Company Concept

Company क्या है ?

व्यवसाय के कई रूप होते हैं जिसमें कम्पनी भी एक है। वह व्यवसायी संगठन जिसे कम्पनी अधिनियम में वर्णित नियमों के अनुसार गठित एवं संचालित किया जाता है तथा जिसकी पूंजी छोटे-छोटे अंशों में विभक्त होती है, कम्पनी व्यवसाय कहलाती है ।

दूसरे शब्दों में हम इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि वह व्यवसाय जो कानून से बनती है कानून से चलती है तथा बंद भी कानून से होती है, कम्पनी व्यवसाय कहलाती है ।

यह भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के अंतगर्त निर्मित और पंजीकृत होते हैं।

कम्पनी एक विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति है जिसका अपना वैधानिक अस्तित्व होता है।

जहां अत्यधिक पूंजी की आवश्यकता होती है और जोखिम भी अधिक होती है वहां कम्पनी व्यवसाय गठित किया जाता है।

इसमें चार तरह के व्यक्ति शामिल होते है :

  • प्रवर्तक (Promoter)
  • संचालक (Director)
  • अंशधारी (Shareholder)
  • सम्पादक (Liquidator)

कम्पनी और उसका गठन कैसे होता है ?

व्यवसाय को चलाने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है और अत्यंत जटिल वातावरण में कार्य करना पड़ता है। कम्पनी रूप व्यवसाय संगठन का अधिक उचित व अत्यंत लोकप्रिय व्यवसाय संगठन हो गया है। इस प्रकार के संगठन में बड़ी संख्या में व्यक्ति अपना धन लगाते हैं जिन्हें “अंशधारी“ कहते हैं, जो देश व संसार के कोने-कोने से होते हैं। जो कम्पनी की कार्य चलाते हैं निवेशकर्ताओं पर दृष्टि नहीं रख सकते इसलिए उनके हितों की रक्षा के लिए, यह आवश्यक है कि सरकार कम्पनी के कार्य पर निरीक्षण व विनियमितता रखे। इसी उद्देश्य के कारण कम्पनी अधिनियम बनाया गया और बदलते वातावरण में समय समय पर इसमें संशोधन किए गए | भारत में सबसे पहला कम्पनी अधिनियम 1850 ई में पारित हुआ और उस के बाद 1857,1866, 1913 और 1956 में कम्पनी अधिनियम बनें।| कम्पनी अधिनियम 1956 भाभा समिति की सिफारिशों पर आधारित था। 1956 अधिनियम में भी व्यापार में बदलती आवश्यकताओं और अधिक जटिलताओं और कुशल प्रबंध के कारण 1956 अधिनियम में कई बार संशोधन किए गए | अंतिम संशोधन कम्पनी (संशोधन) अधिनियम 2006 द्वारा लागू हुए। कम्पनी अधिनियम 2013 कम्पनी अधिनियम 1956 के स्थान पर अब कम्पनी अधिनियम 2043 लागू है, यह अधिक आधुनिक, साधारण व यथायोग्य विधान है। इस नये अधिनियम का उद्देश्य हमारे कम्पनी विधि को संसार की सर्वोत्तम कार्य प्रणाली के बराबर लाना है। 2013 के अधिनियम मे एक व्यक्ति कम्पनी के साथ ही कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व(Corporate Social Responsibility), वर्ग कार्रवाई अभियोग (Class action suits) व स्वतंत्र निदेशकों का निर्धारित समय जैसे विचार लागू किये हैं। इसमें जनता से धन एकत्र करने, कम्पनी निदेशकों या मुख्य प्रबन्धकीय कर्मचारियों (Key Managerial) द्वारा भेदिया व्यापार करने सम्बंधी कार्यों को अपराध मान कर प्रावधानों को कड़ा किया गया है। यद्यपि यह सार्वजनिक कंम्पनियों को भी शेयर धारकों के समझौतों में “पहले प्रस्ताव का“ या “पहले इंकार” करने का अधिकार भी प्रदान  करता है। और इसके अनुसार कुछ कम्पनियों को पिछले तीन वर्षो के औसत शुद्ध लाभ का 2% प्रतिशत कम्पनी सामाजिक उत्तरदायित्व कार्यों के लिए अलग रखना होगा व इस प्रक्रिया में अपनायी गयी नीति की अंशधारियों को जानकारी देनी होगी।

कम्पनी का अर्थ ( Meaning) एवं परिभाषा(definition) क्या है ?

कम्पनी शब्द का अर्थ क्या होता है ? | कुछ प्रसिद्ध लोगों के द्वारा कंपनी की दी गयी परिभाषा क्या है ?

कम्पनी शब्द से तात्पर्य कुछ व्यक्तियों की एक सामान्य उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए बनाई गयी एक संस्था से है। वास्तव में, व्यक्तियों की विविध प्रकार के उद्देश्यों के लिए सहयोग करने की इच्छा हो सकती है। इसमें आर्थिक और गैर आर्थिक उद्देश्य दोनों हैं। परन्तु “कम्पनी” शब्द का प्रयोग केवल तब किया जाता है जब विभिन्‍न व्यक्ति आर्थिक उद्देश्य के लिए संगठित होते हैं अर्थात्‌ एक व्यवसाय से लाभ अर्जित करने के लिए। इस का अर्थ यह नहीं है कि कम्पनी का गैर आर्थिक या पूर्त (परोपकारी) उद्देश्यों (Charitable Purposes) के लिये गठन नहीं किया जा सकता | कम्पनी अधिनियम 2043 की धारा 8 के अनुसार गैर लाभ वाली संस्थायें कम्पनी बन सकती हैं। साझेदारी फर्म प्रायः अपने को A,B,C एंड कम्पनी की तरह कहती हैं। लेकिन ऐसा नाम देने से फर्म विधिक रूप में कम्पनी नहीं बन जाती है, यह नाम केवल इस बात को दर्शाता है कि इस संगठन में अन्य व्यक्ति भी शामिल हैं। विधिक शब्दावली में, एक कम्पनी का अर्थ कम्पनी अधिनियम 2043 या पहले के कम्पनी अधिनियमों में से किसी अधिनियम के अन्तर्गत निगमित या पंजीकृत कम्पनी है। कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2(20) के अनुसार कम्पनी का अर्थ है, इस अधिनियम के अन्तर्गत संगठित और पंजीकृत की गयी कम्पनी या किसी पहले अधिनियम के अन्तर्गत। लेकिन यह परिभाषा एक सम्पूर्ण परिभाषा नहीं है क्योंकि इससे एक कम्पनी का अर्थ एवं विशेषताएं पता नहीं चलती। इस कारण हमें प्रसिद्ध न्यायधीशों द्वारा दी गयी कम्पनी की परिभाषा देखनी होगी।

लार्ड जस्टिस लिंडले के द्वारा कंपनी की दी गयी परिभाषा क्या है ?

लार्ड जस्टिस लिंडले ने एक कम्पनी की परिभाषा इन शब्दों में की है: “कम्पनी से अभिप्राय उन अनेक व्यक्तियों की संस्था से होता है जो किसी सामान्य स्टॉक (Common Stock) में अपना धन या उसके मूल्य की वस्तु लगाते हैं और उसका प्रयोग वे किसी व्यापार या व्यवसाय में करते हैं तथा उससे होने वाले लाभ या हानि जैसे भी स्थिति हो) को आपस में बॉँट लेते हैं। इस प्रकार बनाया गया सामान्य स्टॉक धन के रुप में होता है और इसे कम्पनी की पूँजी कहा जाता है। जो लोग इसमें धन लगाते है और जो इसके स्वामी होते है उन्हें सदस्य कहा जाता है। प्रत्येक सदस्य जिस अनुपात में इस पूँजी का स्वामी होता है उसे उसका शेयर कहा जाता है। शेयर सदा ही हस्तांतरणीय होते हैं, यद्यपि हस्तांतरणीयता के संबंध में कुछ न कुछ प्रतिबंध भी लगे होते हैं।

चीफ जस्टिस मार्शल के द्वारा कंपनी की दी गयी परिभाषा क्या है ?

एक अन्य परिभाषा चीफ जस्टिस मार्शल ने दी है। उनके अनुसार “कम्पनी वह व्यक्ति है जो कृत्रिम, अदृश्य और अमूर्त होती है तथा जो केवल कानून की नजर में ही विद्यमान होती है। कानून द्वारा सर्जित होने के नाते इसमें केवल वे ही विशेषताएं होती है जिसें इसे बनाने वाला चार्टर इसको देता है, स्पष्ट रूप से या इसके अस्तित्व के संदर्भ में |“

लार्ड हैने (Lord Haney) के द्वारा कंपनी की दी गयी परिभाषा क्या है ?

