?

बैलेंस शीट में शेयर

विभिन प्रकार के शेयरों की चर्चा के साथ यह समझना आवश्यक है कि वास्तव में ये किस प्रकार संचालित ( ऑपरेट) होते हैं। यदि किसी कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट उठाकर देखें तो शेयर से जुड़े कई शब्द (टर्म) दिखाई देंगे। आइए, इन शब्दों को समझने की कोशिश करते हैं।

शेयर कैपिटल (Share Capital)

बैलेंस शीट में इक्विटी शेयर देनदारीवाले कॉलम में दर्ज होते हैं, क्योंकि यह राशि कंपनी पर शेयरधारकों को देनदारी है, नियमत: कंपनी बंद होने की स्थिति में यह राशि शेयरधारकों को चुकता को जानी चहिए। चूँकि यह राशि आय अथवा खर्च का हिस्सा नहीं है, अत: इसे हानि अथवा लाभ के खाते में नहीं दरशाया जाता, बल्कि देनदारी खाते में ‘शेयर कैपिटल ‘ के नाम से दर्ज किया जाता है।

ऑथराइज्ड शेयर कैपिटल (Authorized Share Capital)

बैलेंस शीट में शेयर से जुड़ा एक और नाम होता है—ऑथराइज्ड शेयर कैपिटल ( आधिकारिक शेयर पूँजी)। यह कंपनी की कुल पूँजी का वह अधिकतम हिस्सा है, जो कंपनी शेयर जारी करके अर्जित कर सकती है। इसकी सीमा पूरी होने पर कंपनी और अधिक शेयर जारी नहीं कर सकती, जब तक कि उसकी सीमा में वृद्धि नहीं की जाए। कंपनी के मेमोरेंडम में कंपनी के उद्देश्यों के साथ ही उस कंपनी की ऑथराइज्ड कैपिटल पहले से तय की गई होती है।

दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु है कि शेयर की फेस वेल्यू (मौलिक कीमत) कितनी है। शेयर की फेस वैल्यू 10 रुपए, 5 रुपए, 2 रुपए या रुपए हो सकती है। इसके बाद इश्यूड शेयर कैपिटल आता है, अर्थात्‌ बैलेंस शीट बनाते समय तक कंपनी कितने शेयर जारी कर चुकी है। ऑथराइज्ड शेयर कैपिटल तथा इश्यूड शेयर कैपिटल का अंतर यह दर्शाता है कि कंपनी मेमोरेंडम के तहत और कितने शेयर जारी कर सकती है। ज्यादातर मामलों में इश्यूड शेयर कैपिटल कम रखा जाता है, क्योंकि कंपनी एक बार में ही अपनी पूरी सीमा (ऑधथराइज्ड शेयर कैपिटल) को खत्म नहीं करना चाहती। इसलिए कुछ भाग ही उपयोग में लिया जाता है। कंपनी की बैलेंस शीट में इन आँकड़ों के अलावा पिछले वर्ष के आँकड़े भी कोष्ठक में रहते हैं। इससे यह अनुमान लगाने में आसानी रहती है कि गत एक वर्ष में कितना परिवर्तन आया।

सबस्क्राइब्ड कैपिटल (Subscribed Capital)

इश्यूड शेयर का वह भाग, जो निवेशक द्वारा लिया जाता है या सबस्क्राइब्ड किया जाता है, सबस्क्राइब्ड कैपिटल कहलाता है। जब इश्यू किए गए सभी शेयर निवेशकों द्वारा ले लिये जाते हैं, तब इश्यू व सबस्क्राइब्ड कैपिटल समान होंगे। इससे शेयरों की कुल संख्या का अनुमान होता है कि कितने शेयर इश्यू किए गए और निवेशकों ने कितने लिये। शेयर कैपिटल का अंतिम स्वरूप पैडअप शेयर कैपिटल होता है। अर्थात्‌ जारी किए गए शेयरों के तहत बैलेंस शीट बनाते समय तक कंपनी को कितनी शेयर कैपिटल मिल चुकी है।

 

बोनस व राइट शेयर (Bonus and Right Share)

बैलेंस शीट में कंपनी द्वारा जारी किए गए बोनस शेयरों कौ संख्या का उल्लेख होता है। इससे यह पता चलता है कि कंपनी के शेयर कैपिटल में कितना हिस्सा शेयर बेचकर अर्जित किया गया है तथा कितना हिस्सा निवेशकों को बोनस शेयर जारी करके शेयर कैपिटल में शामिल किया गया है। बोनस शेयर शेयरधारकों को मुफ्त में जारी किए जाते हैं।

बोनस शेयर क्‍यों जारी किए जाते हैं ?

दरअसल, बोनस शेयर का संबंध कैपिटलाइजेशन ऑफ रिजर्व से है।

इसलिए पहले हम कैपिटलाइजेशन ऑफ रिजर्व क्‍या है, इसे समझते हैं। दरअसल, जब कोई कंपनी अपने व्यवसाय के दौरान वित्तीय वर्ष में लाभ अर्जित करती है, तब कंपनी नियमित खर्चे निकालकर, देनदारियाँ निकालकर, लाभांश निकालकर बची हुई राशि भविष्य में विस्तार के लिए रिजर्व रखती है।

साल-दर-साल इस प्रकार कंपनी का अवितरित लाभ इकट्ठा होकर रिजर्व के रूप में कंपनी के पास रहता है। कंपनी अपनी नीतियों के अनुसार सरकारी कानूनों के तहत बोनस इश्यू जारी करके इस रिजर्व पूजी के कुछ भाग का कैपिटलाइजेशन (पूँजीकरण) करती है। इस प्रक्रिया में तत्कालौन शेयरधारकों को उनके शेयर के अनुपात में बोनस शेयर जारी किए जाते हैं।

इसे बोनस इश्यू कहते हैं। इस प्रक्रिया में कंपनी का रिजर्व फंड इक्विटी में परिवर्तित होता है। बस्तुतः यह मात्र एक बुक एंट्री है। बोनस शेयरों पर कोई कीमत नहीं बसूली जाती है तथा शेयरधारकों की संख्या भी अपरिवर्तित रहती है।

इस श्रकार शेयरधारकों का आनुपातिक स्वामित्व भी अपरिवर्तित रहता है। हाँ, यह हो सकता है कि बोनस शेयर जारी करने के पश्चात्‌ कंपनी के शेयरों की बाजार की कीमत में कुछ गिरावट आए, जो बोनस इश्यू के अनुपात में होती है। साधारणतया कंपनी प्रतिवर्ष अपने लाभांश (डिविडेंड) की दर बनाए रखती है। शेयरधारकों को बोनस इश्यू मिलने के बाद ज्यादा डिविडेंड मिलता है तथा कालांतर पें

बाजार में शेयरों की कीमत फिर अपना स्थान बना लेती है। इस प्रकार शेयरधारकों को काफी लाभ होता है।

शेयर मार्केट में प्रवेश कैसे करें ?

अब यदि अपने चारों ओर लोगों के मुँह से शेयर बाजार से पैसे को दो गुना-तीन गुना बनाने को कहानियाँ सुनकर आप भी शेयर बाजार में धन लगाना चाहते हैं तो ठहर जाइए; क्योंकि इस तरह आस-पास से जुटाई गई, पढ़ी गई सूचनाओं व दोस्तों के कहे अनुसार यदि आपने तुरंत अपना डी-मैट अकाउंट खुलवाकर शेयर खरीद लिये या आई.पी.ओ. में पैसे लगा बैठे तो हो सकता है कि आपको अपने लगाए हुए पैसे का एक-चौथाई ही वापस मिले और आप हताशा में अपने दैनिक काम-काज से भी हाथ धो बेैठें !

ऐसा कहकर न तो हम शेयर बाजार के प्रति आपके मोह को कम करना चाहते हैं और न ही उसे हौआ बनाकर आपको डरा रहे हैं ।

मुख्य बात यह है कि हर वह निवेशक (इनवेस्टर), जो शेयर बाजार में निवेश कर भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था में भागीदार होना चाहता है, वह पूरी तरह जागरूक हो।

उसे न सिर्फ शेयर मार्केट से पैसे को दोगुना कैसे किया जाता है, इसका तकनीकी व आधारभूत ज्ञान हो, अपितु वह शेयर बाजार के जोखिम से भी पूरी तरह अवगत हो; क्योंकि आज का भारतीय बाजार अब सट्टा बाजार नहीं है। यहाँ सभी चीजें वैज्ञानिक तरीकों से पूरी होती हैं, भले ही वह प्राथमिक बाजार हो या द्वितीयक बाजार।

कंपनी के प्राइमरी मार्केट के द्वारा पैसे उगाहने से लेकर सूचीबद्ध होने के बाद शेयरों को सेकंडरी मार्केट में खरीद-बिक्री की पूरी प्रक्रिया स्टॉक एक्सचेंज के नियम व कानून के तहत संचालित होती है। सरकारी एजेंसी ‘सिक्‍यूरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ‘ (सेबी) को निगरानी में सभी एक्सचेंज कार्य करते हैं। इसलिए यदि आप शेयर बाजार की कार्य- प्रणाली को पूरी तरह समझकर अपना पैसा लगाएँगे तो यह तय है कि आप पैसा गँवाएँ तो नहीं। यदि इस ज्ञान के साथ आप अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल करेंगे तो शेयर बाजार से कमाना भी मुश्किल नहीं होगा।

तो यदि आप मन बना चुके हैं कि आपको शेयर बाजार में निवेश करना है तो सबसे पहले आपको अपना डी-मैट अकाउंट खुलवाना होगा; क्योंकि अब बिना डी-मैट अकाउंट के आप शेयरों का लेन-देन नहीं कर सकते हैं। पहले फिजिकल शेयर स्टॉक सर्टिफिकेट के रूप में निवेशकों के पास होते थे; लेकिन अब न सिर्फ शेयरों का लेन-देन डी -मैट शेयर के रूप में हो गया है, बल्कि जिन निवेशकों के पास पुराने शेयर सर्टिफिकेट के रूप में पड़े हैं, उन्हें भी सेबी ने निर्देश दिया है कि वे जल्द-से-जल्द इन शैयरों को डीमैटिरियलाइज्ड फॉर्म में बदल लें।

वे लोग, जो शेयर बाजार में प्रवेश करना चाहते हैं, और वे जिनके पास पुराने शेयर सर्टिफिकेट फिजीकल फॉर्म में पड़े हैं, दोनों ही तरह के निवेशकों के लिए सबसे पहले डी-मैट अकाउंट खुलवाना अति-महत्त्वपूर्ण कार्य है।

प्राथमिक बाजार (प्राइमरी मार्केट) क्‍या है ?

प्राथमिक बाजार में, पहली बार निवेशकों को खरीदने के लिए प्रतिभूतियां बनाई जाती हैं। इस बाजार में स्टॉक एक्सचेंज के माध्यम से नई प्रतिभूतियां जारी की जाती हैं, जिससे सरकार के साथ-साथ कंपनियों को भी पूंजी जुटाने में मदद मिलती है।

जब कोई कंपनी अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए नए शेयर या डिबेंचर जारी करके सीधे निवेशकों से धन की उगाही करती है तो ऐसा वह कंपनी प्राथमिक बाजार के तहत करती है । कंपनी नए इनीशियल पब्लिक ऑफर प्राथमिक बाजार में लाकर नए शेयर/डिबेंचर जारी करती है।

दूसरे शब्दों में कहें तो प्राइमरी मार्केट वह जगह है, जहाँ सिक्‍युरिटीज ( प्रतिभूतियों ) को अस्तित्व में लाया जाता है ( जैसे आई.पी. ओ. के द्वारा) | प्राथमिक बाजार के विपरीत द्वितीयक बाजार (सेकंडरी मार्केट) में विभिन्‍न कंपनियों द्वारा पहले से जारी किए गए शेयर/डिबेंचर या अन्य सिक्यूरिटीज का लेन-देन होता है।

इस तरह साधारण शब्दों में हम ऐसे भी कह सकते है की प्राथमिक बाजार (Primary Market) में, कंपनियां पहली बार लोगों को नए स्टॉक और बॉन्ड बेचती हैं।

प्राथमिक बाजार के कार्य (Functions of Primary Market)

प्राथमिक बाजार के कार्य कई गुना हैं जिसमें से कुछ प्रमुख कार्य निम्नलिखित है :-

    • नया मुद्दा प्रस्ताव (New Issue Offer)
    • हामीदारी सेवाएं (Underwriting services)
    • नए अंक का वितरण (Distribution Of New Issue)
    • जनता का मुद्दा (Public issue)
    • निजी कार्य नियुक्ति (Private Placement)
    • अधिमान्य मुद्दा (Preferential Issue)
    • योग्य संस्थागत नियुक्ति (Qualified Institutional Placement)
    • अधिकार और बोनस मुद्दे (Rights and Bonus Issues)

प्राथमिक बाजार के लाभ (Advantages of Primary Market)

      • कंपनियां अपेक्षाकृत कम लागत पर पूंजी जुटा सकती हैं, और प्राथमिक बाजार में जारी की गई प्रतिभूतियां उच्च तरलता प्रदान करती हैं क्योंकि समान को लगभग तुरंत द्वितीयक बाजार में बेचा जा सकता है।

 

      • किसी अर्थव्यवस्था में बचत जुटाने के लिए प्राथमिक बाजार एक महत्वपूर्ण स्रोत है। अन्य चैनलों में निवेश के लिए आम लोगों से धन जुटाया जाता है। यह मौद्रिक संसाधनों को निवेश विकल्पों में डाल देता है।

 

      • द्वितीयक बाजार की तुलना में प्राथमिक बाजार में मूल्य में हेरफेर की संभावना काफी कम है। इस तरह की हेरफेर आमतौर पर एक सुरक्षा मूल्य की अवहेलना या भड़काने से होती है, जिससे बाजार के निष्पक्ष और मुक्त संचालन में जानबूझकर हस्तक्षेप होता है।

 

      • प्राथमिक बाजार जोखिम में कटौती के लिए विविधीकरण के लिए एक संभावित अवसर के रूप में कार्य करता है। यह एक निवेशक को कई वित्तीय साधनों और उद्योगों को मिलाकर विभिन्न श्रेणियों में उसके निवेश को आवंटित करने में सक्षम बनाता है

 

    • यह किसी भी बाजार में उतार-चढ़ाव के अधीन नहीं है। शेयरों की कीमतें एक प्रारंभिक सार्वजनिक पेशकश से पहले निर्धारित की जाती हैं, और निवेशकों को पता है कि उन्हें वास्तविक राशि का निवेश करना होगा।

पूंजी (Capital) का क्या अर्थ है ?

किसी भी कंपनी को अपना व्यवसाय चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है और यह धन उस कंपनी की ‘कैपिटल’ कहलाता है।

सरल शब्द में, पूंजी का मतलब उस राशि या संपत्ति से होता है जो व्यवसाय में व्यवसायी या व्यवसाय के मालिक द्वारा निवेशित होती है।

कंपनी इसे दो प्रकार से हासिल करती है – शेयर जारी करके तथा उधार लेकर।

तो इस प्रकार पूंजी (Capital) में मालिकों द्वारा व्यवसाय में पेश की गई नकदी या अन्य संपत्ति शामिल हो सकती है।

पूंजी किसी विशेष व्यवसाय या परियोजना का समर्थन करने के लिए उठाए गए धन का उल्लेख कर सकती है।

धन की वह अधिकतम मात्रा जो कंपनी नियमानुसार शेयर जारी करके हासिल कर सकती है, कंपनी की ऑथराइज्ड कैपिटल (अधिकृत पूँजी) कहलाती है।

इस ऑधराइज्ड कैपिटल में से कंपनी शेयर जारी करके जो पूँजी हासिल करती है, वह उस कंपनी की शेयर कैपिटल कहलाती है। कंपनी यह शेयर कैपिटल एक ही बार या विभिन्‍न चरणों में प्राथमिक बाजार में उतरकर, शेयर जारी करके हासिल कर सकती है।

किसी भी समय पर, उस समय तक कंपनी द्वारा शेयर जारी करके हासिल की गई पूँजी को ‘पैडअप कैपिटल ‘ कहा जाता है।

ऑधथराइज्ड कैपिटल का वह हिस्सा, जिसे कंपनी शेयर के द्वारा धन लेकर हासिल कर चुकी है, कंपनी का इश्यूड कैपिटल कहलाता है।

कई बार जब कंपनी नए शेयर जारी करती है तो शेयरधारकों के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि बे शेयरों की पूरी पूँजी एक साथ चुकाएँ।

इसमें शेयरों की कुल पूँजी का कुछ हिस्सा भविष्य की आवश्यकताओं के लिए कंपनी बाद में लेती है।

इस प्रकार, नए जारी शेयरों की कुल पूँजी का वह हिस्सा, जो कंपनी अभी आंशिक रूप से इकट्ठा कर रही है, कॉल्ड-अप कैपिटल कहलाता है।

पैड अप कैपिटल क्या है ?

किसी कंपनी की कुल पूँजी (टोटल कैपिटल) कई चीजों से मिलकर बनती है, जैसे कि प्रमोटरों द्वारा निवेश की गई पूँजी, लोन के द्वारा अर्जित की गई पूँजी तथा शेयर जारी करके अर्जित की गई पूँजी इत्यादि । इसमें कंपनी द्वारा शेयर जारी करके अर्जित की गई पूँजी को ‘पैडअप कैपिटल ‘ कहा जाता है।

पेड-अप कैपिटल तब बनाया जाता है जब कोई कंपनी अपने शेयर सीधे प्राइमरी मार्केट में निवेशकों को बेचती है, आमतौर पर शुरुआती पब्लिक ऑफरिंग (आईपीओ) के जरिए।

इस सरल शब्दों में हम ऐसे भी कह सकते है कि पेड-अप कैपिटल (Paid-Up Capital) वह पैसा है जो एक कंपनी को निवेशकों को सीधे स्टॉक बेचने से प्राप्त होता है।

पेड-अप कैपिटल उस पैसे का प्रतिनिधित्व करता है जो उधार नहीं है।

कैपिटल इश्यू किसे कहते हैं ?

जब कभी कंपनी पूँजी उगाहने के लिए शेयर जारी करती है तो उसे “कैपिटल इश्यू’ (Capital issue) कहते हैं। यह कैपिटल इश्यू नए इश्यू, प्रीमियम इश्यू या राइट इश्यू के रूप में हो सकता है।

कैपिटल ड्श्यू एक अधिकृत पूंजी के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे कंपनी शेयरों के माध्यम से बेचने के लिए अधिकृत है।

यदि किसी फर्म के पास 50,00,000 रुपये की अधिकृत पूंजी है, जहां प्रत्येक शेयर की कीमत 10 रुपये है। यदि किसी कंपनी को 10,00,000 शेयरों के लिए एक आवेदन प्राप्त होता है, लेकिन इसके बजाय कंपनी ने प्रत्येक 10,00,000 शेयरों के 8,00,000 शेयर जारी किए। तब जारी की गई पूंजी (Issued Capital ) 80,00,000 (8,00,000 x 10) होगी।

प्रीमियम इश्यू (Premium Issue ) क्‍या है ?

जब कंपनी नए शेयरों की कीमत फेस वैल्यू से ऊपर रखकर जारी करती है तो ऐसे इश्यू को “प्रीमियम इश्यू’ कहते हैं । शेयर की फेस वैल्यू से ऊपर रखी गई कीमत उस शेयर पर प्रीमियम कहलाती है।

जैसे यदि कोई कंपनी प्राथमिक बाजार में नया पब्लिक इश्यू लाती है तथा उसका प्राइस बैंड 75 से 85 रुपए रखती है, जबकि प्रति शेयर फेस वैल्यू 10 रुपए है। इस प्रकार, इस इश्यू में प्रति शेयर प्रीमियम 65 से 75 रुपए है।

इस इश्यू में प्रति शेयर प्रीमियम का निर्धारण कई कारकों से किया जाता है, जैसे कि तत्कालीन शेयरों की बुक वैल्यू क्‍या है, प्रति शेयर लाभ कितना है, (ई.पी.एस.—‘ अर्निंग पर शेयर”) तथा गत तीन वर्षों में शेयर की औसत बाजार कीमत कितनी है इत्यादि।

ओवर सबस्क्राइब्ड इश्यू किसे कहते हैं ?