लार्ड हैने (Lord Haney) के अनुसार “कम्पनी एक निगमित संस्था है जो कानून द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है, जिसका अपना अलग अस्तित्व होता  है और जिसका शाश्वत उत्तराधिकार और सार्वमुद्रा (Common Seal) होती है। ऊपर दी गयी परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि कम्पनी का एक सामुहिक व विधिक व्यक्ति होता है। यह एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका केवल विधिक अस्तित्व होता है। इसका एक स्वतंत्र विधिक आस्तित्व, एक सार्वमुद्रा और शाश्वत उत्तराधिकार होता है।

कम्पनी बनाम निगमित निकाय क्या है ?

निगमित निकाय का अर्थ व्यक्तियों की एक संस्था से है जिसका किसी विधि के अन्तर्गत निगमन हुआ है जिसका शाश्वत उत्तराधिकार, सार्वमुद्रा और अपने सदस्यों से पृथक विधिक अस्तित्व है।

कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2(11) के अनुसार निगमित निकाय की परिभाषा इस प्रकार है:

“निगमित निकाय या “निगम” के अंतर्गत भारत के बाहर निगमित कोई भी कम्पनी है, किन्तु इस के अन्तर्गत निम्नलिखित नहीं हैं –

(1) सहकारी सोसाइटियों से संबंधित किसी विधि के अधीन पंजीकृत कोई सहकारी सोसाइटी, और

(2) ऐसी कोई अन्य निगमित निकाय (जो इस अधिनियम में यथा परिभाषित कम्पनी नहीं है) जिसे केन्द्रीय सरकार अधिसूचना द्वारा, इस संबंध में निर्दिष्ट किया जाए।

निगमित निकाय दो प्रकार के हो सकते हैं:

(1) एकक निगम (Corporation Sole )

(2) सामूहिक निगम (Corporation Aggregate)

एकक निगम एक निगमित निकाय है जो एक व्यक्ति से गठित है जो, किसी कार्यालय या कार्य के अधिकार के कारण, निगमित पद रखता हैं। एकक निगम के उदाहरण

शाश्वत कार्यालयों में मिलते हैं जैसे राष्ट्रपति, गर्वनर, राज्यपद, मंत्री और पब्लिक ट्रस्टी | एकक निगम कम्पनी अधिनियम 2013 के अर्न्तगत निगमित निकाय नहीं है। फिर भी यह कानूनी व्यक्ति है। इस नाते वह किसी कंपनी का सदस्य हो सकती है। स्टार टाईल वर्व्स लिमिटेड बनाम एन गोविन्दन ( Star Tile Works Ltd V. N Govindan (1956) |

“निगम समूह” व्यक्तियों का एक समूह है जो आपस में जुड़े हैं, ताकि वे “एक व्यक्ति” का रूप लें जैसे लिमिटेड कम्पनी, व्यापार संघ।

यहां पर यह ध्यान देना रोचक होगा कि भारत के बाहर पंजीकृत हुई कम्पनी को “निगमित निकाय“ की परिभाषा में शामिल करने से उस कम्पनी पर कम्पनी अधिनियम 2043 के काफी प्रावधान लागू होते हैं।

जैसे धारा 380 के अनुसार विदेशी कम्पनियों को भारत में व्यापार करने के लिए रजिस्ट्रार को कुछ दस्तावेज भेजने होंगे। “निगम या “निगमित” निकाय शब्द कम्पनी शब्द से व्यापक है। यहां पर जैसा कि ऊपर लिखा है कि कम्पनी से अर्थ निगम समुह से है।

क्‍या कम्पनी एक नागरिक है ?

Is the company a citizen ?

यद्यपि कम्पनी एक कानूनी व्यक्ति (परन्तु कृत्रिम) है, फिर भी भारतीय संविधान या नागरिकता अधिनियम 1955 के अंतर्गत कम्पनी एक नागरिक नहीं है, हैवी इन्जीनियरिंग मजदूर यूनियन बनाम स्टेट ऑफ बिहार (1969) ( Heavy Engineering Mazdoor Union Vs State Of Bihar (1969)| स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन बनाम सी. टी. ओ. 1963 (State Trading Corporation Ltd vs. CTO (1963)) में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि निगम जिसमें कम्पनी शामिल है उसे भारतीय संविधान के अन्दर नागरिक का दर्जा नहीं दिया जा सकता । भारतीय संविधान में जो मौलिक अधिकार केवल नागरिकों को मिले हैं कम्पनी को नहीं मिलते | फिर भी यह चाहे नागरिक है या नहीं उन मौलिक अधिकारों का संरक्षण मांग सकती है जो सब व्यक्तियों को मिलते हैं जैसे कि संपत्ति पर स्वामित्व अधिकार | Narasarsopeta Electronic Corporation LTD v State of Madras (1951) के वाद में उच्च न्यायालय ने कहा कि कम्पनी जिस का भारतीय कम्पनी अधिनियम के अर्न्नतत निगमन हुआ है यदि वह संविधान की धारा 5 में “नागरिक” की परिभाषा की शर्तें पूरी नहीं करती अत: नागरिक नहीं है।

कोई कम्पनी मौलिक अधिकारों की इस आधार पर मांग नहीं सकती कि यह नागरिकों का समूह है। जब कम्पनी या निगम का गठन होता है, कम्पनी या निगम का व्यापार नागरिकों का व्यापार नहीं होता बल्कि उस कम्पनी या निगम का होता है जो निगमित हुई है और निगमित संस्था के अधिकार उस आधार पर देखने चाहिये, इस धारणा पर नहीं आंकना चाहिए कि वह अधिकार एक व्यक्तिगत नागरिक का है – उच्चतम न्यायालय Telco Ltd vs State Of Bihar (1964) के वाद में। यद्दपि कम्पनी नागरिक नहीं है फिर भी उसके पास राष्ट्रीयता, अधिवास (Docmicle) व निवास स्थान है। उस देश और स्थान पर जहां इसका निगमन हुआ है वह उसकी निवासी व नागरिक (Resident And National) है।

कम्पनी की प्रमुख विशेषताएं (Features Of The Company )क्या है ?

“कम्पनी” शब्द की विभिन्‍न विधिक व न्यायिक परिभाषाओं का विश्लेषण यह दर्शाता है कि कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत गठित व पंजीकृत कम्पनी की कुछ ऐसी खास विशेषताएं हैं जिनके कारण यह संगठनों के अन्य रूपों से भिन्‍न है| 

कम्पनी की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

1) कानून द्वारा निर्मित (Creation Of Low): कम्पनी ऐसे व्यक्तियों की संस्था है। (केवल एक व्यक्ति कम्पनी छोड़कर) जो अस्तित्व में तभी आती है जब इसका पंजीकरण कम्पनी अधिनियम के अंर्तगत किया जाता है। निजी कम्पनी में सदस्यों की न्यूनतम संख्या 2 व सार्वजनिक कम्पनी में 7  होनी चाहिये। एक व्यक्ति कम्पनी का गठन केवल एक व्यक्ति कर सकता है। (धारा 3)

(2) कृत्रिम व्यक्ति (Artificial Person): विधि की स्वीकृति द्वारा कम्पनी का निर्माण होता है और वह अपने आप में मनुष्य नहीं हैं। इस कारण यह कृत्रिम है और क्‍योंकि इसके अपने अधिकार व दायित्व हैं, इस लिये व्यक्ति है। इसी कारण से कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है।