कोई भी पब्लिक इश्यू निर्धारित शेयर मात्रा के लिए जारी किया जाता है । जब इस इश्यू के लिए मिलनेवाले आवेदन-पत्र कंपनी द्वारा जारी निर्धारित शेयर मात्रा से अधिक संख्या में प्राप्त होते हैं तो उसे “ओवर सबस्क्राइब्ड इश्यू’ (Over Subscribed Issue) कहा जाता है।

ऐसी स्थिति में कंपनी एक नीति बनाकर लॉटरी सिस्टम द्वारा आवेदकों को शेयर आवंटित करती है। जब शेयर बाजार अच्छे दौर (बुलफेज) में होता है, उस समय अच्छी व नामी कंपनियों के पब्लिक इश्यू ओवर सब्स्क्राइब्ड होते हैं। ऐसे में जो निवेशक अधिक शेयर संख्या के लिए आबेदन करते हैं, उसकी शेयर प्राप्त करने की संभावनाएँ ज्यादा होती हैं।

ऐट पार व अबोव पार क्‍या है ?

जब किसी शेयर की कीमत उसकी फेस वैल्यू के बराबर हो, तब यह शेयर ‘ऐट पार’ (At Par) कहलाता है। ऐसी अवस्था में शेयर पर प्रीमियम शून्य होता है तथा शेयर की पार वैल्यू ही शेयर की फेस वैल्यू होती है। उदाहरण के लिए यदि शेयर की फेस वैल्यू 10 रुपए या 100 रुपए है तो यह इनकी बिक्री की 10 रुपए या 100 रुपए पर की जाएगी।

जब शेयर की कीमत उसकी फेस वैल्यू से ज्यादा होती है, अर्थात्‌ उस शेयर पर प्रीमियम होता है, ऐसी अवस्था को ‘ अबोव पार’ (Above Par) कहते हैं।

शेयर होल्डर किसे कहते हैं ?

कोई भी व्यक्ति या संस्था, जिसका साधारण शेयर या प्रिफरेंस शेयर पर मालिकाना अधिकार होता है, वह ‘शेयर होल्डर’ कहलाता है। शेयरों के मालिकाना सबूत के तौर पर शेयर सर्टिफिकेट्स जारी किए जाते हैं, जो आजकल इलेक्ट्रॉनिक रूप में होते हैं।

साधारण तरीके में हम सकते है कि एक शेयरधारक एक व्यक्ति, कंपनी या संगठन हो सकता है जो किसी कंपनी में स्टॉक (शेयर) रखता है। शेयरधारक(Shareholders) आमतौर पर घोषित लाभांश प्राप्त करते हैं यदि कंपनी अच्छा करती है और सफल होती है।

शेयर होल्डर को स्टॉकहोल्डर भी कहा जाता है, उनके पास कंपनी के संबंध में कुछ मामलों पर वोट देने और निर्देशक मंडल में एक सीट पर चुने जाने का अधिकार है।

एक शेयर होल्डर की भूमिका :-

    • उन शक्तियों पर विचार-मंथन और निर्णय करना जो वे कंपनी के निदेशकों पर लागू करेंगे, जिसमें उन्हें नियुक्त करना और उन्हें पद से हटाना शामिल है।

 

  • कंपनी के वित्तीय विवरणों की जाँच करना और अनुमोदन करना।

शेयर होल्डर की इक्विटी क्‍या है?

कंपनी में किसी भी समय उसकी कुल पाँजी में से कंपनी की सारी देनदारियाँ निकालने के पश्चात्‌ बचा हुआ भाग ‘ शेयर होल्डर्स की इक्विटी ‘ कहलाता है। यह भाग उस कंपनी का ‘नेट वर्थ’ होता है। इस नेट वर्थ में कंपनी द्वारा जारी किए गए कुल शेयरों की फेस वैल्यू, अतिरिक्त धन, कैपिटल सरप्लस तथा अवितरित डिविडेंड शामिल होते हैं ।

विभिन्न प्रकार के शेयर का इश्यू क्या है ?

प्राथमिक बाजार में चार तरह के इश्यू से निवेशक रुबरु होता है :-

    1. आई.पी.ओ. ( Initial Public Offer )

      जब गैर-सूचीबद्ध कंपनी (अनलिस्टेड कंपनी) नए शेयर जारी करने के लिए पूँजी बाजार में प्रस्ताव लेकर आती है या ऐसी कंपनी, जो अपनी सिक्यूरिटीज (शेयर्स)

      पहली बार आम जनता के लिए बाजार में प्रस्तुत करती है तौ इस प्रकार के प्रस्ताव को ‘इनीशियल पब्लिक ऑफर ‘ (आई.पी.ओ,. ) कहते हैं। आई.पी. ओ. की प्रक्रिया पूरी होने के बाद यह कंपनी सेबी द्वारा शेयर मार्केट में सूचीबद्ध कर दी जाती है | कंपनी आई.पी. ओ. दो तरीके से जारी कर सकती है—बुक बिल्डिंग रूट तथा फिक्स्ड प्राइस रूट

      • बुक बिल्डिंग रूट में कंपनी अपने नए शेयरों के लिए एक प्राइस बैंड तय करती है। निवेशक अपनी इच्छा के अनुसार उस प्राइस बैंड की सीमा मेँ आवेदन करते हैं । इस प्राइस बैंड की ऊपरी और निचली कीमत में अधिकतम अंतर 20 प्रतिशत तक हो सकता है। बुक बिल्डिंग प्रोसेस पूरा होने के पश्चात्‌ शेयर की प्राइस तय की जाती है।
      • फिक्स्ड प्राइस रूट में कंपनी अपने शेयर कीं एक निश्चित कीमत प्रस्तुत करती है (फेस वैल्यू पर प्रीमियम लगाकर ) । इसमें निवेशक को पहले से शेयर की कीमत पता होती है । सरल शब्दों में कहें, तों किसी कंपनी द्वारा पूँजी उगाही के लिए प्राथमिक बाजार (प्राइमरी मार्केट) में आम जनता के लिए जो प्रारंभिक प्रस्ताव लाया जाता है, उसे ‘इनीशियल पब्लिक ऑफर! कहते हैं। इसमें संस्थागत निवेशक व रिटेल निवेशक दोनों आवेदन कर सकते हैं।
    2. पब्लिक इश्यू (Public issue )

जब कोई पहले से सूचीबद्ध कंपनी प्राथमिक बाजार में शेयरों के नए इश्यू लाना चाहती है या अपने होल्डिंग्स (स्वामित्व) का कुछ भाग पब्लिक के लिए प्रस्तुत करना चाहती है तो उसे “पब्लिक इश्यू” कहते हैं। पब्लिक इश्यू की कार्य-शैली इनीशियल पब्लिक ऑफर (आई.पी.ओ. ) की तरह होती है।

    1. राइट इश्यू (Right issue)

साधारणतया जब कोई सूचीबद्ध कंपनी (लिस्टेड कंपनी ) अपने नए इश्यू जारी करती है तो वह कंपनी अपने शेयर होल्डरों को प्राथमिकता देते हुए राइट इश्यू जारी करती है। इस राइट इश्यू के तहत कंपनी अपने शेयर होल्डरों को उनकी शेयर संख्या के अनुपात में नए शेयर खरीदने के लिए प्रस्ताव रखती है। शेयर होल्डर अपनी इच्छा के अनुसार इस प्रस्ताव. को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकते हैं, या कंपनी के इस प्रस्ताव के लिए किसी अन्य शेयर होल्डर को अधिकृत भी कर सकते हैं | राइट इश्यू के दौरान कंपनी के शेयरों की बाजार कीमतों में परिवर्तन आता है। राइट इश्यू जारी होने से पहले की कीमत शेयर की “कम राइट प्राइस” कहलाती है तथा राइट इश्यू के तहत शेयर आवंटित होने के पश्चात्‌ शेयरों की बाजार कीमत ‘ एक्स राइट प्राइस! कहलाती है।’कम राइट प्राइस” तथा ‘एक्स राइट प्राइस’ का अंतर राइट इश्यू का शेयर बाजार द्वारा किया गया आकलन दरशाता है।


कम राइट – 

    1. जब कंपनी राइट इश्यू लाए जाने की घोषणा करती है, तब उस कंपनी के शेयर “कम राइट ‘ शेयर बन जाते हैं। कंपनी एक निश्चित तारीख की घोषणा करती है। इस तारीख से पूर्व के शेयरधारकों को राइट इश्यू का अधिकार होता है। स्वाभाविक है कि “कम राइट ‘ शेयर की कीमतें थोड़ी अधिक होती हैं।


एक्स राइट – 

    1. कंपनी द्वारा राइट इश्यू जारी करने के पश्चात्‌ शेयर की कीमत से राइट का अंश निकल जाता है और उस समय बाजार में शेयर की स्थिति ‘ एक्स राइट! कहलाती है।



    1. प्रीफरेंशियल इश्यू (Preferential issue)

जब कोई सूचीबद्ध कंपनी चुनिंदा निवेशकों के लिए इक्विटी का इश्यू जारी करती है, जिसमें इक्विटी (शेयर) की तय की गई कीमत का तात्कालिक बाजार मूल्य से कोई संबंध नहीं होता। इस प्रकार के इश्यू को “प्रीफरेंशियल इश्यू’ कहते हैं।

शेयरों का आवंटन ( Allotment of Shares) क्या है ?

प्राथमिक बाजार में कंपनी द्वारा पब्लिक इश्यू या आई.पी.ओ. लाए जाने पर प्रोस्पेक्ट्स तथा शेयर एप्लीकेशन फॉर्म जारी किए जाते हैं।

आवेदन करने के लिए निवेशक (संस्थागत व आम निवेशक) शेयर एप्लीकेशन फॉर्म जमा करते हैं।

यदि शेयरों की आवेदित संख्या कंपनी द्वारा प्रस्तुत शेयरों की संख्या के बराबर है अथवा उससे कम है, तब इस अवस्था में प्रत्येक निवेशक को उसके द्वारा आवेदित किए गए शेयर आवंटित कर दिए जाते हैं।

यदि आवेदित शेयरों की संख्या कंपनी द्वारा प्रस्तुत शेयरों की संख्या से ज्यादा है, तब शेयरों का आवंटन स्टॉक एक्सचेंज से विमर्श करके किया जाता है। यदि आवेदनों की संख्या कंपनी द्वारा प्रस्तुत शेयरों की संख्या से कई गुना ज्यादा हो तो ऐसी स्थिति में शेयरों का आवंटन लॉटरी सिस्टम से किया जाता है।

आवेदन शुल्क (Application Fee) क्या है ?