(3) स्वतंत्र विधिक अस्तित्व (Separate Legal Entity): कम्पनी उन व्यक्तियों से, जो इस के सदस्य हैं, पृथक है। साझेदारी में ऐसा नहीं है। धारा 9 के अनुसार पंजीकरण के बाद व्यक्तियों की संस्था उस नाम से जो नाम सीमानियम में दिया है एक निगमित निकाय बन जाती है| कम्पनी की वैधानिक स्थिति की भारतीय उच्चतम न्यायालय ने टाटा इंजीनियरिंग एण्ड लोकोमोटव क॑. लि. बनाम बिहार राज्य मुकदमें में एक अच्छी व्याख्या दी है। जो निम्नलिखित हैः “कानून की नजर में कम्पनी एक वास्तविक व्यक्ति के समान होती है तथा इसका अपना कानूनी अस्तित्व होता है| कम्पनी का अस्तित्व उसके शेयर धारियों के अस्तित्व से बिल्कुल पृथक होता है, इसके पास अपना नाम और अपनी मुद्रा हो सकती है, इसकी परिसंपत्तियां इसके सदस्यों की परिसम्पत्तियों से पृथक्‌ और भिन्‍न हो सकती हैं, अपने कार्यों के लिए यह किसी पर मुकदमा कर सकती है और कोई इस पर मुकदमा कर सकता है।” यद्यपि कम्पनी का भौतिक अस्तित्व नहीं होता लेकिन कानून के प्रयोजन के लिए इसे एक स्वंतत्र विधिक व्यक्ति माना जाता है जिसका अपना व्यक्तित्व होता है और जो उन सदस्यों से भिन्‍न होता है जिनसे वह कम्पनी बनती है। इसलिए कम्पनी अपने किसी भी सदस्य के साथ अनुबंध कर सकती है। एक व्यक्ति इसका अशंधारी (शेयरधारी) हो सकता है और लेनदार भी। एक व्यक्ति कम्पनी की सारी शेयर पूँजी का धारक होने पर भी कम्पनी के कार्यों और ऋणों के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता। कम्पनी के प्रचलन के दौरान या इसके समापन पर कोई भी सदस्य व्यक्तिगत या संयुक्त रूप से कम्पनी की परिसम्पत्तियों में स्वामित्व के अधिकार का दावा नहीं कर सकता | इसी प्रकार कम्पनी के लेनदार केवल कम्पनी के ही लेनदार होते हैं और वे कम्पनी के सदस्यों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकते। जहाँ केवल एक अंशधारी के पास ही कम्पनी के लगभग सभी शेयर हैं, वहां भी कम्पनी का ऐसे अंशधारी से एक पृथक विधिक अस्तित्व होता है| सालोमन बनाम सालोमन एण्ड क* लि* (Salomon vs. Salomon & Co.Ltd) के मुकदमे के द्वारा इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। श्री सालोमन इंग्लैंड मे जूतों का अपना व्यवसाय करते थे। उन्होंने Salomon vs Salomon & Co.Ltd नाम की कम्पनी का गठन किया। इसमें स्वयं सालोमन, उनकी पत्नी, चार पुत्र और लड़की शामिल थे। सालोमन ने जूतों का अपना व्यवसाय, कम्पनी को 30,000 पौंड में बेच दिया गया। सालोमन ने क्रय मूल्य के रूप में कम्पनी से एक-एक पौंड के 20,000 पूर्ण प्रदत्त शेयर और 40,000 पौंड के ऋणपत्र, जिनका कम्पनी की परिसम्पत्तियों पर अस्थायी अथवा चल प्रभार (Floating Charge) था, बाकी नकद प्राप्त किया। सालोमन के परिवार के  प्रत्येक सदस्य ने 4 पौंड के एक-एक शेयर के लिए नकद अंशदान किया। सालोमन कम्पनी का प्रबंध निदेशक था। व्यवसाय में कम्पनी कुछ अरक्षित ऋणों (Unsecured Loans) के लिए उत्तरदायी बन गयी। कुछ समय बाद कम्पनी को वित्तीय कठिनाइयों ने घेर लिया और एक साल में इसका समापन कर दिया गया। समापन पर, इसकी परिसम्पत्तियों से 6,000 पौंड वसूल हुए। 40,000 पौंड सालोमन की और 7,000 पौंड अरक्षित लेनदारों को देने थे। ऋणपत्र धारक (सालोमन) को भुगतान करने के बाद कम्पनी के पास अरक्षित लेनदारों को देने के लिए नहीं बचा | लेनदारों ने दावा किया कि ऋणपत्रों की तुलना में उन्हें प्राथमिकता मिलनी चाहिए क्योंकि सालोमन और सालोमन एण्ड क॑ लि. एक ही व्यक्ति है और कम्पनी तो निर्दोष लेनदारों को धोखा देने का एक दिखावा है। अत: सालोमन को एक रक्षित लेनदार (Seecured Creditor) नहीं माना जाना चाहिए। हाअस ऑफ लार्ड्स (House Of Lords ) ने निर्णय लिया कि कम्पनी विधिवत्‌ गठित हुई है और इसका इसके सदस्यों से अलग एक स्वतंत्र अस्तित्व है।  इसलिए सालोमन अपनी राशि पहले प्राप्त करने का अधिकारी है क्योंकि वह एक रक्षित लेनदार है। व्यवसाय कम्पनी का है, सालोमन का नहीं | कम्पनी और सालोमन का पृथक्‌ विधिक अस्तित्व है। सालोमन कम्पनी का एजेन्ट है, कम्पनी सालोमन का ऐजन्ट नहीं हैं। टी. आर_ प्रैट (बम्बई) लि, बनाम्‌ ई, डी. सैसून एण्ड क॑ लि. (T.R Pratt (Bombay) Ltd vs E. D. Sasoon And Co. Ltd) के मुकदमे में यह कहा गया कि कानून के अन्तर्गत एक निगमित कम्पनी का पृथक्‌ अस्तित्व होता है और चाहे कम्पनी के सारे शेयर व्यावहारिक रुप में एक ही व्यक्ति द्वारा नियंत्रित हो फिर भी कानून के अन्तर्गत कम्पनी का एक पृथक्‌ अस्तित्व होता है। इसी प्रकार, अब्दुल हक बनाम दास मल के मुकदमे में कम्पनी के एक कर्मचारी ने कम्पनी के एक निदेशक पर अपने वेतन की राशि, जो देय थी, के लिए दावा किया। यह निर्णय दिया गया कि वह इस दावे में सफल नहीं हो सकता क्योंकि इसका उपचार तो कम्पनी कर सकती है, उसका निदेशक या सदस्य नहीं । एक पृथक्‌ विधिक अस्तित्व होने से कम्पनी अपने सदस्यों के साथ अनुबंध कर सकती है और सदस्य कम्पनी के साथ अनुबंध कर सकते हैं। इस प्रकार एक शेयरधारी (अंशधारी) कम्पनी का लेनदार भी हो सकता है।

4). सीमित दयित्व (Limited Company): कम्पनी का एक प्रमुख लाभ यह है कि इसके सदस्यों का दायित्व सीमित होता है। आगे चलकर आप पढेंगे कि दायित्व के आधार पर कम्पनियों को इस प्रकार बाँटा जा सकता है: (1) शेयरों द्वारा सीमित कम्पनियां (2) गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनियां (3) शेयर पूंजी वाली गारंटी द्वारा सीमित कम्पनियां और (4) असीमित दायित्व वाली कम्पनियां। शेयरों द्वारा सीमित कम्पनी में सदस्यों का दायित्व उन के शेयरों के अंकित मूल्य तक ही सीमित होता है जो उनके पास हैं| यदि किसी सदस्य ने शेयरों की पूरी राशि का भुगतान कर दिया है। तो उस का दायित्व शून्य होगा। गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी में सदस्यों का दायित्व उस ने जिनकी राशि की गारण्टी दी है उस तक सीमित होगा परन्तु शेयर पूँजी वाली गारण्टी कम्पनी में एक सदस्य का दायित्व उसके शेयरों की राशि जो देय है और गारण्टी की गयी राशि दोनों के जोड़ तक सीमित होगा। आप ध्यान दें कि कम्पनी अधिनियम 2013 सदस्यों के असीमित दायित्व वाली कम्पनियों के गठन की अनुमति देता है, असीमित दायित्व वाली कम्पनियों के सदस्यों का दायित्व उनके पास शेयरों के अंकित मूल्य तक सीमित नहीं होता। जब तक कम्पनी के देयताओं व ऋण के एक-एक पैसे का भुगतान नहीं होता वे उत्तरदायी होंगे। फिर भी कम्पनी के पृथक अस्तित्व होने के कारण लेनदार सदस्यों के विरूद्ध सीधे वाद नहीं कर सकते।

(5). पृथक सम्पत्ति (Separate Property): कानून की दृष्टि में शेयरधारी उपक्रम (एावाब्राता2) के आंशिक मालिक नहीं होते। भारत में उच्चतम न्यायालय ने पृथक सम्पत्ति का सिद्धांत बच्चा एफ गुज्जदार बनाम कमिशनर आफ इनकम टैक्स बॉम्बे के वाद में उत्तम तरीके से स्पष्ट किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि शेयरधारी कम्पनी या इसकी सम्पत्ति का ओशिक मालिक नहीं होता। उस को कानून द्वारा कुछ अधिकार दिये हैं जैसे कि मत देना, सभाओं में उपस्थित होना, लाभांश प्राप्त करना। Macaura vs. Northern Assurance Co Ltd (1925) के वाद में निर्णय दिया गया कि सदस्य का कम्पनी की सम्पत्ति में कोई बीमा योग्य हित नहीं होता । इस वाद में Macaura के पास एक लकड़ी की कम्पनी के एक के सिवाय बाकि सब शेयर थे | उस ने कम्पनी की लकड़ी का अपने नाम से बीमा कराया। आग के कारण लकड़ी जल गई । उस का दावा रद्द कर दिया गया क्‍योंकि लकड़ी में उस कोई बीमा हित नहीं था। न्यायालय ने कहा “किसी भी शेयरधारी का कम्पनी की किसी भी सम्पत्ति की किसी भी वस्तु में अधिकार नहीं होता क्योंकि उस का उस में कानूनी या न्यायोचित हित नहीं हैं।”