नए इश्यू में आवेदन करते समय निवेशक को जो पैसा या धन देना पड़ता है, वह “आवेदन शुल्क’ कहलाता है। यह धन आवेदित किए गए शेयरों का पूरा मूल्य अथवा आंशिक मूल्य हो सकता है। आंशिक मूल्य होने की स्थिति में शेयरों के आवंटन के समय बकाया राशि चुकानी पड़ती है।

शेयर वारंट क्या है ?

शेयर वारंट एक ऐसा विकल्प है, जिसके तहत कोई कंपनी निश्चित संख्या के शेयर निश्चित दर पर, निश्चित समय अवधि में खरीदे जाने के लिए निवेशकों के सामने प्रस्तुत करती है।

ऐसे वारंट कंपनी के द्वारा धन उगाही के विकल्प के तौर पर उपयोग में लाए जाते हैं। इसमें निवेशक को यह अंतर्निहित सुविधा होती है कि निर्धारित अवधि में

वह धन चुकाकर शेयर हासिल कर ले या ऐसे वारंट सेकंडरी मार्केट में अन्य निवेशक को बेच दे।

फेस वैल्यू क्या है ?

किसी भी सिक्‍यूरिटी (शेयर, बांड, डिबेंचर आदि) को जारी करने से पहले उसका साधारण मूल्य जारी करनेवाली कंपनी या संस्था द्वारा तय किया जाता है।

इसे उस सिक्यूरिटी की ‘फेस वैल्यू’ कहते हैं । उदाहरण के तौर पर, शेयर 0 रुपए अथवा 5 रुपए की फेस वैल्यू में जारी किए जाते हैं। हालाँकि इस फेस बैल्यू का शेयर के बाजार में कीमत से कोई संबंध नहीं होता है, जबकि डेब्ट (Debt) सिक्‍यूरिटी (Security) में फेस वैल्यू उस सिक्‍यूरिटी का परिपक्वता मूल्य होता है। जैसे सरकार हजार रुपए का बांड जारी करती है–अर्थात्‌ परिपक्वता अवधि पर सरकार उस बांड यूनिट पर एक हजार रुपए चुकाने का आश्वासन देती है| बाजार की भाषा में फेस वैल्यू को ‘पार वैल्यू! या ‘पार’ भी कहा जाता है।

इश्यू प्राइस

वह कीमत ( प्राइस ), जिस पर कंपनी के शेयर प्राथमिक बाजार ( प्राइमरी मार्केट ) में जारी किए जाते हैं, वह शेयर की “इश्यू प्राइस! कहलाती है। शेयर के सूचीबद्ध होने के बाद जिस कीमत पर शेयर का लेन-देन (ट्रेडिंग ) होता है, वह उस शेयर की ‘मार्केट प्राइस’ (बाजार कीमत) कहलाती है। यह मार्केट प्राइस इश्यू प्राइस से ज्यादा या कम, . कुछ भी हो सकती है।

दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि इश्यू प्राइस (Issue Price) शेयरों का वह मूल्य है जिस पर उन्हें बिक्री के लिए पेश किया जाता है जब वे पहली बार जनता के लिए उपलब्ध हो जाते हैं।

कंपनियाँ द्वारा पब्लिक के लिए शेयर जारी (इश्यू) करने का क्या कारण है ?

अधिकतर कंपनियाँ निजी व्यवयाय के तौर पर प्रमोटर्स द्वारा स्थापित की जाती हैं। व्यवसाय के दौरान कंपनी अपने विस्तार के लिए बैंक तथा दूसरे वित्तीय संस्थानों से ऋण लेती है परंतु लंबे व्यवसाय के लिए तथा एक निश्चित आर्थिक आकार के पश्चात्‌ के इन कंपनियों को आगे के विकास के लिए अधिक धन की जरूरत पड़ती है और सरकारी नियमों के तहत इसमें आम जनता की भागीदारी की जरूरत होती है। इस अवस्था में ये कंपनियाँ अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए तथा उसमें आम जनता की भागीदारी के लिए प्राथमिक बाजार में सेबी के नियमों के तहत पब्लिक इश्यू लाती हैं। पब्लिक इश्यू के तहत निवेशकों को शेयर आवंटित होने के पश्चात्‌ ये कंपनियाँ शेयर बाजार में ट्रेडिंग के लिए सूचीबद्ध (लिस्टेड) हो जाती हैं।

कट ऑफ प्राइस (प्राइस बैंड) क्या है ?

बुक – बिल्डिंग इश्यू में शेयर जारी करनेवाली कंपनी को अपने प्रोस्पेक्टस में फ्लोर प्राइस अथवा प्राइस बैंड को उल्लेखित करना जरूरी होता है। अंत में जिस कीमत का निर्धारण किया जाता है, वह इश्यू प्राइस, प्राइस बैंड में निर्धारित सीमा के बीच कुछ भी हो सकती है या वह कीमत फ्लोर प्राइस से भी ज्यादा हो सकती है। इस इश्यू प्राइस को ‘कट ऑफ प्राइस’ भी कहते हैं। इस इश्यू प्राइस का निर्धारण शेयर जारी करनेवाले और लीड मैनेजर्स द्वारा निवेशकों के उस शेयर के प्रति रुख को देखकर किया जाता है।

फ्लोर प्राइस क्या है ?

बुक बिल्डिंग प्रक्रिया में फ्लोर प्राइस वह न्यूनतम कीमत है, जिस पर दावेदारी बिड (Bid) की जा सकती है। प्रोस्पेक्टस में या तो सिक्यूरिटीज की फ्लोर प्राइस का उल्लेख होता है या फिर प्राइस बैंड का, जिस पर निवेशक बिड कर सकें।

आओवरवैल्यूड शेयर्स (बहुत अधिक दाम लगाया छुआ शेयर) क्या है ?

सामान्य अवस्था में किसी शेयर की बाजार कीमत उसके प्रति शेयर अर्निंग या प्राइस अर्निंग (P/E) अनुपात (कीमत/लाभ या प्राइस/अर्निंग रेशियो) से तय होती है। लेकिन शेयर बाजार में सदैव अनुमान के आधार पर खरीद-फरोख्त होती है, इसलिए अधिकतर उन कंपनियों के शेयर अपनी तार्किक कीमत से ऊँचे आँके जाते हैं, जिन कंपनियों की छवि निवेशकों में अच्छी होती है| ऐसे शेयर ‘ ओवरवैल्यूड शेयर्स ‘ कहलाते हैं । शेयर सूचकांक (इंडेक्स) को झटका लगने पर सबसे पहले ऐसे शेयरों की ओवरबैल्यू गायब होती है तथा ये अपनी तार्किक कीमत के आस-पास पहुँच जाते हैं। शेयर बाजार में उतार (करेक्शन) आने पर प्राय: ऐसा देखा जाता है; और यही सही समय है जब निवेशक कम कीमत पर ब्लूचिप कंपनियों (अच्छी साख वाली कंपनियों) के शेयर खरीद सकता है।

लीड मर्चेट बैंकर क्या है और इसकी भूमिका क्या है ?

ये किसी भी कंपनी द्वारा पब्लिक इश्यू या आई.पी.ओ. लाए जाने की सारी कार्यवाही में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये किसी इश्यू की सारी तकनीकी जानकारी, उसकी वैधता तथा संभावना का गहन अध्ययन करते हैं। पब्लिक इश्यू लानेवाली कंपनी इनके साथ एम. ओ.यू. (मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) का करार करती है। लीड मर्चेंट कंपनी के लिए अंडर राइटर्स की व्यवस्था करते हैं । यदि किसी पब्लिक इश्यू को निवेशकों का पूरा समर्थन नहीं मिले, अर्थात जितने शेयरों के लिए पब्लिक इश्यू का ऑफर लाया गया हो तथा निवेशकों का कुल आवेदन उससे कम रह जाए तो ऐसी स्थिति में बचे हुए शेयरों की खरीदारी अंडर राइटर्स पहले से तय दर पर करते हैं। इस प्रकार कंपनी द्वारा पब्लिक इश्यू को बाजार में उतारने के खतरों को अंडर राइटर्स कम करते हैं।

बुक क्लोजर (रिकॉर्ड डेट) क्‍या है ?

कंपनी प्रतिवर्ष डिविडेंड, बोनस या राइट शेयर्स घोषित करने से पहले शेयर सदस्यों का रजिस्टर निश्चित अवधि के लिए (एक सप्ताह से लेकर एक महीने तक) बंद रखती है। इस अवधि क्रे दौरान शेयरों का स्थानांतरण नहीं हो सकता है। इसे ‘बुक क्लोजर ‘ कहते हैं | केवल वे शेयरधारक ही डिविडेंड, बोनस शेयर या राइट शेयर के पात्र होंगे, जिनका नाम कंपनी के रजिस्टर में बुक क्लोजर से पहले दर्ज है। इस अवधि के पश्चात्‌ जब कंपनी डिविडेंड बोनस या राइट इश्यू घोषित करती है तो शेयरों की कीमत में परिवर्तन आता है।

बुक वैल्यू क्या है ?

किसी कंपनी की कोई संपत्ति (जैसे मशीन) की कीमत जो बैलेंस शीट पर दर्ज होती है, वह उसकी “बुक वैल्यू’ कहलाती है। चूँकि संपत्ति का निरंतर अवमूल्यन होता है, अत: बुक वैल्यू प्रतिवर्ष कम होती रहती है। यदि शेयर होल्डर्स के फंड को शेयरों की संख्या से विभाजित किया जाए तो प्रति शेयर बुक वैल्यू प्राप्त होती है।

डिविडेंड (लाभांश) क्या है ?