(6) शाश्वत उत्तराधिकार (Perpetual Succession): “शाश्वत उत्तराधिकार” शब्द का अर्थ है निरंतर विद्यमान रहना। कम्पनी का अस्तित्व इसके सदस्यों के दिवालियापन, मृत्युपागलपन जैसे कारणों से प्रभावित नहीं होगा। कम्पनी का एक शाश्वत उत्तराधिकार होता है। सदस्य आते रहते हैं, जाते रहते हैं लेकिन कम्पनी चलती रहती है। यदि कम्पनी के सभी सदस्यों की मृत्यु हो जाये तब भी कम्पनी का विधिक अस्तित्व समाप्त नहीं होगा| एक निजी कम्पनी के सारे सदस्य साधारण सभा के समय युद्ध के मध्य एक बम के कारण मारे गए। परन्तु कम्पनी बची रही। एक हाईड्रोजन बम भी उसे समाप्त नहीं कर सका | उपयुक्त अवस्था में मृत अंशधारियों के कानूनी उत्तरधिकारी सदस्य बन जाएंगे | इस का अर्थ यह नहीं है कि कम्पनी का कभी अंत नहीं हो सकता। आपने पढ़ा है कि कम्पनी विधि द्वारा निर्मित की जाती है तथा विधि की प्रक्रिया द्वारा ही इस का अन्त भी किया जाता है।

(7) शेयरों का हस्तांतरण (Transferability Of Shares): कम्पनियों के लोकप्रय होने का एक विशेष कारण यह है कि उन के शेयर आसानी से हस्तांतरित हो सकते हैं। एक सार्वजनिक कम्पनी के शेयर निर्बाध रूप से हस्तांतरणीय हैं। अन्य सदस्यों की सहमति के बिना कोई भी शेयरधारी अपने शेयरों का हस्तांतरण कर सकता है। अन्तर्नियमों के अर्न्तगत एक सार्वजनिक कम्पनी भी शेयरों के हस्तांतरण पर कुछ पाबंदिया लगा सकती है लेकिन उन्हें पूर्णतया नहीं रोक सकती। एक सार्वजनिक कम्पनी का शेयरधारी जिस के पास पूर्णतया प्रदत्त शेयर हैं अन्तर्नियमों के प्रावधानों के अनुसार किसी को भी हंस्तातरित करने में स्वतंत्र है।

कम्पनी अधिनियम 2013 में धारा 58(2) के अनुसार “उपधारा (1) पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, किसी सार्वजनिक कम्पनी में किसी सदस्य की प्रतिभूतियां या अन्य हित स्वच्छंद रूप से हस्तांतरणीय होंगे। बशर्ते प्रतिमूतियों के हस्तांतरण की बाबत कोई अनुबन्ध दो या अधिक व्यक्तियों के बीच अनुबंध के रूप में प्र्वतनीय होगा। इसलिये वर्तमान अधिनियम “सार्वजनिक कम्पनी के शेयरधारियों के करारों को जिन में “पहले प्रस्ताव का अधिकार” और “पहले मना करने का अधिकार” का प्रावधान है, वैध है। परन्तु एक निजी कम्पनी को हस्तांतारणीयता पर कुछ पाबंदी लगानी आवश्यक है परन्तु निजी कम्पनी भी हस्तांतरण का अधिकार पूर्ण रूप से वापिस नहीं ले सकती।

(8) सार्व मुद्रा (Common Seal): एक कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है, उसकी मनुष्य की भांति देह नहीं है। इसलिये इसे अपने निदेशक, अधिकारी व दूसरे कर्मचारियों के द्वारा कार्य करने पड़ते हैं। परन्तु यह उन दस्तावेजों के लिये बाध्य है जिस पर इस के हत्ताक्षर हैं। सार्वमुद्रा कम्पनी के अधिकारिक हस्ताक्षर होते हैं । इसके लिए एक धातु की मुद्रा प्रयोग करनी चाहिए प्रत्येक कम्पनी की एक सार्व मुद्रा हो सकती है जिस पर उस का नाम अंकित होना चाहिए | धारा 22(2) के अनुसार कोई कम्पनी, अपनी सार्व मुद्रा के अधीन किसी व्यक्ति को साधारणतया या किसी विनिर्दिष्ट अर्टोनी अधिकार के अंतर्गत, भारत में या भारत के बाहर उस की ओर से विलेखों के निष्पादन के लिए अधिकार दे सकती है। ऐसे किसी अर्टनी द्वारा कम्पनी की ओर से उस की मुद्रा के अधीन हस्ताक्षरित कोई विलेख बाध्य होगा और उस का वही प्रभाव होगा मानो वह उस की सार्वमुद्रा के अधीन किया गया है। कम्पनी (संशोधन) अधिनियम 2015 के अनुसार सार्व मुद्रा अनिवार्य नहीं हैं। यदि किसी कम्पनी की सार्वमुद्रा नहीं है, उस दशा में, प्रमाणीकरण दो निदेशकों या एक निदेशक और कम्पनी सचिव, जहां कम्पनी ने कम्पनी सचिव की नियुक्ति की  है, के द्वारा किया जायेगा। पुनः, सिवाए इसके जहां इस अधिनियम में कोई दस्तावेज या कार्यवाही, जिसका किसी कम्पनी द्वारा प्रमाणीकरण अपेक्षित है कम्पनी के किसी मुख्य प्रबंधकीय कार्मिक या किसी ऐसे अधिकारी, कर्मचारी द्वारा हस्ताक्षरित की जा सकेगी जिसे इस बोर्ड द्वारा अधिकृत किया गया है तथा सार्वमुद्रा की आवश्यकता नहीं है (धारा 21)।

(9) वाद योग्यता (May Sue Or Be Sued): एक न्यायिक व्यक्ति के रूप में कम्पनी अपने नाम से वाद ला सकती है और इस पर वाद लाये जा सकते हैं। इसका कारण यह है कि कम्पनी का एक पृथक विधिक अस्तित्व है। कम्पनी अनुबंध कर सकती है और अनुबंधिक अधिकारों को दूसरों के विरुद्ध प्रवर्तित कर सकती है और यदि यह अनुबधों का उल्लघंन करती है तो इस पर दूसरों द्वारा वाद लाये जा सकते हैं।

निगमन का आवरण (Lifting the Corporate Veil) हटाना क्या होता है ?

निगमन का आवरण हटाना (Lifting the Corporate Veil) क्यों और इसके लाभ और हानि एक कम्पनी का अपने सदस्यों से स्वतंत्र और एक पृथक्‌ विधिक अस्तित्व होता है। पृथक्‌ विधिक अस्तित्व का नियम सालोमन बनाम सालोमन एण्ड कं लि. के वाद में अच्छी तरह से स्थापित हुआ। निगमन के समय कम्पनी और इसके सदस्यों को अलग करने वाली एक रेखा खींची जाती है या एक आवरण डाला जाता है। वास्तव में, कम्पनी व्यक्तियों की संस्था है और ये व्यक्ति ही कम्पनी की सारी सम्मिलित सम्पत्ति के वास्तविक लाभकारी स्वामी होते हैं। कम्पनी के निगमन के पीछे जो असली व्यक्ति होते हैं, कम्पनी का गठन होने और उसका विधिक आस्तित्व हो जाने के बाद, उनकी उपेक्षा कर दी जाती है। पृथक्‌ विधिक अस्तित्व के फलस्वरुप कम्पनी को बहुत से लाभ मिलते हैं जिनके बारे में आपने इस इकाई के पिछले भाग में पढ़ा है। लेकिन जो कम्पनी का इमानदारी से प्रयोग करते हैं उन्हें ही निगमन का लाभ मिलता है। परन्तु निगमन के आवरण  का अनुचित व छल कपट उपयोग करने पर कानून इस निगमन के आवरण के उपेक्षा करता है और इसके पीछे जो व्यक्ति हैं और जो कपट के जिम्मेदार है उनका पता लगाता है और कम्पनी तथा इसके सदस्यों को एक ही व्यक्ति मानता है। जब न्यायालय कम्पनी की उपेक्षा करता है और कम्पनी के सदस्यों और पद–अधिकारों में दिलचस्पी लेता है तब यह कहा जाता है कि निगमन के आवरण को हटा दिया गया है। प्रो. गौवर के अनुसार, “जब कानून निगमित आस्तित्व (Corporate Entity) की उपेक्षा करता है और इस विधिक मुखौटे के पीछे जो व्यक्ति हैं उन पर ध्यान देता है तब इसे निगमित व्यक्तित्व का आवरण हटाना कहते हैं।