कंपनी अपने व्यापार से अर्जित लाभ पर टैक्स इत्यादि चुकाने रू पश्चात्‌ इसका कुछ हिस्सा वर्ष में एक या दो बार शेयरधारकों को उनकी भागीदारी के अनुपात में डिविडेंड के रूप में वितरित करती है। यह डिविडेंड शेयर की फेस वैल्यू पर आधारित होता है, न कि उसकी बाजार कीमत पर | बोनस शेयर भी डिविडेंड का ही एक रूप है।

डिविडेंड कबर

टैक्स इत्यादि चुकता करने के पश्चात्‌ बचे हुए लाभ का वह हिस्सा, जो डिविडेंड के रूप में शेयरधारकों में वितरित किया जाता है, ‘डिविडेंड कवर’ कहलाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि नेट प्रॉफिट का चौथा हिस्सा डिविडेंड के रूप में वितरित किया जाता है तो कहा जाता है कि डिविडेंड कवर चार है–अर्थात्‌ जितना अधिक डिविडेंड कवर बढ़ेगा, उतना ही शेयरधारकों को कम डिविडेंड प्राप्त होगा।

डिविडेंड यील्ड

प्रति शेयर डिविडेंड को उस शेयर की बाजार कीमत से विभाजित करके प्रतिशत के रूप में निरूपित किया जाए तो यह ‘डिविडेंड यील्ड’ कहलाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई कंपनी 50 प्रतिशत डिविडेंड घोषित करती है, उसके शेयर की बाजार कीमत 250 रुपए है तथा शेयर की फेस वैल्यू 0 रुपए है, तब डिविडेंड यील्ड

5 रुपए/250 रुपए × 100 = 2 प्रतिशत

यह 2 प्रतिशत डिविडेंड यील्ड है।

यह आँकड़ा कंपनी द्वारा घोषित डिविडेंड तथा उस शेयर की बाजार कीमत में संबंध दरशाता है।

कम डिविडेंड

किसी कंपनी द्वारा डिविडेंड घोषित करने से पहले (बुक क्लोजर/रिकॉर्ड डेट से पहले) शेयरों की कीमत में संभावित डिविडेंड का लाभ भी छिपा होता है। ऐसे शेयर “कम डिविडेंड’ कहलाते हैं।

एक्स छडिविडेंड डेट

कंपनी द्वारा सार्वजनिक रूप से घोषित की गई तारीख, जिसके पश्चात्‌ शेयर कौ खरीद पर लाभांश का हक नहीं होता, उसे ‘ एक्स डिविडेंड डेट’ कहते हैं। यदि बाकी अन्य स्थितियाँ अपरिवर्तित रहें तो इस तारीख के बाद शेयर की कीमत में थोड़ी गिरावट आती है।

डेप्रिसिएशन (संपत्ति की कीमत में कमी होना) क्या है ?

किसी भी कंपनी की अचल संपत्ति जैसे कि प्लांट, मशीन बिल्डिंग इत्यादि को एक निश्चित वर्किंग लाइफ होती है।

प्रतिवर्ष इस आयु में कमी होती है तथा बची हुईं आयु (रेजिडूएल लाइफ) के अनुसार उसकी कीमत का पुनर्मूल्यांकन किया जाता है। इस प्रक्रिया को ‘डेप्रिसिएशन ‘ कहते हैं। सरल शब्दों में, किसी संपत्ति की आयु 20 वर्ष है तो प्रतिवर्ष उसकी कीमत में 5 प्रतिशत की कटौती करके डेप्रिसिएशन किया जाता है।

डेप्रिसिएशन (Depression), संपत्ति की लागत को आवंटित करने की एक लेखा विधि है। डेप्रिसिएशन दर्शाता है कि किसी परिसंपत्ति के मूल्य का कितना उपयोग किया गया है। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह मुनाफे को प्रभावित कर सकता है। व्यवसाय कर और लेखांकन दोनों उद्देश्यों के लिए दीर्घकालिक परिसंपत्तियों का मूल्यह्रास कर सकते हैं।

डड इश्यू(Dud issue) क्या है ?

ऐसा पब्लिक इश्यू, जिसे बहुत जोर-शोर से पब्लिसिटी कर बाजार में उतारा गया हो, लेकिन यदि वह निवेशकों को लाभ पहुँचाने में असफल रहता है तो ऐसे इश्यू को ‘डड इश्यू(Dud issue) कहते हैं। ऐसे केस में कंपनी या तो ऑपरेशन शुरू ही नहीं करती है या फिर बिजनेस शुरू करते ही लिक्विडेशन की प्रक्रिया शुरू कर देती है।

डल मार्केट क्या है ?

जब शेयरों के क्रय व विक्रय मूल्य में (बाइंग व सेलिंग प्राइस) में दीर्घ अंतर हो तो ट्रेडिंग की प्रक्रिया में मंदी आ जाती है। स्टॉक एक्सचेंज में ऐसी स्थिति को ‘डल मार्केट” कहा जाता है । ऐसी स्थिति में वित्तीय संस्थान स्थिति के अनुसार संस्थागत खरीद व बिक्री करते हैं, जिससे स्टॉक एक्सचेंज में हलचल पैदा हो तथा ट्रेडिंग अपनी गति पकड़ सके ।

अर्निग यील्ड क्या होती है ?

किसी कंपनी के कर पश्चात् नेट प्रॉफिट लाभ को उसके शेयरों की कुल बाजार कीमत से विभाजित किया जाए तो प्राप्त आँकड़ा शेयरों की ‘अर्निंग यील्ड’ कहलाता है। जो कंपनियाँ निवेशकों की नजर में ऊँची आँकी जाती हैं, उनकी अर्निंग यील्ड कम होती है; क्योंकि उनके शेयरों की बाजार कीमत ज्यादा होती है। इसके विपरीत, हाई अर्निंग यील्ड उस कंपनी में निवेशकों का कमजोर विश्वास दरशाता है।

ग्रोइंग प्राइवेट किसे कहते है ?

जब कंपनी स्वयं अपने शेयर सेकंडरी मार्केट (द्वितीयक बाजार) से खरीदने लगे, ताकि कंपनी का स्वामित्व कंपनी के कुछ प्रमोटरों के हाथ में वापस आ सके या

किसी निजी खरीदार के द्वारा कंपनी के अधिकांश शेयर खरीद लिये जाएँ तो ऐसी स्थिति में कंपनी पर मालिकाना हक निजी व्यक्ति के हाथ में चला जाता है।

प्रायः ऐसी स्थिति तब आती है, जब कंपनी का व्यवसाय अच्छा नहीं चल रहा हो तथा उसके शेयरों की बाजार कीमत बुक वैल्यू से भी नीचे आ जाए। तब कंपनी प्रबंधन सस्ती दरों पर अपने शेयर सेकंडरी मार्केट से खरीद लेता है। ऐसा करके कंपनी प्रबंधन कंपनी को किसी दूसरे के द्वारा हथियाए (टेक ओवर किए) जाने की संभावना को भी टाल सकता है।

ग्रोइंग पब्लिक से क्या मतलब होता है ?

जब कोई निजी कंपनी अपना विस्तार करने के लिहाज से अपने शेयर पब्लिक इश्यू लाकर बिक्री के लिए आम जनता के लिए प्रस्तुत करे तो इस स्थिति को ‘ग्रोइंग पब्लिक’ कहते हैं।

संस्थागत दलाल (इंस्टीट्यूशनल ब्रोकर) क्या है ?

म्यूचुअल फंड, यूनिट ट्रस्ट, एल.आई.सी. या अन्य दूसरे संस्थानों के लिए शेयर बाजार से शेयरों और बांडों की खरीद व बिक्री करनेवाला ब्रोकर इंस्टीट्यूशनल ब्रोकर’ कहलाता है। संस्थागत ब्रोकर भारी संख्या में खरीद-फरोख्त करते हैं तथा इन्हें आम निवेशक की तुलना में काफी कम कमीशन चुकाना होता है।

संस्थागत निवेशक (इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर) क्या है ?

बैंक, म्यूचुअल फंड, यूनिट ट्रस्ट तथा लाइफ इंश्योरेंस कंपनियाँ इत्यादि सिक्यूरिटीज (शेयर्स और बांड) के संस्थागत निवेशक होते हैं। संस्थागत निवेशक बड़ी मात्रा में खरीद-फरोख्त करते हैं। अत: ये शेयर मार्केट में सहायक की भूमिका (सपोर्टिव रोल) अदा करते हैं। जब आम निवेशक व सट्टेबाज शेयर मार्केट से आशंकित होकर ट्रेडिंग गतिविधियों से दूर रहते हैं, ऐसी अवस्था में संस्थागत निवेशक अपना प्रभाव दिखाकर शेयर मार्केट में गतिविधि बनाए रखते हैं।

तरलता (लिक्विडिटी) क्या है ?

नकद (कैश) की उपलब्धता अथवा ऐसी संपत्ति का स्वामित्व, जिसे तुरंत नकदी में परिवर्तित किया जा सके, ‘लिक्विडिटी’ या ‘तरलता’ कहलाता है। यद्यपि बाजार में किसी भी संपत्ति को औने-पौने दामों में बेचकर नकदी हासिल की जा सकती है, परंतु यह स्वस्थ स्थिति नहीं है। तरलता की सही स्थिति में ऐसी संपत्ति को बाजार में सही दामों पर बेचे जाने का माहौल होना चाहिए।

मर्चेट बैंक क्या है ?

ये कमर्शियल बैंक से अलग होते हैं। इनका कारोबार इंपोर्ट-एक्सपोर्ट ट्रेडिंग (आयात-निर्यात खरीद-बिक्री) तथा कंपनियों, उद्योग-धंधों के लिए देश-विदेश से वित्तीय संसाधन इत्यादि जुटाना होता है।

ये मर्चेट बैंक कंपनियों की तरफ से शेयर व डिबेंचर भी जारी करते हैं तथा उन्हें अंडरराइट की सुविधा देते हैं। ये कंपनियों के अधिग्रहण तथा विलय (टेकओवर व मर्जर) में भी शामिल रहते हैं। मोटे तौर पर इन्हें कंपनियों का ‘कंसल्टेंट भागीदार’ कहा जा सकता है।

म्यूचुअल फंड (साझा कोष) क्या होती है ?

ये फंड (कोष) निवेश कंपनियों तथा बैंकों द्वारा चलाए जाते हैं। ये म्यूचुअल फंड निवेशकों के धन को विभिन्न प्रकार की सिक्यूरिटी जैसे कि शेयर, डिबेंचर, बांड इत्यादि में निवेश करते हैं। ऐसे फंड में निवेश का समय एक निश्चित अवधि अथवा ओपन एंडेड (निबंध) हो सकता है।

म्यूचुअल फंड के निवेशकों को यह सुविधा होती है कि शेयर बाजार की जटिल तकनीकी जानकारियों से अवगत हुए बिना वे इसमें निवेश कर सकते हैं। इसमें निवेशक से जुड़े खतरे की कमी के साथ आकर्षक डिविडेंड तथा संतोषजनक रिटर्न मिलता है। म्यूचुअल फंड के प्रबंधक निवेशकों के धन को विभिन्न प्रकार की सिक्यूरिटीज तथा विभिन्न प्रकार की कंपनियों में लगाते हैं, जिससे निवेश से जुड़ा खतरा कम हो जाता है। निवेशकों द्वारा शेयर बाजार में सीधे निवेश की तुलना में म्यूचुअल फंड की मार्फत निवेश में जोखिम कम होता है।

नेट असेट वैल्यू (N.A.V.) क्या होती है ?