 

परन्तु आप ध्यान रखें कि न्यायालय का निगमन के आवरण को हटाने का अधिकार पूर्णतया विवेकाधीन है। न्यायालय कम्पनी का अवरण तभी हटाता है जब ऐसा करना सार्वजनिक हित में होता है। Cotton Corporation Of India Ltd v G.C. Odusumathd(1999) वाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि विधि में, नियम के तौर पर, निगमन का आवरण हटाना, स्वीकृति योग्य नहीं है जब तक कि कानून में स्पष्ट शब्दों में नहीं दिया या चिंताजनक कारणों से जैसे छल कपट को रोकने की चेष्टा या शत्रु देश के साथ व्यापार को रोकना है।

 

जिन परिस्थितियों में निगमन का आवरण हटाया जा सकता है उन्हें मोटे तौर पर निम्नलिखित दो शीर्षकों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है:

1) अभिव्यक्त सांविधिक प्रावधानों के अन्तर्गत, और

2) न्यायिक व्याख्याओं के अन्तर्गत

आइये, अब इनका विस्तार से वर्णन करें।

अभिव्यक्त सांविधिक प्रावधानों के अन्तर्गत (Under Express Statutory Provisions)

कम्पनी अधिनियम 2013 में ही ऐसे कुछ मामलों के लिए प्रावधान है जिनमें कम्पनी के निदेशक या सदस्य व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं। ऐसे मामलों में यद्यपि कम्पनी का पृथक्‌ अस्तित्व तो रखा जाता है परन्तु कम्पनी के साथ-साथ

निदेशकों या सदस्यों को भी व्यक्तिगत रुप से उत्तरदायी ठहराया जाता है। यह मामले निम्नलिखित हैं:

1) प्रविवरण में मिथ्या कथन (धारा 34 व 35)

प्रविवरण में मिथ्या कथन के लिए कम्पनी और प्रत्येक निदेशक, प्रर्वतक, विशेषज्ञ और वह सभी व्यक्ति, जो प्रविवरण जारी करने के अधिकृत हैं, वे सभी उस प्रत्येक व्यक्ति को जिस ने उस मिथ्या कथन के विश्वास पर शेयर खरीदे हैं, हानि व हर्जाना देने के उत्तरदायी होंगे। इस के अतिरिक्त इन व्यक्तियों को कारावास जो छह महीने से कम नहीं होगा और जिसे 10 साल तक बढ़ाया जा सकता है का दंड दिया जा सकता है, और वे जुर्माने के जिम्मेदार होंगे जो छल कपट की कुल रकम से कम नहीं होगा और यह इस राशि का तीन गुणा तक हो सकता है (धारा 34 और धारा 47 साथ पढ़े जाएं)। यद्धपि उपरोक्त कथित दंड से व्यक्ति बच सकता है यदि वह यह सिद्ध कर दे कि ऐसा कथन या लोप महत्वहीन था या उसके पास विश्वास करने का युक्‍क्तियुक्त आधार था और वह प्रविवरण जारी किए जाने के समय तक यह विश्वास करता रहा था कि कथन सत्य है या सम्मिलित किया जाना अथवा लोप किया जाना आवश्यक था।

2) आवेदन राशि को वापिस न करने की चूक (धारा 39)

कम्पनी जनता को जब प्रतिभूति जारी करती है तो, प्रविवरण (प्रास्पेक्टस) में दी गयी रकम न्यूनतम रकम के रुप में 30 दिन की अवधि या ऐसी अन्य अवधि के भीतर जो प्रतिभूति विनिमय बोर्ड द्वारा विनिर्दिष्ट की जाये, यदि प्राप्त नहीं की जाती तो ऐसी राशि को निर्धारित समय के भीतर और रीति में, वापस कर दिया जाएगा। Rule 11 of Companies (Prospectus and Secturies Rules 2014), के अनुसार, आवेदन पत्र की रकम शेयरों के जारी के बन्द होने 45 दिन के अन्दर वापिस करनी होगी। यदि नहीं तो कम्पनी के निदेशक जो कम्पनी के अधिकारी हैं वह संयुक्त और पृथक रूप से 15% वार्षिक दर से ब्याज समेत रकम वापिस करने पर बाध्य हैं। चूक (Default) की दशा में कम्पनी और इसके अधिकारी जिस ने चूक की है 1,000 रुपये प्रतिदिन जब तक यह चूक जारी रहती है या एक लाख रुपये इनमे से जो भी कम है दंड (penalty) के लिए उत्तरदायी होंगे।

3) नाम की जअशुद्धि या ना बताना (Non Disclosure/Misdescription Of Name) (धारा 42)

धारा 12 के अनुसार कम्पनी अपने नाम हुंड़ियों, वचन पत्रों, विनिमय पत्रों और ऐसे दस्तावेजो पर जो विहित है मुद्रित करेगी। अतः जब कोई कम्पनी अधिकारी कम्पनी की ओर से कोई अनुबंध विनिमय पत्र, हुंडी, वचनपत्र, चैक या मुद्रा के आदेश पर हस्ताक्षर करता है तो ऐसा व्यक्ति यदि कम्पनी के नाम का उल्लेख नहीं करता है या गलत नाम देता है व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होगा। इस प्रकार एक चैक पर एक कम्पनी का नाम “रे ब&लालं०5 [वागां।207 लिखा गया जबकि वास्तव नाम “L & R Limited” था। हस्ताक्षर करने वाले निदेशक को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया गया [Hendon v. Adelman(1973) | इसके अतिरिक्त कम्पनी और इसके अधिकारी जिनसे चूक हुई है 1000 रुपये प्रतिदिन जब तक चूक रहती है और एक लाख रुपये इनमें दोनों में जो कम है के उत्तरदायी होंगे।

4) धारा 210 या 212 या 213 के अन्तर्गत

किसी कम्पनी के कार्यकलापों का जांच (Investigation) करने हेतु निरीक्षक को उस के कार्य में सहायता (धारा 249)। धारा 249 में प्रावधान है कि यदि किसी कम्पनी के कार्यकलापों की छानबीन (Investigation) करने के लिए धारा 210 व धारा 212 या धारा 213 के अधीन निरीक्षक नियुक्त किया गया है तो निरीक्षक ऐसी किसी अन्य कम्पनी जो इस कम्पनी से सम्बन्धित है और एक ही प्रबंध के या समुह के अधीन है और ऐसे किसी व्यक्ति का जो किसी उचित समय पर प्रबंध निदेशक, प्रबंधक या कर्मचारी रहा हो, की जांच कर सकता है।

5) कम्पनी के स्वामित्व की छानबीन (घारा 216) (For Investigation Of Ownership Of A Company):

धारा 216 के अनुसार जहां केन्द्रीय सरकार को यह प्रतीत होता है कि ऐसा करने का कारण है तब वह एक या अधिक निरीक्षक नियुक्त कर सकती जो कम्पनी और उसकी सदस्यता सम्बन्धित मामलों की छानबीन करे और उन पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करे ताकि असली व्यक्ति का पता लगाया जा सके जो: (क) कम्पनी की सफलता या असफलता में चाहे वास्तविक रूप से या स्पष्ट रूप से, वित्तीय रूप से दिलचस्पी ले रहे हैं,/ लेते रहे हैं या (ख) कम्पनी की नीति को कौन नियंत्रित करने में या प्रभावित करने में समर्थ हैं या रहे हैं।

6) शक्ति-बाह्म कार्यों के लिए दायित्व (Liability For Ultravires Acts) :

कम्पनी के निदेशक और दूसरे अधिकारी उन सब कार्यों के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होंगे जो कम्पनी की ओर से किए हैं यदि वे शक्ति बाह्य हैं अर्थात कम्पनी की शक्ति के बाहर हैं।

7) कारोबार का छल कपट पूर्ण संचालन करना (Fraudulent) (धारा 339) :

धारा 339 के अनुसार यदि किसी कम्पनी के समापन (Winding UP) के दौरान में यह प्रतीत होता है कि कम्पनी का कारोबार कम्पनी के लेनदारों या किन्हीं अन्य व्यक्तियों को धोखा देने के आशय से किया गया है, ऐसी स्थिति में वे व्यक्ति जो जानबूझकर ऐसे कार्य सहयोगी थे व्यक्तिगत रूप से किसी ऋण या अन्य देयताओं के उत्तरदायी होंगे। ऐसे में अधिकरण (#77घ४) कम्पनी के विधिक अस्तित्व की अनदेखी कर सकता है और कपटी व्यक्तियों को व्यक्तिगत रूप से कम्पनी के ऋणों के लिए उत्तरदायी बना सकता है।

8) अन्य अधिनियमों में दायित्व (Liabilility Under Other Statutes) :

कम्पनी अधिनियम के अतिरिक्त निदेशक व अन्य अधिकारी व्यक्तिगत रूप से दूसरे कानूनों के प्रावधानों के अन्तर्गत उत्तरदायी होंगे । उदाहरण के तौर पर आयकर अधिनियम के अन्तर्गत जब निजी कम्पनी का समापन होता है और यदि पिछले वर्ष की आय पर बकाया आयकर कम्पनी से वसूल नहीं किया जा सकता तब हर व्यक्ति जो किसी भी समय सम्बंधित पिछले वर्ष में कम्पनी का निदेशक था कर देने के लिये संयुक्त व पृथक रूप से उत्तरदायी होगा। इसी प्रकार विदेशी विनिमय प्रबंध अधिनियम, 1999, (FEMA) के अन्तर्गत निदेशक व दूसरे अधिकारियों पर अधिनियम की अवहेलना करने के लिए संयुक्त व पृथक रुप से अभियोग किया जा सकता है।

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न्यायिक व्याख्याओं के अन्तर्गत (Under Judicial Interpretations)

न्यायलयों ने जब निगमन का आवरण हटाया है या हटा सकते हैं उन सब वादों (cases) का बताना कठिन है। कुछ ऐसे वादों का वर्णन किया जा सकता है जहां न्यायिक निर्णय दिया है। वह एक विचार बनाया जा सकता है कि किसी प्रकार की परिस्थितियों में निगम व्यक्तित्व का दिखावा हटाया गया था या जहां पर यदि आवश्यकता पड़ी तो उन व्यक्तियों को पहचाना गया और दण्डित किया गया।

1).. राजस्व सुरक्षा (Protection Of Revenue):

सर दिनशा मानेकजी पेटिट (1927) (Sir Dinshaw Maneckjee Petit) के वाद में, करदाता एक अरबपति व्यक्ति था लाभांश और ब्याज आय के रूप में बहुत बड़ी राशि अर्जित कर रहा था। उस ने चार निजी कम्पनियों का गठन किया और अपना निवेश उन कम्पनियों के शेयर के बदले हर कम्पनी को हस्तांतरित कर दिया | लाभांश और ब्याज की आय जो कम्पनी को मिलती थी वह सर दिनशा को ऋण के रूप वापिस कर देती थी। यह निर्णय दिया कि करदाता ने कम्पनी केवल आयकर ना देने के लिए गठित की थी।| कम्पनी और करदाता दोनों अलग नहीं थे, यह कोई व्यापार नहीं करती थी, परन्तु यह विधिक अस्तित्व केवल लाभांश और ब्याज प्राप्त करने के लिए गठन की गई थी और करदाता को ऋण देने का बहाना था।

2) धोखा या अनुचित आचरण रोकने के लिए (Prevention Of Fraud Or Improper Conduct):

यदि कम्पनी का उद्देश्य धोखा देना या अनुचित आचरण करना रहा है, तो न्यायालय ने निगमन के आवरण को हटाया है और वास्तविकता को देखा है। गिलफोर्ड मोटर कम्पनी बनाम होर्न (Dilford Motor Co.Ltd vs. Home) के वाद में होर्न को गिलफोर्ड मोटर कम्पनी का प्रबंध संचालक नियुक्त किया। करार अनुसार शर्त हुई कि कार्य छोड़ने के कुछ समय तक वह कम्पनी के ग्राहकों तोड़गा नहीं और कम्पनी के साथ स्पर्धा नहीं करेगा। वादी के निकालने के बाद होर्न ने एक कम्पनी गठित की जिस ने स्पर्धा कारोबार चलाया। सब शेयर उसने अपनी पत्नी और कम्पनी के कर्मचारी को आबंटित कर दिए। जिन्हें कम्पनी के निदेशक के रूप में नियुक्त कर दिया था। निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी होर्न का कम्पनी पर नियंत्रण था इस कारण इस का गठन वादी कम्पनी के साथ करार तोड़ने के लिए केवल एक बहाना मात्र या दिखावा (Cloak Or Sham) थी | न्यायालय ने उसके और उसकी कम्पनी के विरुद्ध ग्राहक तोड़ने को रोकने के लिए निषेधादेश (Injunction) जारी किया। इसी प्रकार जोन्स बनाम लिपमेन (1962) (Jones vs. Lipman) के मुकदमे में जमीन के विक्रेता ने एक अनुबन्ध का निर्दिष्ट निष्पादन (Specific Performance ) टालने के लिए जमीन देने के लिए एक कम्पनी गठित की | निर्णय हुआ कि जमीन को कम्पनी को दे देने से विक्रेता के निर्दिष्ट निष्पादन को टाला नहीं सकता क्‍योंकि कम्पनी क्रय अनुबंध को टालने के लिए केवल एक दिखवा थी। विक्रेता और कम्पनी के विरुद्ध अनुबंध के निर्दिष्ट निष्पादन का निर्णय हुआ।

3) कम्पनी के शत्रु स्वरूप का निर्धारण करने के लिए ( Determination Of The Enemy Character Of The Company):

कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है वह मित्र या शत्रु नहीं हो सकती। लेकिन युद्ध के दौरान निगमन का आवरण हटाना आवश्यक होता है और उस कम्पनी के पीछे व्यक्ति शत्रु है या मित्र है यह देखना /ज्ञात करना आवश्यक होता है। यह इसलिए कि कम्पनी का अलग अस्तित्व होता है व इसका कार्य व्यक्ति ही चलाते हैं। डेमलर कम्पनी लिमिटेड बनाम कॉन्टिनेटल टायर एण्ड रबर कम्पनी लिमिटेड (Daimler Co Ltd vs. Continental Tyre & Rubber Co Ltd)(1916) के वाद में एक कम्पनी इंग्लैंड में पंजीकृत की गई इस कम्पनी का उद्देश्य जर्मनी में एक जर्मन कम्पनी द्वारा निर्मित टायरों को इंग्लैंड में बेचना था| इस कम्पनी के अधिकांश शेयरधारी व सभी निदेशक जर्मन थे। 4944 में इंग्लैंड व जर्मनी के बीच युद्ध हुआ। न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि दोनों निर्णय लेने वाली निकाय, निदेशक बोर्ड व अंशधारियों पर जर्मन लोगों का नियन्त्रण था। अतः कम्पनी जर्मन कम्पनी थी इसलिए यह शत्रु कम्पनी थी। अत: कम्पनी ने ऋण वसूली के लिए एक वाद दायर किया व इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि ऋण अदायगी शत्रु के साथ व्यापार करना होगा और शत्रु के साथ व्यापार करना सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है।

4) नियंत्रित कम्पनियों को एजेंट के रुप में कार्य करने के लिए गठित करना (Formation Of Subsidiaries To act as agent ) :

मरचेन्डाईज ट्रांसपोर्ट लिमिटेड बनाम ब्रिटिश ट्रासंपोर्ट कमीशन (1982) के केस में एक परिवहन कम्पनी अपनी गाड़ियों के लिए लाईसेंस प्राप्त करना चाहती थी परन्तु वह अपने नाम से आवेदन नहीं दे सकती थी। इसलिए इसने एक नियंत्रित कम्पनी (Subsdiary) बनाई और उस के नाम से लाइसेंस के लिए आवेदन दिया। गाड़ियों को नियंत्रित कम्पनी के नाम पर हस्तांतरित करना था। निर्णय हुआ नियंत्रक व नियंत्रित कम्पनियां एक वाणिज्यिक इकाई है और लाईसेंस आवेदन को रद्द कर दिया गया। स्टेट ऑफ यू. पी. बनाम वी रेनू सागर पावर कम्पनी (State of UP vs. Renu Sagar Power Co Ltd) (1991) के वाद में यूपी सरकार ने कम्पनियां जो अपने प्रयोग के लिए बिजली उपज करती हैं कुछ उन्हें राजस (Subsidy) सहायता मिलेगी की घोषणा की। रेनु सागर पावर कम्पनी हिन्डलको की 100% नियंत्रित कम्पनी थी और सारी बिजली किसी और को नहीं बल्कि हिन्डलको को दे रही थी। उच्चत्तम न्यायालय ने निर्णय दिया कि नियंत्रक कम्पनी के पास नियंत्रित कम्पनी के 400% शेयर है और यह केवल नियत्रंक कम्पनी के लिए बनाई थी। इसलिए निगमन का आवरण हटाया जा सकता है। हिन्डलको को राजस सहायता मिलेगी। दोनों कम्पनियां एक ही इकाई हैं। आप नोट करें कि इस मामले में कम्पनी के हित के लिए आवरण हटाया गया, निदेशकों, अधिकारियों व कम्पनी को दंड देने के लिए नहीं। फिर जे, बी एक्सपोर्ट लिमिटेड बनाम बी. एस. इ. एस. राजधानी पावर लिमिटेड (2007) (J B Exports Ltd vs BSES Rajdhani Power Ltd) (2007) के मामले मे अपीलकर्ता नम्बर 1 कम्पनी ने अपील कर्ता नम्बर 2 कम्पनी की सारी शेयर पूंजी ले ली जो उसकी एक पंजीकृत उपभोक्ता थी। जिसे उसके फैक्टरी भवन में बिजली कनेक्शन दिया था और यह पता लगने पर कि बिजली का उपभोग अपीलकर्ता नम्बर 4 कर रहा है बिजली बोर्ड ने आदेश दिया कि अपीलकर्ता नम्बर 2 से किराए पर देने के कारण खर्चा वसूल हो। न्यायालय के निर्णय दिया कि “निगमन का आवरण” सिद्धांत लागू करने पर दोनों कम्पनियां एक ही इकाई हैं। इसलिए किराए (Sub Letting) का प्रश्न नहीं है।