किसी भी म्यूचुअल फंड द्वारा निवेश की गई पूँजी की सिक्यूरिटीज की बाजार कीमत में से सारी देनदारी निकालने के पश्चात् प्रति सिक्यूरिटी जो मूल्य आता है, वह उस म्यूचुअल फंड की ‘नेट असेट वैल्यू’ कहलाता है। सिक्यूरिटीज की बाजार कीमतों में बदलाव आने पर नेट असेट वैल्यू में भी परिवर्तन आता है। ‘एन.ए.वी.’ में वृद्धि निवेशकों के लाभ को दरशाती है तथा म्यूचुअल फंड प्रबंधकों की क्षमता का प्रदर्शन भी इससे परिलक्षित होता है।

रिस्क (जोखिम) क्या है ?

जोखिम क्या है ? | व्यवसायिक जोखिम क्या है ? | जोखिम

शेयर बाजार में निवेश के साथ हानि-लाभ जुड़ा रहा है। हानि की संभावना को ‘जोखिम’ (रिस्क) कहा जाता है।

इस प्रकार किए गए निवेश में निम्न संभावित जोखिम जुड़े होते हैं । जोखिम किसी भी व्यवसाय के शब्दावली का हिस्सा है, और समझना और बाद में इसे प्रबंधित करना सबसे महत्वपूर्ण चिंता है ।

‘व्यावसायिक जोखिम’ शब्द का अर्थ अपर्याप्त लाभ की संभावना है या इसके कारण होने वाले नुकसान भी हैं अनिश्चितताएं या अप्रत्याशित घटनाएं। एक व्यवसाय में, जोखिम अपरिहार्य है।

कंपनी को लाभ नहीं होने की स्थिति में कोई डिविडेंड घोषित नहीं किया जाना।

    • कंपनी को अपेक्षित लाभ न होने की स्थिति में काफी कम डिविडेंड घोषित किया जाना।

 

    • लंबे समय तक शेयरों की कीमतों में परिवर्तन न हो अथवा शेयरों की कीमतों में आई गिरावट में लंबे समय तक सुधार न हो।

 

  • कंपनी व्यापार में असफल हो जाए तथा कंपनी बंद करनी पड़े, ऐसी स्थिति में शेयरधारकों की लगभग सारी पूँजी घाटे में चली जाती है।

जोखिम कितने प्रकार के होते हैं :-

    • बाजार जोखिम :- सारे बाजार को प्रभावित करने वाली घटनाओं के कारण मूल्य में कमी वाले निवेश का जोखिम। बाजार जोखिम के उदाहरण हैं: इक्विटी जोखिम (शेयर), ब्याज दर जोखिम (बांड) और मुद्रा जोखिम (विदेशी मुद्रा निवेश)।

 

    • चलनिधि जोखिम :- जब आप अपने निवेश को बेचना चाहते हैं उस समय उसे बेचने में असमर्थ होने का जोखिम। यदि आप निवेश को बेचने में समर्थ हैं, तो आपको निवेश के लिए जो भुगतान किया था उससे कम दाम स्‍वीकार करना पड़ सकता है। कुछ मामलों में, आप अपने निवेश को बेचने में कतई भी समर्थ नहीं हो सकते हैं।

 

    • संकेद्रण जोखिम :- चूंकि आपका धन किसी एक निवेश या निवेश के प्रकार में संकेद्रित है इस कारण नुकसान होने का जोखिम। जब आप अपने निवेश को विविधता प्रदान करते हैं, तो आप जोखिम का विस्तार विभिन्न प्रकार के निवेश, उद्योगों और भौगोलिक स्थानों में कर सकते हैं।

 

    • ऋण जोखिम :- यह जोखिम कि बांड जारी करने वाला सरकारी निकाय या कंपनी ब्याज का भुगतान करने या परिपक्वता पर मूलधन का भुगतान करने में समर्थ नहीं होगी। ऋण जोखिम कर्ज के निवेशों, जैसे कि बांड पर लागू होता है।

 

    • पुनर्निवेश का जोखिम ;- मूल निवेश की अपेक्षा मूलधन या ब्याज का पुनर्निवेश करने से नुकसान का जोखिम। यह जोखिम लागू नहीं होगा यदि आप नियमित ब्याज भुगतान या मूलधन का परिपक्वता पर पुनर्निवेश करने का इरादा नहीं रखते हैं।

 

    • महंगाई का जोखिम :- आपकी क्रय शक्ति में नुकसान का जोखिम क्योंकि आपके निवेश का मूल्य भविष्य उतना अच्‍छा नहीं होगा। महंगाई समय के साथ धन की क्रय शक्ति का क्षय कर देती है – धन की उतनी राशि भविष्य में कम सामान तथा सेवाएं खरीद पाएगी।

 

    • क्षितिज जोखिम :- यह जोखिम कि आपके निवेश समय क्षितिज अप्रत्याशित घटना के कारण अल्पतम हो सकता है, उदाहरणार्थ, आपकी नौकरी का नुकसान। यह आपको निवेश बेचने को मजबूर कर सकता है जिसे आप दीर्घकाल के लिए धारित करने की अपेक्षा कर रहे थे। यदि आप ऐसे समय पर बेचे जब बाजार में मंदी है, तो आपको धन का नुकसान हो सकता है।

 

    • दीर्घकाल जोखिम :- आपकी बचत का अधिक समय तक टिके रहने का जोखिम। यह जोखिम विशेष तौर पर उन लोगों से सम्बद्ध होता है जो सेवानिवृत्त हैं, या सेवानिवृत्त होने वाले हैं।

 

  • विदेशी निवेश का जोखिम :- विदेश में होने पर नुकसान का जोखिम। जब आप विदेशी निवेश खरीदते हैं, उदाहरणार्थ उभरते बाजारों में कंपनियों के शेयर, तो आपको ऐसे जोखिमों का सामना करना पड़ सकता है जो कनाडा में मौजूद नहीं हैं, जैसे कि राष्‍ट्रीयकरण का जोखिम।

स्टॉक एक्सचेंज क्या है ?

What is a stock exchange In Hindi ? | स्टॉक एक्सचेंज किसे कहते हैं ? | स्टॉक एक्सचेंज

भारत में स्टॉक एक्सचेंज परंपरागत रूप से ब्रोकर्स तथा बाजार-विशेषज्ञों का एसोसिएशन है। आम जनता तथा वित्तीय संस्थानों द्वारा सिक्यूरिटीज की ट्रेडिंग (खरीदफरोख्त) का नियमत: संचालन करने के लिए इसकी स्थापना की गई है। ‘सिक्यूरिटीज एंड कॉण्ट्रेक्ट (रेग्यूलेशन) ऐक्ट-1956’ के अंतर्गत स्टॉक एक्सचेंज भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है। स्टॉक एक्सचेंज एकमात्र ऐसा अधिकृत संस्थान है, जिसके तत्त्वावधान में सेकंडरी मार्केट में सिक्यूरिटीज की ट्रेडिंग होती है। भारत में स्टॉक एक्सचेंज एक बाजार के रूप में कार्य करता है जहां वित्तीय उपकरण जैसे स्टॉक, बॉन्ड और कमोडिटीज का कारोबार होता है।

स्टॉक एक्सचेंज वह जगह है, जहां पर कंपनियों के शेयर को सूचीबद्ध किया जाता है ,जैसे ही कंपनी अपना आईपीओ लाकर जनता से फण्ड raise करते है उसके बाद कंपनी को स्टॉक एक्सचेंज सूचीबद्ध कर दिया जाता है । स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों के शेयर्स को ब्रोकर्स के माध्यम से खरीदा व बेचा जाता है , स्टॉक मार्किट में खरीदने और बिकने वाले शेयर किसी भी प्रकार के हो सकते हैं जैसे कि स्टॉक्स , बांड्स ,डिबेंचर्स , फ्यूचरस ,ऑप्शंस ,कमोडिटी इत्यादि । स्टॉक एक्सचेंज पर शेयर्स को खरीदा व बेचा जाता है जो की स्टॉक्स,डिबेंचर्स ,बांड्स ,सिक्योरिटी इत्यादि होते है ।

भारत में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना कब हुई ?

1992 में NSE को देश में पहले डिमैट्युलाइज्ड स्टॉक एक्सचेंज के रूप में स्थापित किया गया था। तकनीकी रूप से उन्नत, स्क्रीन-आधारित ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म (बीएसई के फ्लोर-ट्रेडिंग के विपरीत) को पेश करने के लिए यह भारत में पहला स्टॉक एक्सचेंज भी था।

भारत के दो प्रमुख स्टॉक एक्सचेंज निम्नलिखित है :-

Bombay Stock Exchange :- 

      1. बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज भारत का पहला स्टॉक एक्सचेंज है जो महाराष्ट्र में मुंबई के दलाल स्ट्रीट में है । बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज Asia का सबसे पुराना स्टॉक एक्सचेंज है जिसकी स्थापना सन 1875 में हुई थी। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में 6000 से भी ज्यादा कंपनिया लिस्टेड है। यह विश्व का 10 वा बड़ा स्टॉक एक्सचेंज है। Sensex बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का सूचकांक है।


National Stock Exchange :- 

    1. नेशनल स्टॉक एक्सचेंज भारत का पहला Fully Computerized स्टॉक एक्सचेंज है और भारत का सबसे बड़ा वित्तीय बाजार भी है । नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना सन 1992 में हुई थी। यह विश्व का 11 वा बड़ा स्टॉक एक्सचेंज है। Nifty 50 नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का सूचकांक है। निफ़्टी इंडेक्स को देखकर आप भारत की अर्थव्यवस्था का पता लगा सकते है।

निवेशक इन दोनों तरीकों से भारत के स्टॉक एक्सचेंज में निवेश कर सकते हैं :-

प्राथमिक बाजार – 

    यह बाजार प्रतिभूतियों का निर्माण करता है और एक मंच के रूप में कार्य करता है जहां फर्म आम जनता के अधिग्रहण के लिए अपने नए स्टॉक विकल्प और बॉन्ड फ्लोट करते हैं। यह वह जगह है जहां कंपनियां पहली बार अपने शेयरों को सूचीबद्ध करती हैं ।

द्वितीयक बाजार – 

    द्वितीयक बाजार को शेयर बाजार के रूप में भी जाना जाता है; यह निवेशकों के लिए ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म के रूप में कार्य करता है। यहां, निवेशक उन कंपनियों को शामिल किए बिना प्रतिभूतियों में व्यापार करते हैं जिन्होंने उन्हें दलालों की मदद से पहले स्थान पर जारी किया था। यह बाजार आगे चलकर – नीलामी बाजार और डीलर बाजार में टूट गया ।

स्टॉक एक्सचेंज कैसे काम करता है ?