5) जो कम्पनी अपने सदस्यों /शेयरधारियों के एजेंट के रूप में कार्य करने के लिए गठित की जाती है (Where a Company acts as agent for its members shareholders):

यदि शेयरधारियों व कम्पनी में ठहराव है कि कम्पनी शेयरधारियों के एक एजेंट के रूप में व्यापार चलाने के कार्य करगी, तो व्यापार वास्तव में शेयरधारियों का है। जहां इस तरह का ठहराव होता है, व्यक्तिगत रूप से शेयरघारियों पर दायित्व होगा। आर_ जी, फिल्मस लि: के वाद में एक अमरिकी कम्पनी ने भारत में “मानसून” नामक एक फिल्म का निर्माण किया और पूंजी भी लगायी। लेकिन तकनीकी रूप में यह फिल्म इग्लैंड में निर्गमित एक कम्पनी के नाम से बनायी गयी थी | ब्रिटिश कम्पनी की पूंजी, केवल एक नकद पाउन्ड के 100 शेयर यानि 100 पाउन्ड थी। इसमें से 90 शेयर अमरीकन कम्पनी के प्रेसीडेंट के पास थे। बोर्ड ऑफ ट्रेड ने फिल्‍म को ब्रिटिश फिल्‍म के रूप में पंजीकृत करने से इंकार कर दिया। न्यायालय ने बोर्ड ऑफ ट्रेड के मत की पुष्टि की| न्यायालय ने निर्णय दिया कि फिल्‍म की सच्ची निर्माता अमरीकी कम्पनी थी और ब्रिटिश कम्पनी ने तो केवल उस के एजेन्ट के रुप में कार्य किया।

6) आर्थिक अपराघ की दशा में (in case of economics offenccs):

शान्तनु रे बनाम यूनीयन ऑफ इन्डिया (Santanu Ray vs. Union of Indai) (1989) में यह निर्णय हुआ कि न्यायालय को निगमन का आवरण हटाने का अधिकार है यदि कोई आर्थिक अपराध हुआ है और विधिक दिखाने की आड़ में आर्थिक वास्तविकता क्‍या है। इस वाद में कम्पनी पर यह आरोप लगा कि उस ने केन्द्रीय उत्पाद व नमक अधिनियम 4944 की धारा 44() का उल्लंघन किया है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि निर्णय देने वाले अधिकारी निगमन का आवरण हटा सकते हैं यह पता करने के लिए कि कौन से निदेशक धोखा, तत्थयों को छुपा या जानबूझकर अशुद्ध कथन या सत्य छुपा रहे थे या अधिनियम के प्रावधानों का या उस के नियमों का उल्लंघन कर रहे थे और उत्पाद शुल्क नहीं दे रहे थे।

7) जब कम्पनी का उपयोग कल्याणकारी कानूनों से बचना हो (Where Company is used to avoid welfare Legislation):

जहां यह पता लगे कि नई कम्पनी गठन करने का उद्देश्य केवल कर्मियों को बोनस की राशि घटा देने के एक साधन के रूप में उपयोग करना था, उच्चतम न्यायालय ने निगमन के आवरण को हटा कर व्यवहारिक स्थिति का पता लगाने का निर्णय दिया। वर्कमैन ऑफ एसोसिटिड रबर इन्टस्ट्रीज लि. बनाम एसेोसिएटिड रबर इन्टस्ट्रीज लि. (Workmen of Associated Rubber Industry Ltd vs. Associated Rubber Industry Ltd) (1986) वाद में एक नई कम्पनी का गठन किया गया जिस की अपनी कोई परिसम्पत्ति नहीं थी सिवाय उस परिसम्पत्ति के जो प्रधान कम्पनी ने इसे हस्तांतरित की थी। नई कम्पनी का अपना कोई व्यवसाय भी नहीं था। इसे हस्तांतरित किये गये शेयरों पर लाभांश प्राप्त होता था| इस प्रकार प्रधान कम्पनी सकल लाभों को कम करने में सफल हुई और इससे मजदूरों को देय बोनस राशि घटा दी गयी। उच्चतम न्यायालय ने नयी कम्पनी के स्वतंत्र पद को खारिज किया और निर्देश दिया कि नई कम्पनी को दी गई लाभांश की राशि भी प्रधान कम्पनी के सकल लाभों को निर्धारण करते समय शामिल की जाएगी |

8) जब कम्पनी का किसी अवैध या अनुचित उद्देश्य के लिए उपयोग किया जाए (Where company is used for some illegal or improper purpose ) :

न्यायालयों ने निगमन का आवरण उठाया है जहां इसका अवैध या अनुचित कार्य के लिए एक माध्यम के रूप उपयोग में किया गया हो। पी. एन. बी. फाईनेंस लि. बनाम भीतल प्रसाद जैन (1983) व सेबी बनाम लिबरा प्लांटेशन (लि) (1999) (PNB Finance Ltd vs. Shital Prasad Jain (1983) And SEBI vs. Libra Plantation Ltd (1999) | बाम्बे उच्च न्यायालय ने जो प्रापर्टी छल कपट स्कीम द्वारा प्राप्त की गयी थी उसको भी तीसरे पक्ष के पास से वापिस लेने का आदेश दिया।

9) न्यायालय का अपमान करने पर दंड (To Punish for contempt of court):

कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति होते हुए भी न्यायालय के आदेश का उल्लघंन नहीं कर सकती। जो व्यक्ति गलती पर हैं उन का पता लगाना चाहिए (ज्योती लि. बनाम कवंलजीत कौर भसीन (1987) (Jyoti Ltd vs. Kanwaljit Kaur Bhasin) |

10) कम्पनी की तकनीकी योग्यता देखना (For Determination of technical competence of the company):

उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि तकनीकी योग्यता के लिए प्रर्व॑तकों का अनुभव कम्पनी का अनुभव माना जाएगा। यहां आप यह नोट करेंगे कि कम्पनी के लाभ के लिए भी निगमन का आवरण हटाया गया। न्यू होराईजन लि: बनाम यूनीयन ऑफ इन्डिया (New Horizons Ltd vs. Union of India) |

11) जहां कम्पनी केवल धोखा या दिखावा है (Where Company is mere Sham or Cloak) :

दिल्‍ली डवलपमेंट ऑर्थोरटी बनाम स्कीपर कस्ट्रक्शन कम्पनी (पी०) लि. (Delhi Development Authority vs. Skipper Contruction Company (p) (1996) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि एक निदेशक और उस को फैमिली ने कई कम्पनियां खोल दी हैं तो उन्हे एक ही अस्तित्व माना जाएगा यदि यह पता लगे कि निगमित निकाय केवल एक धोखा है और यह केवल अवैध कार्य या लोगों को धोखा देने के लिए बनायी गयी हैं।

कम्पनी और साझेदारी में भेद/अंतर क्या है ? ( Difference Between Company And Partnership ? )

क्या कम्पनी और साझेदारी में अंतर है ? अगर है तो वो अंतर् क्या है ?