जब कोई व्यवसाय शेयर जारी करके पूंजी जुटाता है, तो उन नए शेयरों के मालिक किसी दिन अपनी हिस्सेदारी बेचना चाहेंगे। स्टॉक एक्सचेंज के बिना, इन मालिकों को दोस्तों, परिवार और समुदाय के सदस्यों के पास जाकर एक खरीदार ढूंढना होगा। एक्सचेंज को एक खरीदार ढूंढना आसान हो जाता है जिसे द्वितीयक बाजार के रूप में जाना जाता है।

एक स्टॉक एक्सचेंज के साथ, आप अपने व्यापार के दूसरे छोर पर व्यक्ति को कभी नहीं जान पाएंगे। यह दुनिया भर में एक सेवानिवृत्त शिक्षक हो सकता है। यह एक बहु-अरब डॉलर का बीमा समूह, सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाला म्यूचुअल फंड या हेज फंड हो सकता है।

एक्सचेंज एक नीलामी की तरह काम करता है और व्यापारियों का मानना ​​है कि एक कंपनी अच्छी कीमत की बोली लगाएगी, जबकि जो लोग मानते हैं कि यह खराब बोली लगाएगा। खरीदार सबसे कम कीमत प्राप्त करना चाहते हैं ताकि वे बाद में लाभ के लिए बेच सकें, जबकि विक्रेता आमतौर पर सर्वोत्तम मूल्य की तलाश कर रहे हैं।

 

स्टॉक एक्सचेंज वित्तीय प्रतिभूतियों के लिए तरलता बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सक्रिय बाजार, नर्वस मार्केट और सक्रिय शेयर क्या है ?

सक्रिय बाजार (एक्टिव मार्केट)

जब सेकंडरी मार्केट में शेयरों की या कुछ विशेष शेयरों की ट्रेडिंग बड़ी मात्रा में बहुत कम समय में की जाती है तो इस स्थिति को सक्रिय बाजार’ या ‘एक्टिव मार्केट’ कहा जाता है। इस बाजार में शेयरों की खरीद कीमत व बिक्री कीमत में काफी कम अंतर होता है। ऐसी स्थिति में वित्तीय संस्थानों द्वारा खरीदारी अथवा बिक्री बाजार-स्थिति पर विशेष प्रभाव नहीं डालती।

सक्रिय शेयर (एक्टिव शेयर)

वे शेयर जिनकी ट्रेडिंग प्रतिदिन तथा निरंतर होती है, ‘सक्रिय शेयर’ या ‘एक्टिव शेयर’ कहलाते हैं। प्रमुख कंपनियों के शेयर, जो आर्थिक तथा राजनीतिक घटनाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं, इस श्रेणी में आते हैं। इसके विपरीत कई शेयर ऐसे होते हैं, जो स्टॉक एक्सचेंज में कभी-कभार ही खरीदे और बेचे जाते हैं। इनको खरीदार तथा बिक्रीकर्ता ढूँढ़ना सामान्यतः मुश्किल होता है। ये ‘निष्क्रिय शेयर’ या ‘इनएक्टिव शेयर’ कहलाते हैं। इनकी खरीद व बिक्री दरों में भी काफी अंतर होता है।

नर्वस मार्केट

जब शेयर बाजार में आर्थिक तथा राजनीतिक घटनाक्रम के चलते अस्थायी मंदी के दौर, अकाल, सरकारी नीति में बदलाव के चलते अनिश्चय का वातावरण छा जाता है तो इसे ‘नर्वस मार्केट’ द्वारा परिभाषित किया जाता है। ऐसी स्थिति में अमूमन शेयरों की कीमत में कुछ गिरावट आती है और खरीदार बाजार से बेरुखी दिखाते हैं।

आधारभूत विश्लेषक (फंडामेंटल एनालिस्ट)

आधारभूत विश्लेषक’ अथवा ‘फंडामेंटल विश्लेषक’ बाजार तथा क्षेत्र-विशेष के विशेषज्ञ होते हैं, जो किसी भी सिक्यूरिटी की कीमत के आकलन में फंडामेंटल तथा वैज्ञानिक नजरिया रखते हैं। किसी भी सिक्यूरिटीज की फंडामेंटल कीमत आँकने में इनकी सलाह ली जाती है।

बिक्री अनुपात, इक्विटी अनुपात और दैनिक व्यापार क्या है ?

आधारभूत । विश्लेषण (फंडामेंटल एनालिसिस)

किसी भी कंपनी के व्यवसाय के आधारभूत कारकों का वैज्ञानिक अध्ययन के द्वारा उसके शेयर की कीमत का आकलन आधारभूत विश्लेषण’ कहलाता है। विशेषज्ञ उद्योग की गति, कंपनी की बिक्री, संपत्ति, देनदारी, कर्ज, उत्पादन, बाजार में कंपनी का हिस्सा, कंपनी का प्रबंधन, कंपनी के प्रतिद्वंद्वी इत्यादि तथ्यों का अध्ययन करके तथा कंपनी की बैलेंस शीट, लाभ-हानि लेखा तथा वित्तीय अनुपातों का साल-दर-साल अध्ययन करके कंपनी तथा उसके शेयर का आधारभूत विश्लेषण करते हैं। किसी कंपनी में लंबे दौर के निवेश करने हेतु यह जानकारी बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। यद्यपि कम समय में निवेश हेतु इस जानकारी का समुचित उपयोग नहीं किया जा सकता है।

वित्तीय अनुपात (फाइनेंशियल रेशियो)

किसी भी कंपनी के व्यवसाय तथा उसके वित्तीय स्वास्थ्य को मापने के मानक होते हैं-‘वित्तीय अनुपात’। इनमें प्रमुख हैं-करेंट रेशियो, प्राइस टू अर्निंग रेशियो, अर्निंग/इक्विटी रेशियो, प्राइस/बुक वैल्यू रेशियो, कर पूर्व लाभ/बिक्री रेशियो, क्विक रेशियो इत्यादि। इन विभिन्न अनुपातों को ज्ञात करने में बुक वैल्यू, डिविडेंड कवर, करेंट यील्ड, ई.पी.एस., वैलेटिलिटी इत्यादि का उपयोग होता है।

कर पूर्वलाभ/बिक्री अनुपात

किसी कंपनी के निश्चित अवधि के दौरान किए गए बिजनेस द्वारा कर पूर्व अर्जित लाभ तथा इस अवधि के दौरान की गई बिक्री का अनुपात एक महत्त्वपूर्ण सूचकांक होता है। यह सूचकांक कंपनी की सक्षमता को दरशाता है। उदाहरण के तौर पर, टी.वी. बनानेवाली दो कंपनियाँ ‘ए’ तथा ‘बी’ ने एक निश्चित अवधि (तीन माह) के दौरान किए गए व्यापार का अध्ययन करने पर पाया कि कंपनी ‘ए’ का यह सूचकांक कंपनी ‘बी’ से अधिक है। इससे यह पता चलता है कि या तो कंपनी ‘ए’ के उत्पाद पर लागत दर कम है अथवा उसकी बिक्री ज्यादा है। दोनों ही बातें कंपनी ‘ए’ की अधिक सक्षमता दरशाती हैं।

रिटेंड अर्निंग (आय अधिकार में रखना)

कंपनी अपनी अर्जित आय का कुछ हिस्सा भविष्य के विस्तार व आकस्मिक आवश्यकता के लिए रोक लेती है तथा उसे डिविडेंड के रूप में शेयरधारकों में वितरित नहीं करती। यह अतिरिक्त लाभ सरप्लस या रिजर्व के रूप में कंपनी के पास जमा रहता है।

प्राइस अर्निंग मल्टीपल (पी/ई अनुपात)

‘प्राइस अर्निंग मल्टीपल’ या ‘रेशियो’ पी/ई कंपनी के शेयर की कीमत तथा शेयर द्वारा अर्जित आय का अनुपात है। किसी कंपनी का तीन से पाँच वर्षों की अवधि के दौरान उस कंपनी के शेयर की औसत कीमत तथा उस शेयर द्वारा अर्जित लाभ का अनुपात पी/ ई निवेशकों के लिए महत्त्वपूर्ण सूचकांक होता है।

यदि यह सूचकांक उच्च स्तर पर हो (20 से 25 के आसपास) तो यह दरशाता है कि निवेशक इस शेयर को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं। यदि दो शेयरों की तुलना करें तथा एक निश्चित अवधि (एक वर्ष) के दौरान उनके द्वारा अर्जित आय (प्रॉफिट) समान हो, परंतु उनका पी/ई अनुपात भिन्न हो तो यह कहा जा सकता है कि जिस शेयर का पी/ई अनुपात ज्यादा है, तो उस कंपनी ने निवेशकों का विश्वास अधिक अर्जित किया है।

यह सूचकांक यह भी दरशाता है कि किसी शेयर को बाजार में कितना ऊँचा आँका गया है। शेयर की औसत कीमत को उसके द्वारा अर्जित आय के अनुपात से यह सूचकांक प्राप्त होता है। बाजार में जिन शेयरों को ऊँचा आँका जाता है, उन शेयरों का पी/ई अनुपात ज्यादा होता है। विभिन्न कंपनियों को औसत पी/ई अनुपात निवेश पत्रिकाओं में दरशाया जाता है। यह आवश्यक नहीं है कि जिस कंपनी के शेयर का पी/ई अनुपात ज्यादा हो, उसका भविष्य निश्चित ही अच्छा होगा; क्योंकि कई बार वे कंपनियाँ, जिनके शेयरों की मार्केट में बहुत कम ट्रेडिंग होती है, लंबे समय तक ऊँचा पी/ई अनुपात अथवा निम्न पी/ई अनुपात दरशाती हैं। इस सूचकांक का सही उपयोग सक्रिय शेयरों के प्रदर्शन को आँकने में किया जा सकता है।

निश्चित अवधि के दौरान किसी शेयर की औसत कीमत को उस अवधि के दौरान उस शेयर द्वारा अर्जित आय (EPS) से भाग दिया जाए तो उस शेयर का पी/ई रेशियो प्राप्त होता है।

शेयर की औसत कीमत पी/ई प्रति शेयर आमदनी

आय बनाम इक्विटी अनुपात (अर्निंग टू इक्विटी रेशियो)

कर (टैक्स) पश्चात् लाभ में से प्रिफरेंशियल शेयर का डिविडेंड निकालने के बाद बची हुई राशि को इक्विटी शेयर कैपिटल प्लस कंपनी के रिजर्व से भाग दिया जाए और प्राप्तांक को 100 से गुणा किया जाए तो यह रेशियो प्राप्त होता है।

कर पश्चात् अर्निंग (E)-प्रिफरेंशियल डिविडेंड (PD) X 100 / इक्विटी कैपिटल (EC)+ रिजर्व (R) इसे क्यों देखा जाए ? क्योंकि यह रेशियो (अनुपात) दरशाता है कि कोई कंपनी अपनी पूँजी (कैपिटल) का लाभ कमाने में कितना बेहतर ढंग से उपयोग कर रही है।

नकद अनुपात (कैश रेशियो)

किसी कंपनी के पास जमा नकदी तथा जमा सिक्यूरिटीज को उस कंपनी की कुल देनदारियों से भाग दिया जाता है तो यह ‘कैश रेशियो’ (नकद अनुपात) प्राप्त होता है। इससे यह पता चलता है कि कोई कंपनी अपनी देनदारियाँ कितनी जल्दी चुकता कर सकती है।

 

तकनीकी विश्लेषक (टेक्निकल एनालिस्ट)

फंडामेंटल विश्लेषकों की तरह तकनीकी विश्लेषक भी सिक्यूरिटी की कीमतों का अध्ययन करते हैं। तकनीकी विश्लेषक विश्वास करते हैं कि सिक्यूरिटीज की कीमतें मोटे तौर पर सिक्यूरिटीज की माँग तथा आपूर्ति पर निर्भर करती हैं। इनका विश्वास होता है कि सिक्यूरिटीज की कीमतों के दैनिक उतार-चढ़ाव को नजरअंदाज किया जाए तो शेयर कीमतें एक दृष्टिगोचर पैटर्न (अंदाज लगाने योग्य तरीका) पर चलती हैं तथा लंबे समय के अध्ययन से इसे पहचाना जा सकता है; इनका मानना होता है कि शेयर की कीमतों का ट्रेंड बार-बार दोहराया जाता है। क्योंकि निवेशक की मानसिकता एक निश्चित पैटर्न की होती है। अतः जो ट्रेंड पहले घटित हुआ है, उसका दोहराव आगे भी होगा। तकनीकी विश्लेषक किसी कंपनी या सेक्टर की आधारभूत मजबूती या कमजोरी को न आँककर निवेशकों की मानसिकता तथा कीमतों के प्रदर्शन का अध्ययन करते हैं।

मंदड़िए (बीयर)

शेयर बाजार के वे ऑपरेटर या खिलाड़ी, जो शेयरों की तेजी से बिकवाली कर लाभ कमाने की फिराक में रहते हैं, ये ऑपरेटर शेयरों की तेज बिकवाली करके शेयरों की कीमतें गिराते हैं तथा घटी हुई कीमतों पर पुनः शेयर खरीदते हैं। शेयर बाजार की भाषा में इन्हें ‘बीयर’ या ‘मंदड़िए’ कहा जाता है।

मंदी का बाजार (बीयर मार्केट)

जब बाजार में लंबे समय तक बिकवाली के दबाव के चलते शेयरों की कीमतों में गिरावट का दौर रहता है तो इसे ‘बीयर मार्केट’ या ‘मंदी का बाजार’ कहा जाता है। ऐसी स्थिति सरकार की औद्योगिक व आर्थिक नीति में परिवर्तन, सरकार की कीमतों पर नियंत्रण की नीति, बाढ़ या अकाल जैसी प्राकृतिक आपदा, मुक्त आयात, सरकार के बदल जाने, आयकर विभाग द्वारा व्यापक छापे या बीयर (मंदड़िए द्वारा योजनाबद्ध तरीके

से की गई गतिविधियों) के कारण हो सकती है।

 

स्टैग

वे लोग जो प्रायः सेकंडरी मार्केट में निवेश नहीं करते, बल्कि प्राथमिक बाजार में ही निवेश करते हैं, ‘स्टैग’ कहलाते हैं।

 

ए-डी इंडक्स (एडवांस डिक्लाइन इंडेक्स)

यह शेयर बाजार के ट्रेंड को मापने का पैमाना है। शेयर बाजार तेजड़ियों (बुल) के नियंत्रण में है या मंदड़ियों (बीयर्स) के नियंत्रण में है, इसका अंदाजा इस इंडेक्स के द्वारा लगता है। किसी दिन ट्रेड हुए शेयर में से वृद्धिवाले शेयरों की संख्या को गिरावटवाले शेयरों की संख्या से विभाजित करने पर यह इंडेक्स प्राप्त होता है। उदाहरण के तौर पर, किसी दिन विभिन्न सेक्टर की कुल 800 कंपनियों की ट्रेडिंग हुई, जिसमें 600 शेयरों में उछाल आया तथा 200 शेयरों में गिरावट दर्ज की गई

600 /200 = 3

इस प्रकार उस दिन का ए-डी इंडेक्स 3 हुआ। यह दरशाता है कि उस दिन शेयर बाजार तेजड़ियों (बुल्स) के प्रभाव में रहा। ए-डी इंडेक्स एक से अधिक होने पर तेजड़ियों (बुल्स) का प्रभाव तथा एक से कम होने पर मंदड़ियों (बीयर्स) का प्रभाव दरशाता है।

रैली

शेयर बाजार में गिरावट अथवा ठहराव के दौर के पश्चात् जब शेयरों की कीमतों में वृद्धि का दौर आता है तथा शेयर बाजार का सूचकांक बढ़ने लगता है तो इसे बाजार की भाषा में ‘रैली’ कहा जाता है।

 

दैनिक व्यापार (डे ट्रेडिंग)

शेयर के भावों में दैनिक उतार-चढ़ाव को ध्यान में रखकर इससे लाभ कमाने हेतु किसी कंपनी के शेयरों को एक ही दिन में खरीदकर बेचने (ट्रेडिंग) को ‘दैनिक व्यापार’ अथवा ‘डे-ट्रेडिंग’ कहते हैं।

शेयरों की कीमत बाजार में कैसे ऑकी जाती है ?

How are the shares priced in the market ? | शेयरों की कीमत कैसे निर्धारित किया जाता है ?

फंडामेंटल नजरिए से शेयर का मूल्यांकन किया जाए तो निवेशक किसी भी शेयर की वह कीमत तय करता है, जो उसके अनुसार उस शेयर में छिपे हुए लाभ के अनुसार अनुकूल हो।

यहाँ छिपे हुए लाभ से तात्पर्य है कि कोई निवेशक जिस अवधि के लिए उस शेयर में निवेश करना चाहता है, उस अवधि में वह शेयर कितना डिविडेंड देगा तथा उस शेयर की बाजार कीमत में कितनी अनुमानित वृद्धि होगी। इस नजरिए से निम्नलिखित फॉर्मूला बनाया जा सकता है।

P = D/K-g

यहाँ P निवेश करने के प्रारंभ में शेयर की बाजार कीमत।

D अपेक्षित अवधि, जिसके लिए निवेश किया जाता है।

K निवेशक द्वारा अनुमानित शेयर की बाजार कीमत में हुई वृद्धि द्वारा अर्जित रिटर्न की दर।

g – शेयर द्वारा प्राप्त डिविडेंड वृद्धि की दर।

यह फॉर्मूला ‘गोर्डंस कांस्टेट डिविडेंड ग्रोथ रेट मॉडल’ कहलाता है। यह इस विचार पर आधारित होता है कि डिविडेंड एक निश्चित दर से वृद्धि करता है। किसी भी कंपनी की भविष्य में होनेवाली आय कई बातों पर निर्भर करती है और इसी के अनुसार उस कंपनी द्वारा अपने शेयरों पर दिया जानेवाला डिविडेंड भी अनिश्चित होता है। चूँकि भविष्य में दिए जानेवाले डिविडेंड का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है, अतः गणना के लिए एक तरीका यह है कि डिविडेंड वृद्धि की दर को स्थायी माना जाए।

कर्ब ट्रेडिंग

कई बार सिक्यूरिटीज का ट्रांजेक्शन ट्रेडिंग के आधिकारिक समय के पश्चात् भी होता है, नियमतः यह गैर-कानूनी है। ऐसी गैर-कानूनी ट्रेडिंग, जो स्टॉक एक्सचेंज के दायरे से बाहर की जाती है, वह ‘कर्ब ट्रेडिंग’ कहलाती है, जिसे ‘ग्रे ट्रेडिंग’ भी कहते हैं।

अल्फा फैक्टर

यह फैक्टर किसी शेयर की अंदरूनी स्थिरता को दरशाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई शेयर जिसका अल्फा फैक्टर 1.5 हो–अर्थात् इस शेयर की कीमत में एक वर्ष में 50 प्रतिशत का उछाल इसकी अंदरूनी मजबूती के चलते आ सकता है तथा यह बाजार के ट्रेंड से भी अप्रभावित रहता है।

Topic

लेख एवं अंकन दो शब्दों के मेल से वने लेखांकन में लेख से मतलब लिखने से होता है तथा अंकन से मतलब अंकों से होता है । किसी घटना क्रम को अंकों में लिखे जाने को लेखांकन (Accounting) कहा जाता है ।

किसी खास उदेश्य को हासिल करने के लिए घटित घटनाओं को अंकों में लिखे जाने के क्रिया को लेखांकन कहा जाता है । यहाँ घटनाओं से मतलब उस समस्त क्रियाओं से होता है जिसमे रुपय का आदान-प्रदान होता है ।

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