आपने पढ़ा कि कम्पनी विधि द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है और सीमित दायित्व व शाश्वत उत्तराधिकार इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं। आइये अब यह अध्ययन करें कि एक कम्पनी और एक प्रचलित व्यक्तियों की संस्था जिसे साझेदारी कहा जाता है में क्या अन्तर है। इन दोनों के मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं:

    1. निर्माण की विधि (Mode Of Creation)
    1. सदस्यता (Membership)
    1. विधिक स्थिति (Legal Status)
    1. सदस्यों का दायित्व (Liability Of Members)
    1. शेयरों का हस्तांतरण (Transfer Of Shares)
    1. शाश्वत उत्तराधिकार (Perpetual Succession)
    1. प्रबंध (Management)
    1. एजेन्सी सम्बंध (Agency Relationship)
    1. सम्पत्ति (Property)
    1. सांविधिक अपेक्षाएं (Statutory Requirements)
    1. शक्तियां (Power)
    1. विघटन (Dissolution)
    1. विनियम विधान (Governing Legislation)

(1) निर्माण की विधि (Mode Of Creation) : कम्पनी की स्थापना केवल तभी होती है जब वह कम्पनी अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत की जाती है। जबकि एक साझेदारी का गठन साझेदारों में किए गए करार द्वारा होता है। साझेदारी

अधिनियम 4932 के अन्तर्गत साझेदारी फर्म का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है। इसलिए एक साझेदारी फर्म जो पंजीकृत नहीं है वह अवैध नहीं है।

(2)सदस्यता (Membership)

(क) न्यूनतम : साझेदारी में सदस्यों की न्यूनतम संख्या दो होती है। जबकि निजी कम्पनी के सदस्यों   न्यूनतम संख्या 2 है और सार्वजनिक कम्पनी में 7 है। 

(ख) अधिकतम : साझेदारी में अधिकतम संख्या 50 तक सीमित है प्राईवेट कम्पनी में अधिकतम संख्या 200 है। (भूतपूर्व व वर्तमान कर्मचारियों को छोड़कर और सयुंक्त रूप से अंशधारी एक सदस्य माने जाते हैं|) परन्तु सार्वजनिक कम्पनी में सदस्यों की अधिकतम संख्या पर कोई सीमा नहीं है।

(3) विधिक स्थिति (Legal Status):
कम्पनी एक पृथक विधिक व्यक्तित्व के रूप में होती है जबकि साझेदारी एक पृथक व्यक्ति नहीं हैं।  साझेदारी, आमतौर से फर्म कहलाती है और इसका सदस्यों से अलग विधिक अस्तित्व नहीं होता। सारे साझेदारों को एक फर्म कहने का एक सरल तरीका है। कम्पनी क्योंकि एक कानूनी व्यक्ति है इसलिए अपने सदस्यों से भिन्‍न है।

(4) सदस्यों का दायित्व (Liability Of Members): शेयरों द्वारा सीमित कम्पनी में प्रत्येक  शेयरधारी का दायित्व उस के पास शेयरों के मूल्य तक या उनके द्वारा दी गई गारण्टी की राशि तक  ही सीमित है। लेनदार केवल कम्पनी के विरुद्ध कारवाई कर सकते हैं परन्तु सदस्य या सदस्यों के  विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकते। असीमित दायित्व वाली कम्पनी के भी लेनदार सदस्य के विरुद्ध  व्यक्तिगत या संयुक्त रूप से कारवाई नहीं कर सकते क्‍योंकि कम्पनी सदस्यों से पृथक है। वे कम्पनी  के विरुद्ध कार्यवाही कर सकते हैं। परन्तु साझेदारी में साझेदारों का दायित्व असिमित होता हैं और साझेदार फर्म के ऋण के लिए संयुक्त व पृथक रूप से उत्तरदायी होते हैं। फर्म के लेनदार  सभी साझेदारों के लेनदार हैं और वे साझेदारों के विरुद्ध व्यक्तिगत और संयुक्त रूप से कार्यवाही  कर सकते हैं।

(5) शेयरों का हस्तांतरण (Transfer Of Shares) : सार्वजनिक कम्पनी के शेयर स्वतंत्र रूप  से हस्तांतरणीय हैं। एक निजी कम्पनी हस्तांरणीयता को मना किए बिना अपने शेयरों की हस्तांतरणीयता पर कुछ पाबंदियां लगाती है। एक साझेदारी में कोई भी साझेदार अन्य साझेदारों के  सहमति के बिना अपने शेयर का विक्रय या हस्तांतरण नहीं कर सकता।

(6) शाश्वत उत्तराधिकार (Perpetual Succession): एक कम्पनी के पास  शाश्वत  उत्तराधिकार होता है। किसी सदस्य की मृत्यु, दिवालिया, पागल या अलग होने से कम्पनी के अस्तित्व  पर कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन साझेदारी में ऐसा नहीं है। जब तक कोई करार न हुआ  हो, फर्म के किसी साझेदार की मृत्यु, दिवालिया होना, इत्यादि से साझेदारी फर्म का अन्त हो जाता है।

(7) प्रबंध (Management): कम्पनी के कार्यों का प्रबंध एक निदेशक मंडल करता है। निदेशक  मंडल में निदेशक साधारण सभा में शेयरधारियों द्वारा निर्वाचित, नियुक्ति या पुनः नियुक्त  किए जाते हैं। कम्पनी के कार्यों के प्रबंध में सदस्यों की कोई भूमिका नहीं होती। दूसरी ओर साझेदारी  में हर साझेदार फर्म के प्रबंध में भाग ले सकता है, यदि साझेदारी विलेख या करार के  इसके विपरीत न दिया हो।

(8) एजेन्सी सम्बंध (Agency Relationship): शेयरधारी कम्पनी के एजेन्ट नहीं होते और उनको कम्पनी को अपने कार्यों से बाध्य करने का कोई अधिकार नहीं होता। साझेदारी फर्म में प्रत्येक साझेदार फर्म का और दूसरे साझेदारों का एजेन्ट होता है। एक साझेदार दूसरे साझेदारों के कार्यों से बाध्य होता है यदि वे कार्य उस के स्पष्ट या प्रत्यक्ष अधिकार में हों। 

(9) सम्पत्ति (Property) : कम्पनी की स्थिति में कम्पनी की सम्पत्ति उस के नाम होती है और इसका सम्पत्ति पर स्वामित्व होता है। यह किसी व्यक्तिगत शेयरधारियों की नहीं होती | कम्पनी के जीवनकाल में किसी भी शेयरधारी का कम्पनी की किसी भी सम्पत्ति में कोई विधिक या न्‍्यायोचित हित नहीं होता । लेकिन साझेदारी की स्थिति में साझेदार फर्म की सम्पत्ति के संयुक्त स्वामी होते हैं।

(10) सांविधिक अपेक्षाएं (Statutory Requirements): एक कम्पनी के लिए विभिन्‍न सांविधिक औपचारिकताएं पूरा करना आवश्यक है। जैसे सांविधिक बहियां (Statutory Books) रखना व खातों का चार्टड अकाउन्टेंट से अंकेक्षण करवाना इत्यादि। लेकिन साझेदारी फर्म का ऐसा कोई सांविधिक दायित्व नहीं है।

(11) शक्तियां (Power) : कम्पनी की शक्तियां सीमानियम के उद्देश्य खंड में दी होती हैं। उन का परिवर्तन अधिनियम में दिये हुए तरीके से होता है। साझेदारी में साझेदार, साझेदारी विलेख  (थ्ाप्रक्षशं० 6७००) में आपसी सहमति से परिवर्तन सकते हैं।

(12) विघटन (Dissolution): कम्पनी के निगमित अस्तित्व का अन्त केवल कम्पनी अधिनियम 2013 के प्रावधानों के अनुसार ही किया जा सकता है। एक साझेदारी का विघटन किसी भी समय साझोदारों के करार से हो सकता है या एच्छिक साझेदारी में एक भी साझेदार के जाने पर।

(13) विनियम विधान (Governing Legislation): कम्पनी, कम्पनी अधिनियम 2013, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड विनियमन और स्टॉक एक्सचेंज के लिस्टिंग आवश्यकताओं (Listing Requirements) द्वारा विनियमित की जाती है। जबकि साझेदारी भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 द्वारा विनियमित की जाती है।

Topic

लेख एवं अंकन दो शब्दों के मेल से वने लेखांकन में लेख से मतलब लिखने से होता है तथा अंकन से मतलब अंकों से होता है । किसी घटना क्रम को अंकों में लिखे जाने को लेखांकन (Accounting) कहा जाता है ।

किसी खास उदेश्य को हासिल करने के लिए घटित घटनाओं को अंकों में लिखे जाने के क्रिया को लेखांकन कहा जाता है । यहाँ घटनाओं से मतलब उस समस्त क्रियाओं से होता है जिसमे रुपय का आदान-प्रदान होता है ।

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